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धार्मिक दुराग्रह तोडऩे में लगा राज्य का तंत्र

मुक्त विचार
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उच्चतम न्यायालय द्वारा नवरात्रि में सजने वाली झांकियों की प्रतिमाएं नदियों की पवित्रता और निर्मलता बनाए रखने के लिए उनमें प्रवाहित करने की परंपरा पर रोक का आदेश पारित किया गया था। उत्तर प्रदेश में इसका क्रियान्वयन कराने में राज्य सरकार नाकाम रही। नवमी के दिन चित्रकूट सहित कई स्थानों पर पुलिस और धर्मांध भीड़ के बीच इसकी वजह से मुठभेड़ें हुईं। राज्य के सुचारु संचालन के लिए इस तरह की हठधर्मिता एक बड़ी चुनौती का उदाहरण है। राज्य को अपने कार्य संचालन में धर्म निरपेक्ष नीति को क्यों अपनाना चाहिए इसका औचित्य सिद्ध करने के लिए यह घटनाएं एक बड़ा सबक हैं।
कम्युनिस्ट धर्म को अफीम मानते हैं। वे किसी ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते और स्वयं को नास्तिक घोषित करते हैं। शहीदे आजम भगत सिंह की आस्था कम्युनिस्ट दर्शन में थी। उन्होंने एक पर्चा लिखा था मैं नास्तिक क्यों हूं। कम्युनिस्टों की इस अवधारणा से बहुत लोग असहमत हो सकते हैं। जहां तक भारत के कम्युनिस्टों की बात है तो वे घोषित रूप से भले ही अपने को धार्मिक विचारों के प्रति आस्थावान कहने में संकोच करें लेकिन कार्यप्रणाली में वे धर्म और कर्मकांड में विश्वास रखते हैं। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद कमंडल अभियान के तहत एक शंकराचार्य की यात्रा जब बिहार पहुंची तो उनका स्वागत करने वाली समिति में उस समय के सीपीआई के बड़े नेता चतुरानन मिश्रा के बड़े भाई शामिल थे जिसे लेकर चतुरानन मिश्रा की बहुत आलोचना हुई थी। खैर यह बात अब अतीत का भूला बिसरा प्रसंग बन चुका है। बावजूद इसके इतना सत्य है कि कम्युनिस्ट अपने को धर्मभीरुता से मुक्त नहीं कर सके जिसकी वजह से व्यवहारिक स्तर पर उनकी सोच जातिवाद से परे नहीं हो पाई और उत्तर भारत में कम्युनिस्टों के सर्वनाश की यह एक बड़ी वजह बनी।
लेकिन धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा का कम्युनिस्ट विचारधारा से कोई संबंध नहीं है। यह बुर्जुआजी उदार तंत्र के प्रबंधन का एक अंग है। धर्मनिरपेक्ष राज्य की हिमायत करने वाले के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह ईश्वर की सत्ता को न माने और व्यक्तिगत जीवन में धार्मिक आस्था के अनुष्ठानों का निर्वाह न करे। धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा इस सूझ का परिणाम है कि प्रगति के नए दौर में ऐसे नए काम लगातार होने हैं जो कि धर्म के ठेकेदारों के लिए चौंकने का कारण हों। इसमें चांद और मंगल ग्रह की यात्रा भी शामिल है लेकिन केवल एडवेंचरस और खोजी अभियान के प्रति ही धार्मिक मठाधीशों का दुराग्रह नहीं होता। धार्मिक मठाधीशों को हर बात में दखल देने का अधिकार चाहिए। राज्य इस तरह के समानांतर तंत्र के रहते हुए काम नहीं कर सकता। अगर सड़क के निर्माण के रास्ते में कोई पूजा स्थल बाधा बन रहा है तो उसे बिना किसी संकोच के हटवाना ही पड़ेगा। अगर राज्य में धर्म निरपेक्षता का गुण है तो वह ऐसा करेगा। उदाहरण इस बात के भी हैं कि धार्मिक राष्ट्र भी धर्मनिरपेक्षता के गुण को आत्मसात कर रहे हैं। सऊदी अरीबिया में हाईवे बनाने में रुकावट बन रहीं मस्जिदें सड़क के एक तरफ शिफ्ट की गईं लेकिन यह काम आप हिंदुस्तान में नहीं कर सकते। यहां सड़क पर रातोंरात एक मंदिर बन जाता है। अगले दिन अधिकारी उसको हटाने की बजाय उसके भगवान का जो दिन हो मान लीजिए बजरंग बली हैं तो मंगलवार और शनिवार को वहां पूरी पुलिस ट्रैफिक दर्शनार्थियों की गाडिय़ों की रखवाली में लगा दी जाती है और यातायात को उस रास्ते से रोक दिया जाता है। सरकारी जमीन पर पूजा स्थल का निर्माण करना हिंदुस्तान में बाप का दिया हुआ अधिकार है। अस्पताल के इमरजेंसी के गेट पर तक यहां मंदिर बनाने और उनका विस्तार करने की छूट है। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कोई नया धार्मिक स्थल सरकारी जमीन पर नहीं बनना चाहिए लेकिन उसी के जिलों और तहसीलों के कोर्ट के इर्दगिर्द यानी नाक के नीचे मंदिर बनता है और चौड़ा होता चला जाता है। जज साहबान को अपने बासों की बात का लिहाज करने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती। पर्यावरण के मुद्दे भी अब राज्य संचालन के लिए बहुत आवश्यक हो गए हैं लेकिन धर्म यहां भी आड़े आ रहा है। धर्म केवल अच्छे काम के आड़े आने की हठधर्मिता के रूप में परिचित कराया जा रहा है। बाकी आप चोरी करें डकैती डालें व्यभिचार करें धर्माचार्य को अगर आपकी जेब मोटी है तो अपना जजमान बनाने में कोई आपत्ति नहीं है बल्कि जजमान बनाने की पहली योग्यता ही यह है कि आप कितने बड़े हरामजादे हैं और आपने लूट करके कितनी दौलत जमा कर रखी है।
बहरहाल धर्म की आड़ में कानून का यह मजाक इसलिए हो रहा है कि समाजवादी पार्टी जैसी धर्मनिरपेक्ष सरकारें सबसे ज्यादा धर्मभीरुता का परिचय दे रही हैं। सरकारी विकास कार्यों के शिलान्यास व उद्घाटन वैदिक कर्मकांडों से कराने का रिवाज आज भी जारी है और यह दर्शाता है कि भले ही देश हिंदू राष्ट्र घोषित न हुआ हो लेकिन व्यवहार में यह हिंदू राष्ट्र के रूप में प्रचलित हो चुका है और उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार इस हिंदू राष्ट्र को मान्यता दे चुकी है जिसके कारण मुसलमानों से लेकर अन्य सारे धर्मावलंबी दोयम दर्जे के हैं। प्रधान धर्म के रीतिरिवाजों पर सरकारी कामों की बुनियाद रखना इसी कारण अपरिहार्य है। हमें इस बात पर हैरत होती है कि इसकी प्रतिक्रिया मुसलमानों व अन्य धर्मावलंबियों में क्यों नहीं हो रही जबकि मुसलमान तो तमाम हिंदू संगठनों के उत्तर प्रदेश में इस बात के लिए जलन की वजह बने हुए हैं कि समाजवादी पार्टी की सरकार इनको अपनी खोपड़ी पर चढ़ाए हुए है। क्या इस दोयम दर्जे के व्यवहार से उनकी गलतफहमी की पुष्टि की जा सकती है। बहरहाल नदियों और तालाबों की पवित्रता बनाए रखना हिंदू धर्म के हिसाब से भी सबसे बड़ा धार्मिक कर्तव्य है क्योंकि सनातन धर्म में सबसे पहले वेद आए जिनमें नदियां, सूर्य, वृक्ष आदि प्रकृति की शक्तियों को पूजा गया। उनके प्रति कृतज्ञता दर्शाई गई और उनकी पवित्रता अक्षुण्य रखने का व्रत लिया गया। सच्चे हिंदू अपने उन पूर्वजों की संतान हैं जिसके कारण उन्हें मालूम है कि धार्मिकता क्या है और क्या नहीं है। जहां तक नवरात्रि पर प्रतिमाएं सजाने का सवाल है यह हिंदुओं की कोई मौलिक धार्मिक परंपरा नहीं है। 1986 में रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान हिंदू शक्ति प्रदर्शन के लिए जो कार्यक्रम बनाए गए उनके तहत इन झांकियों को सजाया जाना और इनमें हिंदुओं के ओज को दिखाया जाना शुरू हुआ। इसके पहले महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी की झांकियां सजती थींलेकिन वह परंपरा भी लोकमान्य तिलक ने शुरू कराई थी ताकि धार्मिक कार्यक्रम होने की वजह से फिरंगी शासन उस पर रोक न लगा सके और गणेश चतुर्थी समारोह में होने वाले जमावड़े का इस्तेमाल इस शासन के खिलाफ जनविद्रोह को उकसाने के लिए किया जा सके। हिंदुओं में मूर्ति की स्थापना के लिए बहुत ही जटिल विधान है। जहां पर लोग पेशाब करते हों वहां मूर्तियां नहीं रखी जा सकतीं। किसी ऐरीगैरी जगह पर मूर्तियां नहीं रखी जा सकतीं। मूर्तियों की बाकायदा प्राण प्रतिष्ठा होती है जिसके लिए कठिन अनुष्ठान कराने पड़ते हैं। कुछ व्रतों में महिलाओं द्वारा घर में मिट्टी की छोटी मूर्तियां रखकर उनकी पूजा करने की परंपरा रही है। सार्वजनिक झांकियां सजाने की नहीं। घरों की मूर्तियां त्यौहार खत्म होने के बाद अगर सड़क पर फेेंकी जाएं तो वे पददलित होती थीं। उन्हें कुत्ते बिल्ली नोंचते थे जिससे लोगों की भावनाएं आहत होती थीं इसलिए कह दिया गया कि आप नदी, पोखर, अंधे कुंए में इन्हें डाल दें तब नदियों में जबरदस्त बाढ़ आती थी जिसमें सबकुछ बह जाता था। आज वैसी स्थितियां नहीं हैं। पानी की शुद्धता आज एक बड़ा काम है। पानी में इंद्र देव वास करते हैं इस कारण पानी को मलिन करना पाप है अधार्मिक कृत्य है। किसी हिंदू गं्रथ में यह नहीं लिखा कि धार्मिक अवशेष दफन नहीं किए जाएंगे। हिंदू कहते तो यह हैं कि मुसलमानों के रिवाज उनकी प्रतिक्रिया में उनसे उलटे बनाए गए हैं लेकिन इससे बड़ा झूठ कोई नहीं है। अरब से भारत की कहीं कोई सीमा नहीं लगती थी। मोहम्मद साहब के समय भारत के प्रति अरबों में दुराग्रह का कोई कारण नहीं था। उन्होंने कोई विधान हिंदुओं को देखकर किया ही नहीं न अच्छा न बुरा। उनके विधान अरब जलवायु के अनुकूल बनाए गए हैं। स्वाभाविक रूप से उनमें से कुछ भारत में असंगत प्रतीत हों लेकिन बिना किसी प्रमाणिक गं्रथ के हवाले के यह कहना कि धार्मिक अवशेषों को दफन करना शास्त्रों के विरुद्ध है। मनमाना प्रतिक्रियावादी वकतव्य है। चूंकि मुसलमान शव दफन करते हैं इसलिए दफन की प्रक्रिया को कहीं भी मान्य करना हिंदुओं के अहं को ठेस पहुंचाएगा। इस भावना से कुछ अहमन्य मठाधीशों ने इस तरह की रूलिंग देकर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने की कोशिश की है और अखिलेश यादव सरकार ने अपनी धर्मभीरुता के कारण उसके आगे घुटने टेक दिए हैं। समाजवादी पार्टी जब तक इस मामले में अपनी रीति नीति साफ नहीं करेगी वह आरएसएस की भाजपा के बाद बी पार्टी के रूप में अपनी पहचान बनाने को अग्रसर होती जाएगी।

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