Menu
blogid : 11660 postid : 785110

दलितों के प्रति हमलावर क्यों हैं मोदी

मुक्त विचार
मुक्त विचार
  • 478 Posts
  • 412 Comments

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दलितों और उनकी आस्था के प्रतीकों पर लगातार हमलावर हो रहे हैं। उन्होंने केरल के एक दलित संत की स्मृति में आयोजित समारोह को संबोधित करते हुए समता और समरसता के द्वंद्व की नई परिभाषा गढ़ दी। चुनाव के बाद मोदी द्वारा दलित विमर्श में लगातार विवादित बयानबाजी की जा रही है। उनके उक्त भाषण को इसी से जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इस नाते उसकी शीर्ष प्राथमिकताओं में व्यवस्था पूर्ण समाज का तकाजा शामिल है। मोदी के नेतृत्व में एक बेहतर बात यह है कि उनमें फैसले लेने की क्षमता है और सरकारी खजाने को लूटकर निजी जायदाद का अंबार लगाने की लोलुपता नहीं है। रोजमर्रा की शासनशैली में उनका दिमाग बेहद हाजिर जवाब दिखता है। जाहिर है कि यह सब सुव्यवस्था के घटक हैं। इसके पहले देश में व्यवस्था का जैसे अस्तित्व ही समाप्त हो गया था। मोदी के आने से शासनशैली पटरी पर आई है जिससे लोग फिलहाल उनके मुरीद हो गए हैं लेकिन अब मोदी के बारे में परीक्षा का अगला पड़ाव नीतियों के स्तर पर है जिनके जरिए भविष्य का निर्माण होता है। यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि मोदी नीतियों के मामले में बिल्कुल भी निर्मल नहीं हैं बल्कि वे प्रतिगामी दर्शन को समाज पर थोपना चाहते हैं जिससे समाज की भावी रूपरेखा काफी बिगड़ सकती है।
मोदी की नीतियों के अन्य पहलुओं पर बाद में चर्चा कर ली जाएगी फिलहाल तो वर्ण व्यवस्था को लेकर उनकी धारणाओं पर चर्चा मौजू है। लोकसभा चुनाव के अभियान में मोदी ने हर जगह कहा कि बाबा साहब अंबेडकर के संघर्ष और उनके बनाए संविधान का प्रताप है कि जिस जाति से वह निकलकर आए हैं उसका कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री के पद की दौड़ में सबसे आगे है। जाहिर है कि मोदी ने वर्ण व्यवस्था के कारण हीन बनाई गई अपनी तरह की सभी जातियों की पीड़ा को मुखर किया। उस समय उन्होंने यह परवाह नहीं की कि वितंडा वीर वर्चस्ववादी वर्ग के वे इन जुमलों से प्रकोप का निशाना बन सकते हैं और चुनाव में उनका अनर्थ हो सकता है। मोदी को ज्ञान था कि लोकतंत्र में संख्या बल से जीत हार तय होती है और इसमें वितंडा वीर जातियां पीछे हैं। दूसरी ओर बहुजन समाज जाग्रत हो चुका है जिसमें बाबा साहब का जिस प्रकार वे हवाला दे रहे हैं उससे आत्मसम्मान को लेकर आक्रामक चेतना उभरेगी और चुनाव में उनकी नैया बहुत ही आसानी से पार हो जाएगी।
अगर मोदी सचमुच वर्ण व्यवस्था जैसी मानवाधिकार विरोधी व्यवस्था के विरोधी होते तो संघ परिवार से उन्होंने कभी का विद्रोह कर दिया होता लेकिन मोदी सुग्रीव परंपरा के हैं इस कारण वे यथार्थ में लक्ष्मण रेखा लांघ ही नहीं सकते थे और आज वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में यथास्थिति की लक्ष्मण रेखा की रक्षा करके उन्होंने वर्चस्ववादियों के भरोसे को कायम रखा है। मोदी का सुर प्रधानमंत्री बनने के बाद बदलना शुरू हुआ। इसके पहले उन्होंने जातिगत भेदभाव के जननी कर्मकांडों का पुर्नत्थान सरकारी स्तर पर शुरू किया। चुनाव के पहले उदित राज जैसे कई दलित पुरोधा भाजपा में उनके पूर्ववर्ती बुद्धप्रिय मौर्य से लेकर संघप्रिय गौतम तक और यहां तक कि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे सूरजभान तक के हश्र से विदित होने के बावजूद संघ के सामने नतमस्तक होकर भाजपा मेंं शामिल हो गए लेकिन मोदी ने कुछ ही दिनों में उन्हें अपनी पहचान तक को मोहताज कर दिया है। रामविलास पासवान भी अतीत की तरह धुरंधर नहीं रह गए हैं। सारे दलित नेताओं को उन्होंने सेवक की हैसियत में ला दिया है। मोदी ने जितने गर्वनर बनाए हैं उनमें एक भी दलित नहीं है। केेंद्रीय मंत्रिमंडल में भी दलितों का प्रतिनिधित्व न्यून है और किसी भी कद्दावर दलित नेता को भाजपा कोटे से मंत्री नहीं बनाया गया है। दलितों को उनकी औकात पर पहुंचाने का मोदी का यह अभियान यहीं तक सीमित नहीं रहा। हद तो तब हो गई जब उन्होंने गुजरात में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए बाबा साहब के लिए यह कहकर कि वे कोई बहुत बड़े क्रांतिकारी समाजसुधारक नहीं थे। लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान अपनाए गए अपने रुख से पूरी तरह पलटी मार दी। दलितों के लिए भी इस कार्यक्रम में उन्होंने आहत करने वाला भाषण दिया। लोकसभा में मोदी के इस भाषण को उठाया भी गया लेकिन फिलहाल मोदी के सम्मोहन में गिरफ्तार मीडिया में यह खबर लगभग ब्लैक आउट हो गई।
यह आरोप सवर्णों का है कि दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था से सामाजिक समरसता भंग हो रही है क्योंकि इसका विधान संविधान लागू होने के मात्र दस वर्ष के लिए किया गया था। बावजूद इसके चौंसठ वर्ष से अधिक हो जाने के बावजूद यह व्यवस्था लागू है और इसे अनंतकालीन बनाया जा रहा है। इसके कारण सवर्णों के प्रतिभाशाली युवक अच्छे अवसरों से वंचित हो रहे हैं जिससे जातिगत कटुता बढ़ रही है। जाहिर है कि सवर्ण सामाजिक समरसता की शोशेबाजी की आड़ में आरक्षण को समाप्त करना चाहते हैं जबकि हकीकत यह है कि सरकारी नौकरियों में दलितों का प्रतिनिधित्व अभी भी उनके लिए तय आरक्षण अनुपात से काफी कम है। सवर्णों का तर्क यह है कि दलितों में योग्य अभ्यर्थी न मिलने की वजह से शुरू में उनके लिए आरक्षित सीटें जनरल करनी पड़ती थीं जिसकी वजह से अगर उनका कोटा पूरा नहीं हो पाया तो दोष उन्हीं का है। अब सवाल यह है कि वर्ण व्यवस्था के एक धुरंधर महारथी जब रेल मंत्री बन गए और रेलवे में स्वीपरों की जगह निकलीं तो भर्तियां दलितों की बजाय उन्हीं के वर्ग की हो गईं। क्या स्वीपर की नौकरी के लिए भी योग्य दलित नहीं मिल पाए या रेलवे में स्वीपर की भी तनख्वाह बहुत अच्छी होने से सवर्ण इसे भी छोडऩे को तैयार नहीं हुए थे। जाहिर है कि आरक्षण कोटे की पूर्ति न होने के पीछे जातिगत दुर्भावना अधिक है। योग्यता के अभाव की दलील बिल्कुल नहीं।
मोदी ने समता के बरक्स समरसता की बात कहकर यह संकेत देने की कोशिश की है कि वे सरकारी नौकरियों को आरक्षण व्यवस्था से मुक्त कर देंगे। समरसता का मुद्दा वे उठा रहे हैं जिनके अन्यायपूर्ण प्रावधानों की वजह से दलितों ने पशु से अधम जीवन सदियों तक जीया है। समरसता का मतलब है कि वर्तमान परिवेश में कुछ सुसभ्य तरीके से उन व्यवस्थाओं को बहाल रखने की चालाकी। दलित समता के मुकाबले ऐसी समरसता को कदापि स्वीकार नहीं करेेंगे। मजे की बात यह है कि इस मामले में संघ का सुर मोदी से बिल्कुल अलग निकला। मोहन भागवत ने एक पुस्तक विमोचन के समारोह में दलितों के लिए आरक्षण व्यवस्था जारी रखने की पुरजोर वकालत की। मोहन भागवत को पता है कि सवर्ण सर्टिफिकेट से मोदी का कल्याण नहीं होगा इसलिए बेपटरी हो रहे मोदी को पटरी पर लाने के लिए सामाजिक मुद्दे पर भी संघ को दखल देने की जरूरत महसूस हुई है। इस समारोह में दलितों के साथ हुए अमानवीय बर्ताव पर भी मोहन भागवत ने काफी अफसोस जताया है। हालांकि यह दूसरी बात है कि इसके लिए उन्होंने सवर्णों को जिम्मेदार मानने की बजाय विदेशी शासकों पर इसका ठीकरा फोड़ दिया। अब यह बात मोहन भागवत ही बता सकते हैं कि किसी मुस्लिम शासक या अंग्रेज प्रशासक ने उनके साथ छुआछूत का बर्ताव किया या उनके साथ यह बर्ताव पूरी तरह सवर्ण समाज के लोगों की ही देन था। बहरहाल अतीत की भूलों को भुलाया जा सकता है लेकिन ïवर्ण व्यवस्था की समाप्ति इसकी पहली शर्त है। आज सुसंगठित राष्ट्र के रूप में अमेरिका का उदाहरण दिया जाता है। वजह यह है कि साढ़े चार सौ-पांच सौ वर्ष पहले बाहर से पहुंचे लोगों ने अमेरिका के नए स्वरूप का निर्धारण किया। इस कारण उसमें पुरानी सामाजिक व्यवस्था के सारे अवशेष त्याग दिए गए। मोदी अपने आप को राष्ट्रवाद के सबसे बड़े प्रणेता के रूप में स्थापित कर रहे हैं। उनको अमेरिका के उदाहरण पर जरूर गौर करना चाहिए। वर्ण व्यवस्था आदिमकालीन सामाजिक संरचना है जिससे पिंड छुड़ाने का मौका भारतीय समाज के आधुनिकीकरण और यहां मजबूत राष्ट्रवाद के लिए अपरिहार्य है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply