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वाह री सपा सरकार की मुस्लिम परस्ती, …के नीचे क्या है

मुक्त विचार
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कुछ दिनों पहले लखनऊ में मेट्रो ट्रेन के कार्य का शिलान्यास कर रहे थे। इस दौरान हवन, संस्कृत में मंत्रोच्चार और नारियल फोडऩे से लेकर सारे धार्मिक अनुष्ठान कार्य की सफलता के लिए संपादित हो रहे थे और उनमें अखिलेश यादव जो कि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से शूद्र वर्ण में आते हैं और इस नाते जब तक उनकी कौम तमाम राज्यों में सत्ता मेंंं नहीं आई थी तब तक वे द्विज संस्कारों के लिए अनर्ह घोषित थे (सत्ता वर्ण व्यवस्था में एक ऐसा दैवीय प्रताप है जिसमें स्पृश्य शूद्र ही नहीं अस्पृश्य शूद्र तक वरेण्य हो जाते हैं जैसे कि मायावती, जो कि अस्पृश्य वर्ग से आती हैं लेकिन सत्ता की केेंद्र बनने की वजह से अब उनके पैरों में लोटने में पाप नहीं पुण्य मिलता है) उक्त अनुष्ठानों में मुख्य जजमान की भूमिका निभा रहे थे।
यह कोई पहली बार नहीं हुआ। इस देश में किसी भी विचारधारा का मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल या प्रधानमंत्री हो वह हर सरकारी आयोजन को धार्मिक विधिविधान से संपन्न करना अपना कर्तव्य समझता है जबकि जब वह पद की शपथ लेता है तो संविधान की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता का निर्वाह करने की दृढ़ प्रतिज्ञा धारण करता है। जहां तक समाजवादी पार्टी का प्रश्न है वह राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने के बारे में असंदिग्ध रूप से प्रतिबद्ध दल है। वैसे तो समाजवाद को अगर एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में देखा जाए और उसकी परंपराओं पर ध्यान दिया जाए तो मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी उनमें से शायद ही किसी कसौटी पर अपने को खरा साबित कर पाए। उनकी समाजवादी पार्टी में समाजवाद का लेबिल मात्र है वरना उनकी पार्टी की हर रीति-नीति समाजवादी अवधारणा से कोसों दूर है। फिर भी यह उम्मीद की जाती है कि समाजवाद की जो बुनियादी विशेषताएं हैं कम से कम उनकी मर्यादा में तो पार्टी अपनी निष्ठा दिखाने में बाध्यता महसूस करेगी ही और इस हिसाब से धर्मनिरपेक्ष राज्य भी समाजवादी विचारधारा की एक बुनियादी प्रतिबद्धता है लेकिन इस मामले में उनमें और भाजपा के मुख्यमंत्री में शायद ही कोई फर्क हो।
कुछ गलतियां हैं जो आजादी के बाद से लगातार जारी हैं। निश्चित रूप से संविधान की मूलभूत प्रतिबद्धताओं से विचलन की आदत बनाने का श्रेय कांग्रेस पार्टी को जाता है जो आजादी के बाद लंबे समय तक केेंद्र से लेकर राज्यों तक सत्ता में रही। यह एक ऐसी पार्टी है जो पदार्थ की तीसरी अवस्था का प्रतिनिधित्व करती है। इस अवस्था को गैसीय अवस्था कहा जाता है जिसका न कोई आकार निश्चित होता है न आयतन। इस कारण कांग्रेस पार्टी में धर्मनिरपेक्षता और कट्टर धार्मिकता का निर्वाह एकसाथ होता रहा। अपने इन्हीं संस्कारों के कारण धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत जब भी दांव पर लगा कांग्रेस पार्टी ने हिंदू राष्ट्र के निर्माण की ओर देश को ले जाने का काम आरएसएस से कहीं ज्यादा बढ़कर किया। आरएसएस और हिंदू संगठन कांग्रेस पार्टी के इस अहसान की वजह से समय-समय पर उसका शुक्रिया भी अदा करते रहे। बाला साहब देवरस के बारे में सब जानते हैं कि उन्होंने इंदिरा गांधी के दूसरे कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी से दूरी बना ली थी ताकि कांग्रेस को नुकसान न हो। बाला साहब देवरस के इशारे पर ही संघ के कार्यकर्ताओं ने सिक्खों के नरसंहार का इनाम दिलाने के लिए 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में काम किया था। कांग्रेस के प्रति संघ के इस तरह के कई मौकों पर झुकाव के उदाहरणों की कमी नहीं है।
इस कारण कांग्रेस से तो यह उम्मीद करना ही बेकार था कि वह धर्मनिरपेक्ष राज्य की आवश्यकता और औचित्य के बारे में लोगों की समझ को स्पष्ट करने का काम करे और धर्मनिरपेक्षता की भावना मजबूत करने के लिए आचरण के स्तर पर भी बेबाकी से फैसले ले। बहरहाल कांग्रेस का युग बीता उसके बाद प्रगतिशीलता के महारथियों को सत्ता में आने का मौका मिला लेकिन विडंबना की बात यह है कि वे भी कांग्रेसियों की तरह पैंट के नीचे खाकी नेकर पहने होने का सबूत दे रहे हैं। हिंदू संगठन तक राज्य को धर्म से अलग होकर अपने दायित्व को निर्वाह करना ठीक समझते हैं बशर्ते मामला किसी मुस्लिम राष्ट्र का हो। हिंदू संगठनों को मैंने स्वयं सऊदी अरीबिया की सरकार द्वारा सीधे सड़क के निर्माण में बाधक बन रहीं मस्जिदों को दूसरी जगह शिफ्ट करने की सराहना करते हुए सुना है। हिंदू संगठनों की सराहना से यह ध्वनित होता है कि विकास और राज्य के सुचारु संचालन के लिए धर्म के मामले में राज्य का दृष्टिकोण छुईमुई नहीं होना चाहिए। इस मामले में धार्मिक हठवादिता को नकार कर राज्य को वह फैसले करने चाहिए जो जनहित के अनुरूप हों। मुख्य बात है कि मुस्लिम होने के नाते अरब का हर नागरिक नमाज पढ़े और उसके लिए मस्जिदें हों। अगर मस्जिदें सड़क निर्माण में आड़े आ रही हों तो उन्हें शिफ्ट करने का मतलब दीन के प्रति यकीदा में किसी तरह का विश्वासघात नहीं माना जा सकता। यह अरब के मुसलमान मानते हैं। दुनिया के अन्य कई इस्लामिक राष्ट्रों के मुसलमान मानते हैं और बकौल हिंदू संगठन हिंदुस्तान के मुसलमानों को भी यह बात माननी चाहिए।
हिंदू संगठनों की बात बहुत अच्छी है लेकिन यही बात हिंदुओं पर भी लागू होती है। सड़कों के निर्माण में अवरोधक बनने वाले पूजा स्थल हटाया जाना तो नितांत जरूरी है ही साथ ही सड़क का अस्तित्व समाप्त करने वाले पूजा स्थलों को बनाने की छूट देने में तो कोई समझौता होना ही नहीं चाहिए। वैसे तो हर सरकार में सार्वजनिक महत्व की सुविधाओं को संकुचित करके पूजा स्थलों का निर्माण होता आया है लेकिन समाजवादी पार्टी की सरकार में यह परंपरा कम होने की बजाय और ज्यादा बढ़ गई है। समाजवादी पार्टी जाहिर करना चाहती है कि वह बड़ी मुस्लिम परस्त है और मुसलमानों को उसकी तरफ से धार्मिक मामलों में किसी भी इस्लामिक राष्ट्र से ज्यादा प्रोत्साहन प्राप्त है लेकिन असलियत जानने के लिए जरा कोई यह सर्वे कराए कि इस सरकार में सड़क, चौराहों और सरकारी भवनों, अस्पतालों की ओर जाने वाले रास्तों पर जो पूजा स्थल सीनाजोरी करके बनाए गए हैं वे किस धर्म के हैं, तो समाजवादी पार्टी की मुस्लिम परस्ती की असलियत खुल जाएगी।
बात मुस्लिम परस्ती या इस्लाम परस्ती की नहीं है। सवाल इस बात का है कि रूल आफ ला और एक राज्य की व्यवस्था कैसे काम कर पाएगी अगर धर्मभीरुता के कारण सड़कों पर कानून की धज्जियां उड़ाने का तमाशा पूरी सीनाजोरी के साथ होगा। आज ऐसी धार्मिक परंपराएं बढ़ती जा रही हैं जिससे बिजली किल्लत से जूझ रहे इस प्रदेश में अपने पुण्य के लिए चोरी की बिजली लुटाई जा रही हो। जहां सड़केें आवागमन के लिए नहीं धार्मिक धमाचौकड़ी के लिए आरक्षित कर दी गई हों। अराजकता की गवाही देने वाले इस तांडव के लिए जिम्मेदार हैं सरकारी शिलान्यास और उद्घाटन के समय किसी धर्म विशेष के होने वाले अनुष्ठान, जिनमें सरकार के प्रतिनिधि और यहां तक के सरकार के मुखिया भी हिस्सेदारी करते हैं। यहीं से राज्य धर्मनिरपेक्ष रहने की बजाय धार्मिक हो जाता है। विडंबना की बात यह है कि इस तरह की धर्मभीरुता से करुणा, परोपकार, दीन दुखियों की सेवा जैसी उच्च आध्यात्मिक भावनाओं का पोषण नहीं होता बल्कि एक धर्म विशेष की प्रभु सत्ता को देश के अंदर प्रमाणित किया जाता है। प्रभु सत्ता हमेशा मद और अहंकार को जन्म देती है जिसे अध्यात्म की भाषा में विकार कहते हैं और चित्त की निर्मलता जो कि अध्यात्म का लक्ष्य है, इन विकारों से अपने को मुक्त करके आती है लेकिन सत्ता के प्रमुखों की तथाकथित धार्मिकता से तो असली धर्म का हनन हो रहा है और धर्म के नाम पर अनाचार पुष्पित पल्लवित किया जा रहा है।
बहरहाल अब जबकि भारत एक महाशक्ति के रूप में विश्व समुदाय में मान्यता प्राप्त हो रहा है तो उसे अपनी तमाम कमजोरियों से उबरना होगा वरना उसकी सारी प्रगति का बेड़ा गर्क हो जाएगा और उसकी हैसियत पर बहुत बड़ा दाग लग जाएगा। इस मामले में सबसे ऊपर है राज्य को सच्चे तौर पर धर्मनिरपेक्ष होकर संचालित करने का साहस राज्य के मुखिया द्वारा दिखाना। सही बात तो यह है कि कई मामलों में धार्मिक कट्टरता के जहाज पर बैठ कर सत्ता की वैतरणी पार उतरने वाले नरेंद्र मोदी समाजवादी पार्टी की सरकार से ज्यादा राज्य के धर्मनिरपेक्ष संचालन का महत्व समझते हैं। राज्य से धर्मनिरपेक्ष होने का तकाजा करना किसी धर्म के प्रति दुराग्रह नहीं है बल्कि राष्ट्र के हित की एक बड़ी जरूरत है इसलिए इस मामले में सभी को सरकारों पर दबाव बनाने के लिए आगे आना चाहिए। शुरूआत सरकारी आयोजनों को धार्मिक ढोंग से पूरी तरह मुक्त करके की जानी चाहिए। अगर किसी परियोजना के सफल होने की गारंटी वास्तव में धार्मिक विधिविधान के तहत उनकी शुरूआत और उद्घाटन है तो अकेला वैदिक मंत्रोच्चार ही क्यों इस देश में हर धर्म के लोग रहते हैं। फिर तो आप इस्लामिक अनुष्ठान भी कराएं, ईसाई अनुष्ठान भी कराएं, सिक्ख, जैनी, पारसी और बौद्ध अनुष्ठान भी कराएं।

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