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बाजारू मीडिया से दूर होते प्रतिबद्ध राजनीतिज्ञ

मुक्त विचार
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक जमीन कमजोर पड़ती जा रही है। उपचुनावों में तो उनके नेतृत्व के रहते हुए भी भारतीय जनता पार्टी को मात खानी ही पड़ी अब राज्यों के आने वाले चुनावों में भी भाजपा के आसार अच्छे नहीं हैं। फिर भी भारतीय मीडिया ने मोदी का गुणगान चारण की भूमिका में पहुंचने की सीमा तक जारी कर रखा है। उनकी अमेरिका सहित सभी विदेश यात्राओं को भारत के लिए अनूठी उपलब्धि की बतौर प्रस्तुत किया गया है जबकि बाहर के विवेकशील समीक्षक बता रहे हैं कि इन यात्राओं से भारत को कुछ ठोस हासिल नहीं हुआ है।
मोदी के प्रति भारतीय मीडिया की इस असीम मुग्धता के समानांतर एक तथ्य और है कि उनके प्रति आसक्त मीडिया अब यह भी महसूस करने लगा है कि वे देशी मीडिया की उपेक्षा कर रहे हैं जिससे लोकतांत्रिक मान्यताएं कमजोर पडऩे का खतरा पैदा हो गया है। इस संबंध में कुछ ही दिनों पहले एडीटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने शिकवा करने के अंदाज में उनके लिए एक चेतावनी भी जारी की जो दृष्टव्य है। एडीटर्स गिल्ड आफ इंडिया में संपादकों के नाम पर ज्यादातर अखबार मालिक भरे हुए हैं जिन्हें मोदी से अपने व्यवसायिक स्वार्थों की पूर्ति की भी बड़ी उम्मीदें हैं। इसके बावजूद उन्होंने कहा है कि मोदी स्वयं तो भारतीय मीडिया से संवाद रखने में कतरा ही रहे हैं उन्होंने अन्य केेंद्रीय मंत्रियों व मंत्रालयों के अधिकारियों को भी मीडिया से परहेज रखने की हिदायत दी है जिससे मीडिया के लिए अपनी भूमिका जनअपेक्षाओं के अनुरूप निभाना मुश्किल हो गया है। मोदी जिस मीडिया के इतने चहेते हैं आखिर उसी के दिल में ठेस पहुंचाने का उनका मकसद क्या है। मीडिया और उनके बीच कुछ आशिक और माशूक जैसा मामला बनता जा रहा है। मोदी को शायद लगता हो कि मीडिया में उनके लिए जो दीवानगी है उसमें और ज्यादा तड़पन पैदा करने के लिए उससे दूरी बनाना त्वरण का काम करेगा। इश्कमिजाजी में जानबूझकर खिंचाव रखना ऐसी अदा है जो दूसरे पक्ष में आकर्षण की आग को और भड़काती है।
बहरहाल यह तो एक अलग बात है लेकिन मीडिया जिस तरह से हाल के दशकों में बाजारू हुई है उसके बाद इसकी गरिमापूर्ण पहचान और परिभाषा के बारे में पुनर्विचार का तकाजा होने लगा है। इसके पहले भी परिवर्तनकामी शक्तियां मीडिया को वर्ग शत्रु का औजार समझती थीं। बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम अपने कार्यकर्ताओं से शुरूआती दौर में हमेशा यह कहते थे कि मीडिया पर विश्वास मत करो। यह तुम्हें गुलाम करने वालों से मिला हुआ है और तुम अगर इसके झांसे में फंसे तो यह गुमराह करके तुमको मिशन से भटका देगा। कम्युनिस्ट देशों में पश्चिमी मीडिया की खबरों को इसी मकसद से नहीं पढऩे दिया जाता था कि यह वर्ग शत्रुओं के वितंडा का हथियार है जिसका इस्तेमाल जनवादी समाज को गुमराह करने में किया जाता है और इसका प्रभाव पनपने दिया गया तो उनकी व्यवस्था छिन्नभिन्न हो जाएगी। सोवियत संघ सहित वारसा संधि के कई देशों में कम्युनिस्ट व्यवस्था के पतन के पीछे जो कारक रहे उनसे यह बात साबित भी हुई।
आज मीडिया की जो हालत है उसके बरक्स चाहे वामपंथी प्रतिबद्धता की राजनीतिक शक्तियां हों या दक्षिण पंथी प्रतिबद्धता की हर प्रतिबद्ध राजनीतिक शक्ति को इससे सावधान रहने की जरूरत महसूस होने लगी है। मीडिया का मूल्यांकन भी समाज और व्यवस्था के दायरे में होता है। समाज और व्यवस्था की कीमत पर किसी भी संस्था भले ही वह मीडिया ही क्यों न हो, की स्वतंत्रता स्वायत्तता का मुद्दा उठाना जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई दौर था जब पीत पत्रकारिता गर्हित मानी जाती थी और पीत पत्रकारिता में संदर्भ से काटकर किसी सूचना को सनसनी बनाने के लिए प्रस्तुत करना भी शामिल था लेकिन आज मीडिया में संपूर्णता में स्थितियों को रखने की बजाय सनसनी के लिए संदर्भ से काटकर सूचनाओं का छिछला और छिछोरा प्रस्तुतीकरण हो रहा है। निश्चित रूप से यह मीडिया के मनोरंजन उद्योग के रूप में तब्दील होने का परिणाम है। मीडिया प्रवंचना उत्पन्न करने वाली एक ऐसी शक्ति बन गई है जो अपने व्यवसायिक विस्तार के लिए सारी व्यवस्था को अराजकता के गर्त में डुबोने से परहेज नहीं करना चाह रही। इस बात को साबित करने के एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल अपने दोषों के कारण राजनीतिक पतन के शिकार नहीं हुए। उनके पतन की वजह बनी उनकी मीडिया में लगातार बने रहने की कमजोरी। पत्रकारों को आज मीडिया उद्योग चलाने वालों द्वारा प्रेरित किया जाता है कि वे जिम्मेदार लोगों से लगातार ऐसी बातें पूछें जिनका कोई औचित्य भले ही साबित न किया जा सके लेकिन जो एक चटपटी खबर को जन्म दे सकेें। सूचनाओं का अत्यधिक प्रवाह भले ही वह अपच में बदल जाए वर्तमान मीडिया की नियति है क्योंकि चौबीस घंटे के प्रसारण का मतलब है चौबीस घंटे विज्ञापनों का भी प्रसारण जिससे बेशुमार मुनाफे का दोहन किया जा सकता है।
दक्षिण पंथी होने के बावजूद नरेंद्र मोदी एक प्रतिबद्ध राजनीतिज्ञ हैं। मीडिया की संकीर्ण कार्यशैली के खतरों का अनुमान उन्होंने गुजरात में रहते हुए ही कर लिया था। गुजरात की मीडिया को भी उनसे शिकायत थी कि वे उससे दूरी बनाए रखकर मीडिया के प्रति अपने दुराग्रह को उजागर कर रहे हैं। वैसे तो मीडिया ने अपने आपको राजनीतिज्ञों के भाग्य विधाता के रूप में प्रस्तुत कर रखा है लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि मीडिया के लिए अपने को दुर्लभ रखकर ही नरेंद्र मोदी ने गुजरात में अपनी शक्ति का इतना विस्तार किया कि वे राष्ट्रीय स्तर पर भी रातोंरात सबसे मजबूत हस्ती के रूप में स्थापित हो गए। मीडिया के संदर्भ में गुजरात की नीति को ही वे राष्ट्रीय स्तर पर अंजाम दे रहे हैं। मीडिया के बारे में नरेंद्र मोदी का यह रुख उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार के लिए खास तौर पर दृष्टव्य है। समाजवादी पार्टी की नई पीढ़ी के नेताओं को भले ही पता न हो लेकिन नेताजी यानी मुलायम सिंह को यह बखूबी मालूम है कि दिनमान युग में सोशलिस्ट अथवा कम्युनिस्ट विचारधारा के पत्रकार अखबारों में छाए रहते थे। संघ को इसके कारण समाचार पत्रों से लगातार असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़ता था। 1986 में जब रामजन्मभूमि आंदोलन ने जोर पकड़ा तो संघ ने महसूस किया कि अखबारों में प्रगतिशील पत्रकारों का दबदबा खत्म करने के लिए जरूरी है कि अपने स्वयंसेवकों की इंट्री बड़े पैमाने पर मीडिया में कराई जाए। वैसे इसकी शुरूआत जनता पार्टी शासनकाल में ही हो गई थी। जब लालकृष्ण आडवाणी सूचना प्रसारण मंत्री थे उन्होंने कई प्रमुख समाचार पत्रों में मालिकान पर दबाव डालकर संघ मानसिकता के पत्रकारों को संपादकीय विभाग का हेड बनवा दिया था लेकिन 1986 के बाद तो जिले के रिपोर्टरों से लेकर संपादक के स्तर तक संघियों को स्थापित करने का सुनियोजित अभियान चला। संघ मानसिकता के पत्रकारों में ज्यादातर वर्ण व्यवस्था के भी घोर समर्थक हैं और इनकी कार्यशैली मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद तो और उग्र हो गई। मुलायम सिंह के पहले मुख्यमंत्रित्व काल में इस प्रजाति के जो पत्रकार छुटभैए थे आज वे ही चैनलों और अखबारों में सिरमौर बने हुए हैं। समाजवादी पार्टी के प्रति उनके मन में जातिगत कारणों से और विचारधारा गत कारणों से भी दुराग्रह होना स्वाभाविक है। इसके बावजूद जहां मोदी मीडिया को परे करके लोगों से सीधा संवाद बनाने की प्रक्रियाएं विकसित कर अपने में सफल जननेता का गुण प्रमाणित कर रहे हैं वहीं समाजवादी पार्टी अपनी सफलता के लिए मीडिया पर बहुत ज्यादा आश्रित होती जा रही है। इससे बड़ी उसकी नादानी कोई दूसरी नहीं हो सकती। समाजवादी पार्टी में दूरंदेशिता की कमी हो जाने की एक वजह उसकी सोच का भ्रष्ट हो जाना भी है। मीडिया को भ्रष्ट तरीकों से अपने पक्ष में साधने में इसीलिए सपा की सरकार सबसे आगे है लेकिन यह सरकार इस बात को नहीं सोच रही कि उसके उपहारों से मीडिया में जो ताकतें मजबूत हो रही हैं वे निर्णायक मौके पर अंततोगत्वा उसके साथ बड़ा दगा करेंगी। यह उनकी फितरत है और अपनी सोच की असलियत की वजह से वे इसके लिए मजबूर भी हैं। बेहतर हो कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी भी विचारधारा की पटरी पर आए और समाजवादी विचारधारा के वर्ग शत्रुओं का उपकरण बनी मीडिया के सहारे अपने राजनीतिक बल को बढ़ाने की सोचने की बजाय जनता से रिश्ता और संवाद बनाने के नए विकल्पों पर विचार करे। पार्टी तंत्र को मजबूत करना और विचारधारा से लैस करना भी इसमें शामिल है जिससे समाजवादी पार्टी ने कुछ वर्षों में अपने आपको सोच पर लगातार परिवारवाद जैसे भ्रष्ट मूल्यों के हावी होने की वजह से काफी दूर कर लिया है।

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