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धवलीकर के बयान में गलत क्या है

मुक्त विचार
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गोवा में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। सरकार में लोक निर्माण मंत्री सुदीप धवलीकर का एक बयान आजकल चर्चाओं में है जिसमें उन्होंने नाइट क्लबों में लड़कियों के मिनी स्कर्ट पहनकर आने और बीच पर बिकनी पहनकर युवतियों के भ्रमण पर पाबंदी लगाने का इरादा जाहिर किया था। इसके पहले श्रीराम सेना ने एक बयान जारी किया था जिसमें उसने महिलाओं पर छोटी स्कर्ट पहनने पर पाबंदी और मादक पदार्थों, उन्मुक्त यौन संबंध तथा नग्नता की संस्कृति पर रोक लगाने की मांग की थी। जाहिर है कि धवलीकर द्वारा व्यक्त इरादे में श्रीराम सेना की मांग की अनुगूंज सुनी गयी जिससे उनके बयान में विवाद का रंग और गहरा गया। बहरहाल गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर ने बैकफुट पर जाते हुए धवलीकर के बयान से सरकार के हाथ खींच लिये हैं।
भारत संस्कृति की दृष्टि से विविधताओं का देश है। बाहर से आयी संस्कृतियां भी इसका हिस्सा बन चुकी हैं। आज मिलीजुली संस्कृति के अनुरूप देश को चलाने की जरूरत है। भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर जिस एजेण्डे को देश पर थोपना चाहती है उससे राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिये खतरा पैदा होने का अंदेशा है लेकिन भारतीय हो या दुनिया की कोई अन्य सभ्यता और संस्कृति। सभी की बुनियाद में एक जैसे मूल्य होते हैं जो चिर प्रासंगिक हैं। सभ्यता की शुरूआत मानव द्वारा संयम की सीख अपनाने से हुई और ज्यों-ज्यों इसका दायरा बढ़ता गया। सभ्यता शिखर की ओर बढ़ती गयी। संयम यानि बंदिश को इबादत का पहला पाठ माना गया है और इसमें सबसे पहले यौन संयम की बात की गयी थी। यौन संयम सभ्यता का पहला सोपान था जिससे मानव पशुओं से अलग और सृष्टि के श्रेष्ठतम जीव के रूप में पहचाने जाने योग्य बना है।
संयम की संस्कृति को इंसान की शक्ल में रहने वाले हैवानों ने समय-समय पर व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर चुनौती देने का प्रयास किया है और यह क्रम आज भी जारी है। कारोबारी लाभ को बढ़ाने के लिये कई मानव जातियों ने हैवानियत को अपने में रचा बसाकर मानव सभ्यता को कलंकित किया क्योंकि दूसरों के प्राकृतिक संसाधनों से लेकर श्रम और प्रतिभा को बेदर्दी से लूटने खसोटने के काम को हैवानियत के अलावा किसी दूसरे रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता।
यूरोपीय कौमों का आधुनिक इतिहास इसी हैवानियत का सफरनामा है जो मानवाधिकारों के मौजूदा युग में भी जारी है और इसे लेकर अभी तक उनके मन में अपराधबोध या अफसोस जैसी कोई बात नहीं है। गोवा में जिस यूरोपियन जाति ने अपना उपनिवेश बनाया वे पुर्तगाली थे। पुर्तगालियों ने यहां के मूल बाशिंदों पर जो कहर ढाये उन्हें पढ़कर आज भी रूह कांप जाती है। उन्होंने दास प्रथा के लिये मानव व्यापार का क्रूर सिलसिला गोवा में कायम किया। रामधारी सिंह दिनकर भारतीय संस्कृति के चार अध्याय नामक अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि पुर्तगालियों के समय माताओं की गोद से नवजात शिशुओं को छीनकर उन्हें बेचने में भी हिचक नहीं की जाती थी। जबरिया धर्म परिवर्तन के लिये तैयार न होने वाले हजारों हिन्दू मुसलमानों को पुर्तगालियों ने गाजर मूली की तरह काट फेेंका। भारत में सिफलिस की बीमारी पुर्तगालियों के आने के पहले सुनी तक नहीं गयी थी। यौन उच्छृंखल कौम होने के कारण पुर्तगालियों ने ही सबसे पहले सिफलिस को फैलाया। क्या गोवा के लिये पुर्तगालियों द्वारा रोपी गयी संस्कृति कोई महान धरोहर है जिसे आंच नहीं आने दी जानी चाहिये या आजादी के बाद गोवा की सभ्यता का नैन नक्श भी बदले जाने की जरूरत नये भारत को महसूस करना चाहिये यह एक ज्वलंत सवाल है और इस सवाल के और ज्यादा व्यापक आयाम हैं। यह सवाल वर्तमान बाजारी अपसंस्कृति से भी जुड़ता है। वर्तमान बाजारी संस्कृति जिसमें उत्पादों को मनमाने मुनाफे पर बेचने के लिये उनकी गुणवत्ता का दावा करने का कोई अर्थ नहीं है बल्कि इसमें यह लक्ष्य हासिल करने के लिये युवतियों द्वारा अभिसार की मुद्रा में यौन आमंत्रण का सहारा लिया जाना मान्यता प्राप्त जैसा हथकंडा माना जाता है और यह संयोग नहीं है कि उक्त बाजारी संस्कृति भी यूरोपीय कौमों की देन है। जाहिर है कि यह अपसंस्कृति कारोबार के विस्तार में यौन संयम को सबसे बड़ी बाधा मानती है। बाजारवादी प्लावन का एक ही लक्ष्य है यौन संयम के सारे तटबंधों को तोडऩा। अगर सभ्यता के मूल्यों की रक्षा के लिये इस पर कोई आपत्ति करता है तो स्त्री अधिकार की दुहाई देकर उसे चुप कराने की कोशिश की जाती है। भदेस शब्दों में कहें तो भड़ुवागीरी की बाजारी अपसंस्कृति का प्रतिरोध इस्लाम की ओर से सर्वाधिक शिद्दत के साथ किया जा रहा है जो कि उसकी बुनियादी प्रतिबद्घताओं के मद्देनजर पूरी तरह लाजिमी भी है। इसी कारण पश्चिम प्रेरित मीडिया इस्लामी सभ्यता को सर्वाधिक स्त्री विरोधी सभ्यता के रूप में प्रचारित करने का अभियान चलाये हुए है। हिन्दू या सनातनी तो इस्लाम से ज्यादा पुरानी सभ्यता का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके कारण उन्हें अच्छी तरह ज्ञान और भान है कि स्त्री की मुक्ति के मायने क्या हैं और जो लोग स्त्री स्वातंत्र्य का मुखौटा ओढ़कर इस नाम पर कोहराम मचाये हुए हैं। वास्तव में वे स्त्री के अस्तित्व के लिये कितना बड़ा खतरा साबित हो रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो स्त्री मुक्ति और स्त्री अधिकार का तूफान जिस दौर में सबसे ताकतवर दर्शाया जा रहा है उसी दौर में बलात्कार और यौन हिंसा की घटनायें पराकाष्ठा पार करती जा रही हैं। आखिर अगर आप सचमुच आम बो रहे हैं तो बबूल क्यों पैदा हो रहा है। इस पर सवाल होना चाहिये। कोई दौर ऐसा नहीं रहा जब मनुष्यता इतनी यौन लोलुप हुई हो कि मासूम बच्चियों तक के साथ दुष्कर्म की घटनाओं का ऐसा तांता लगा हो। आज बलात्कार और यौन हिंसा से निपटने के लिये दोषियों को फांसी व अन्य कड़ी सजायें देने के कानूनी उपचार में समस्या का समाधान खोजा जा रहा है जो कि निरीह मृग मरीचिका है। बाजार के यौन उद्दीपक व्यवहार पर सयानों की निगाह क्यों नहीं जा रही जिसके रहते कितना भी कड़ा कानून बन जाये लेकिन बलात्कार की घटनायें रोकना तो दूर बढ़ती ही जायेंगी। आखिर पुरुषों के अंडरगारमेंट को बेचने की पैरवी अर्धनग्न लड़की से कराने की क्या तुक हो सकती है। विज्ञापनों में देह की नुमाइश करती हुई लड़कियों के माध्यम से उन्हीं की अस्मिता के लिये घातक वातावरण तैयार किया जा रहा है। हिन्दुओं में कुंवारी बच्चियों को देवी माना जाता है। इसलिये कन्या भोज की हिन्दुओं में बहुत बड़े पुण्य कार्य के रूप में मान्यता है। फिर विवाह समारोहों और अन्य मांगलिक अवसरों पर कैटरिंग के ठेकेदारों द्वारा कन्याओं से वेटर का काम लिये जाने पर क्यों ऐतराज नहीं हो रहा। कन्याओं या स्त्रियों से हर काम कराने की इजाजत किसी सभ्य समाज द्वारा दी जानी औचित्यपूर्ण नहीं है। उनके लिये वही काम मान्य है जो स्त्री जाति की गरिमा के अनुरूप हो पर बाजारी अपसंस्कृति के मारीच बहस को गलत दिशा में ले जाकर पूरे समाज को गुमराह करने का काम करते हैं और परंपरागत समाज भी नैतिक साहस व साफ दृष्टि के अभाव में दब्बूपन का शिकार हो जाता है। आज मासूम बच्चियों से कोल्ड ड्रिंक सर्व कराया जा रहा है कल क्या गारंटी है कि उनसे शराब सर्व नहीं करायी जायेगी। इसके बाद नशे में लोग उनके साथ कुछ भी हरकत कर सकते हैं पर छोटे शहरों तक में लोग बाजार के अंधे प्रवाह में बहते हुए इस तरह की बेजा हरकतों को स्वीकार कर रहे हैं।
यौन संयम के मूल्यों की रक्षा एक ऐसा मुद्दा है जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों को एक मंच पर लाकर राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को मजबूत किया जा सकता है। भाजपा को चाहिये कि वह धवलीकर जैसों के बयानों पर प्रतिरक्षात्मक न होकर डटकर उसके औचित्य को सिद्घ करने का प्रयास करे। यह हमारी प्रतिबद्घताओं की परीक्षा का दौर है जिसमें कच्चा पडऩा हमें पाखंडी साबित करेगा। बाजारी सभ्यता इंसानियत को जंगली दौर में ले जाने की इंतहा पार कर चुकी है जिस पर लगाम लगानी है तो कट्टरता, रूढि़वादिता जैसी तोहमतों की परवाह किये बिना नैतिकता और सभ्यता के असली मूल्यों की रक्षा के लिये दृढ़ता दिखानी ही पड़ेगी।

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