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संघ अपनी केेंचुल उतारने पर

मुक्त विचार
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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सरकारी नौकरियों में वंचित जातियों के आरक्षण को लेकर संगठन की लाइन बदलने का संकेत दिया है। उन्होंने कहा है कि आरक्षण की वर्तमान नीति में परिवर्तन किया जाना चाहिए और आरक्षण का लाभ जरूरतमंदों को दिया जाना चाहिए। उनका यह बयान बहुत स्पष्ट नहीं है। इसके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। एक तो यह कि मोहन भागवत चाहते हों कि आरक्षण जाति के आधार पर ही जारी रखा जाए लेकिन वंचित जातियों में जो लोग एकबार आरक्षण का लाभ पा चुके हैं उन्हें आगे फिर यह लाभ उठाने से रोका जाए। दूसरा यह भी हो सकता है कि उनका आशय आरक्षण के जातिगत आधार को बदलकर गरीबी के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करने का हो। बहरहाल जो भी हो लेकिन यह साफ है कि सामाजिक मामलों में उदारता का प्रदर्शन संघ के लिए एक वक्ती दिखावा भर है। ज्यों-ज्यों राजनीतिक सत्ता में संघ का प्रभाव मजबूत होगा त्यों-त्यों संघ अपने असली रंग में आता जाएगा। मोहन भागवत का बयान इसकी पहली झलक है जबकि कुछ दिनों पहले उन्होंने दलितों के मसीहा डा. अंबेडकर की बेहद तारीफ की थी और वंचित जातियों के लिए आरक्षण को सही कदम ठहराया था। आज वे आरक्षण की नीति को बदलना चाह रहे हैं। इससे संघ की दूरगामी योजना का आभास मिलता है।
संघ हिंदुत्व पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का समर्थक है। हिंदुत्व का फंडामेंटल क्या है इसका जवाब देना हिंदुत्व के समर्थकों के लिए हमेशा कठिन रहा है। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती ने जब भारत के सबसे प्राचीन धर्म के मूल को खंगालने का उपक्रम किया तो वे इस नतीजे पर पहुंचे कि इसका मूल वेद हैं। पुराण व अन्य आडंबर इस धर्म में पनपे निहित स्वार्थों की देन है जिनकी वजह से धर्म के लक्ष्य को भटकाया गया है। स्वामी दयानंद सरस्वती के इस निष्कर्ष को कट्टरवादी सनातनी पचा नहीं पाए। आज भी यह उपक्रम जारी है। वैदिक धर्म से लेकर सनातन धर्म तक की यात्रा में बहुत कुछ घटा। वैदिक युग में जन्म के आधार पर जाति की व्यवस्था नहीं थी। उपनिषद में जाबाली पुत्र सत्यकाम के वर्ण के निर्धारण की जो कथा है वह इस बात को साबित करती है कि गुरुकुलों में अभिरुचि और क्षमता के हिसाब से व्यक्ति की जाति का निर्धारण किया जाता था। यहां तक कि एक ही परिवार में एक भाई का वर्ण ब्राह्म्ïाण दूसरे का क्षत्रिय तीसरे का वैश्य और चौथे का शूद्र हो सकता था। सनातन का अर्थ ही है जड़ जिसमें कुछ न बदला जा सके। वैसे तो यह अनित्यवाद का प्रवर्तन करने वाले तथागत बुद्ध के दर्शन को नकारने की प्रतिक्रिया में उपजाया गया शब्द है लेकिन इसके निहितार्थ और भी हैं जिसमें जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था भी शामिल है। डा. अंबेडकर कहते थे कि हिंदुत्व का मूल वर्ण व्यवस्था है जिसमें दलितों को अमानवीय स्थितियों में जीवन गुजारने के लिए विवश करने पर इस व्यवस्था के कर्णधारों को कभी ग्लानि नहीं होती बल्कि वे इसे ईश्वरीय विधान की अनिवार्य पूर्ति मानते हैं। दलितों की अधम स्थिति को वे उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का दंड मानकर यह समझते हैं कि इसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन लाना और दलितों के प्रति सहानुभूति तक जताना धर्म विरोधी कार्य है। वैश्विक व्यवस्था के निर्माण के क्रम में इस तरह की व्यवस्था को बनाए रखना जब कठिन होता गया तो इसमें मजबूरी में ही कुछ संशोधन स्वीकार किए गए लेकिन हिंदुत्व के असली समर्थकों की जो असली मंशा है वह एक दिन वैसे ही दिनों की वापसी करना है जब दलित समुदाय के लोग समाज में सेवक के अलावा कोई अन्य भूमिका नहीं निभा सकते थे।
आरक्षण की व्यवस्था वंचित जातियों के प्रति किया गया कोई एहसान नहीं है बल्कि यह आधुनिक विश्व में सामाजिक भेदभाव के शिकार होने की वजह से उन्नति की राह में पिछड़े लोगों के लिए स्वीकार की गई एक सार्वभौम व्यवस्था का अंग है। जाति और नस्ल के आधार पर आरक्षण का प्रावधान अकेले भारत में नहीं है बल्कि अमेरिका जैसे देश तक में है। इसका औचित्य इसलिए भी सिद्ध है कि संघ अभी तक के अपने कामयाब राजनेताओं में मोदी को नवाज रही है जो कि शूद्र जाति के हैं और अगर जन्मना जाति व्यवस्था अपनी कट्टरता में जारी रहती तो कभी यह प्रतिभा अपने मुकाम पर नहीं पहुंच सकती थी। जाहिर है कि मोदी को सराहने का मतलब यह स्वीकार करना है कि शूद्रों की पददलित स्थिति किसी ईश्वर के विधान का परिणाम न होकर एक सामाजिक साजिश थी जिसका गलत नतीजा न केवल शूद्र समाज के लोगों ने भोगा बल्कि इस समाज में मोदी जैसे न जाने कितने नेतृत्व क्षमता से संपन्न लोग थे जिन्हें वर्ण व्यवस्था की वजह से आगे नहीं आने दिया गया और निकम्मों और नालायकों ने समाज के अगुवाकार रहकर देश को हजारों वर्षों के लिए गुलाम बना दिया लेकिन संघ की बुद्धि सनातन है। वह मोदी को कल्कि अवतार साबित करके उनकी उपलब्धि की एक व्यक्तिगत अपवाद में इतिश्री अपना वक्त आने पर कर देगी। अंततोगत्वा वर्ण व्यवस्था के क्रम के अनुसार समाज में हर वर्ण की भूमिका तय करके हिंदुत्व को उसकी परिणति पर पहुंचाना संघ का लक्ष्य है। संघ प्रमुख के आरक्षण संबंधी बयान को अभी बहुत ज्यादा संज्ञान में नहीं लिया गया है लेकिन इसे लिए जाने की जरूरत है। खास तौर से सामाजिक बदलाव के लिए समर्पित ताकतों को। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जैसे-जैसे भाजपा का जोर बढ़ेगा संघ सामाजिक कट्टरता के लिए और ज्यादा मुखर होता जाएगा। मोदी को भी आगे चलकर इसका सामना करना पड़ेगा लेकिन वंचित जातियां बहुसंख्यक हैं। लोकतंत्र में सत्ता का फैसला करना उनके हाथ में है। इस कारण संघ के लिए यह मोर्चा फतह करना दिवास्वप्न की तरह है। सामाजिक बदलाव की ताकतें इस संक्रमण काल में अपनी भूमिका को पैनेपन से निभाएं ताकि उनके प्रयास पुराने इतिहास में समय-समय पर परिवर्तनों के व्यतिक्रम को न दोहराते हुए अपनी तार्किक परिणति पर पहुंचने में सफल हों।

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