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सामंती प्रतिमानों की कसौटी और लोकतंत्र

मुक्त विचार
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भारत में सामंती प्रतिमान लोकतंत्र में प्रमाणिकता की कसौटी बने हुए हैं। यहां तक कि दबीकुचली जातियों के नेताओं को लोकतंत्र की वजह से जब सत्ता में आने का अवसर मिला तो सामंती लिप्सा में उन्होंने सभी को जैसे पीछे छोडऩे की ठान ली। इस आपाधापी से लोकतंत्र की आत्मा चीत्कार कर रही है लेकिन चूंकि जनमानस में यही हथकंडे स्वीकार्य हैं जिसकी वजह से बेलगाम आचरण को लेकर उनके मन में किसी भी प्रकार की हिचक नहीं है।
कुछ वर्ष पहले अमेरिकी मूल के एक यहूदी लेखक ने किताब लिखी थी जिसमें अमेरिका को रूढि़वादी समाज वाले देशों में अंधाधुंध लोकतंत्र को थोपने से बाज आने के लिए कहा गया था। यहूदी लेखक की किताब का निष्कर्ष यह था कि लोकतंत्र जैसी आधुनिक व्यवस्था को लागू करने के लिए पहले सामाजिक स्तर पर उचित पृष्ठभूमि तैयार करने की जरूरत होती है। अरब राष्ट्रों में लोकतंत्र को आरोपित करने की अमेरिकी कोशिशों के संबंध में लिखी गई यह किताब भारत के लिए भी पूरी तरह प्रासंगिक है। यहां भी आजादी के बाद सामाजिक परिवर्तन कराए बिना लोकतंत्र को लागू करने में जल्दबाजी की गई। पुराने सामाजिक ढांचे में लोकतंत्र का प्रयोग ऐसा काकटेल साबित हुआ जिसकी वजह से व्यवस्था में कई विकृतियां हावी हो गईं। केवल इतने पर संतोष नहीं किया जा सकता कि पचास के दशक के अन्य नवस्वाधीन देशों की तुलना में भारत में लोकतंत्र स्थायित्व के कारण शाबासी का हकदार समझा जाता है।
एक समय था जब लोकतंत्र के लिए कांग्रेस में पनपाई गई व्यक्ति पूजा की राजनीति को सबसे बड़ा अवरोध माना गया था। सोशलिस्ट पार्टियों ने व्यक्ति पूजा के सम्मोहन से जनमानस को मुक्ति दिलाने की जद्दोजहद को अपने राजनीतिक एजेंडे में सबसे ऊपर रखा था। यह दूसरी बात है कि अंततोगत्वा यह साबित हुआ कि व्यक्ति पूजा किसी परिवार या पार्टी विशेष का षड्यंत्र नहीं है बल्कि हमारे समाजिक संस्कारों में गहराई तक पैठ बनाए हुए सामंती मानसिकता का नतीजा हैं। इसका प्रभाव इतना गहरा है कि यहां राजनीतिक संगठन के विस्तार के लिए विचारधारा की नहीं नेतृत्व के प्रति भक्तिभाव की जरूरत पड़ती है। यह मंत्र सोशलिस्ट आंदोलन की कोख से उपजे नेताओं ने भी स्थापित होने के बाद आत्मसात किया। नेता जी के गांव को जगत से न्यारा बनाने के लिए प्रदेश की सरकार की पूरी फंडिंग झोंकने के पीछे यही नजरिया काम कर रहा है। नेता जी के जन्मदिन में तड़क-भड़क का बेहया प्रदर्शन भी इसी अनुष्ठान की एक कड़ी है। मीडिया व मौद्दिक जगत में इसकी आलोचना से नेता जी और उनकी पार्टी के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वे जानते हैं कि वोटरों में इसकी वजह से उनकी स्वीकार्यता में कमी की बजाय बढ़ोत्तरी होगी।
अकेले नेता जी की बात नहीं है बहन जी ने भी अपने विराट स्वरूप को उकेरने के लिए ऐसी ही तौरतरीके अपनाए थे। उनके जन्मदिन का आयोजन भी शाही अंदाज में बसपा के शासनकाल में किया गया। बेशकीमती हीरे जवाहरातों के आभूषण और तीन-चार बंगलों को एकसाथ मिलाकर विस्तार में उनकी रिहायश के लिए भव्य महल का निर्माण यह सब सुनियोजित चोंचले हैं जिसकी वजह से आम जनता में इतना बौनापन भरा जा सका कि बहन जी ने एक अच्छी खासी जमात में अपने लिए अंध भक्तिभाव पैदा कर लिया। अकेले उत्तर प्रदेश के नेताओं की बात नहीं है दक्षिण में भी लोकतांत्रिक राजनीति में ऐसी प्रवृत्तियों का बोलबाला रहा है। एंटी रामाराव से लेकर एमजी रामचंद्रन तक फिल्मी पृष्ठभूमि से आने के बावजूद अपने-अपने राज्य में लोकतांत्रिक राजनीति में सर्वशक्तिमान नेता के रूप में इसलिए स्थापित हुए कि उनके प्रति पौराणिक फिल्मों में अदा किए गए उनके रोल की वजह से लोगों में ईश्वर जैसी भक्तिभावना थी। अभी तक दक्षिण में इस परंपरा का निर्वाह जयललिता और करुणानिधि के जरिए जारी है। जयललिता को आय से अधिक संपत्ति के मामले में अदालत ने दोषी घोषित कर जेल भेजा तो बजाय इसके कि लोग उनका तिरस्कार करते उनकी हमदर्दी में प्रचंड लहर चल पड़ी। एक दर्जन लोगों ने अम्मा के जेल जाने के सदमे में अपनी जान दे दी।
नरेंद्र मोदी भी भक्ति की राजनीति के हथकंडे इस्तेमाल करने में पीछे नहीं हैं। हालांकि उनका तरीका उक्त नेताओं से अलग है। नरेंद्र मोदी चाय बेचने के अपने अतीत को ग्लैमर बनाकर पेश करते हैं। गरीबी भी ग्लैमर का एक ब्रांड बन सकती है यह बहुत लोग जानते हैं और तमाम अमीर पृष्ठभूमि की हस्तियों ने इसको आजमाया है। दूसरी ओर उक्त नेताओं ने गरीब परिवार की पृष्ठभूमि से आने के बाद भी सत्ता के शिखर पर जमे रहने के लिए ऐश्वर्य को अपने व्यक्तित्व में ग्लैमर की चमक निखारने का जरिया बनाया। अपनी शाही जीवनशैली का प्रदर्शन अपने निरीह वोटरों के सामने करने के पीछे मुलायम सिंह और मायावती जैसी नेताओं की सुचिंतित रणनीति है। यह विचार का प्रश्न है कि लक्ष्य एक ही होते हुए भी नरेंद्र मोदी और माया मुलायम के रास्ते इतने अलग-अलग क्यों हैं कि वे विपरीत ध्रुवों पर खड़े नजर आते हैं। यह जरूर है कि नरेंद्र मोदी अपने तरीके से होशियारी में माया और मुलायम से बीस साबित हुए हैं। माया व मुलायम जनाधार बढ़ाने के बावजूद विवादित नेताओं की श्रेणी में है जबकि नरेंद्र मोदी ने केवल अपने कद को विराटकाय बनाने की राजनीति करते हुए भी होशियारी से कदम आगे बढ़ाने के चलते विरोधियों तक की सराहना अर्जित करने में कामयाबी हासिल की है। बहरहाल व्यक्ति पूजा की राजनीति तानाशाह नेतृत्व का निर्माण करती है। जाहिर है कि ऐसे नेतृत्व की छाया में लोकतंत्र केवल स्वरूप का रह सकता है तासीर में तो उसका प्रभाव एकदम उल्टा हो जाता है।विंडबना यह है कि जिन लोगों ने लोकतंत्र की उच्च मर्यादाओं का पालन किया फ्लाप होना उनकी नियति साबित हुआ। वीपी सिंह का उदाहरण दें उन्होंने बेहयाई की राजनीति से परहेज रखने के कारण अपने इकलौते पुत्र को उनकी इच्छा होते हुए भी राजनीति में नहीं आने दिया ताकि वे वंशवाद के आरोप से मुक्त रहें। उन्होंने प्रधानमंत्री होने के बावजूद अपने निर्वाचन क्षेत्र फतेहपुर के विकास के लिए कोई अतिरिक्त फंडिंग नहीं की ताकि कोई यह न कह सके कि सर्वोच्च पद पर एक संकीर्ण दृष्टि का नेता लोगों ने आसीन कर दिया है। कानून के सामने सभी की समानता के सिद्धांत को व्यवहार में साबित करने के कारण वे अपनों तक के बुरे बन गए। वर्तमान में जनता दल परिवार का ही एक चेहरा नीतीश कुमार हैं जिन्होंने काफी हद तक लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप काम किया। शुरू में वे पसंद किए गए लेकिन जल्द ही लोगों के दिमाग से उतर गए। बिहार के मुख्यमंत्री के पद से फिलहाल उन्होंने भले ही स्वेच्छा से इस्तीफा दिया हो लेकिन इसका एक कारण यह भी है कि उन्होंने जान लिया था कि उनका राजनीतिक कैरियर ढलान पर आ चुका है जिसकी वजह से अपनी मौत मरने की बजाय शहीद होकर मरने में ज्यादा फायदा है।
हर समाज की अपनी अलग-अलग विशेषताएं होती हैं जिसकी वजह से एक ही राजनीतिक विचार और व्यवस्था अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरीकों से क्रियान्वित होता है। उदाहरण के रूप में माक्र्सवाद की विचारधारा पर गठित सोबियत संघ और चीन के बीच रही जमीन आसमान की भिन्नता को दर्शाया जा सकता है। इसी तरह लोकतंत्र के साथ है जो हर देश की ऐतिहासिक सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरीकों से गढ़ा जाता है। कहने को तो इंग्लैंड और जापान में भी लोकतंत्र के रहते हुए राजशाही जिंदा है लेकिन वहां लोकतंत्र को लेकर ऐसे सवाल नहीं हैं जैसे इस देश में खड़े हो रहे हैं। सामंती माइंड सेट के साथ लोकतंत्र की कदमताल इस देश में आमजन के लिए अभिशाप बन गई है जिसकी वजह से उसे राजशाही जैसा ही शोषण दमन और मनमाना शासन झेलना पड़ रहा है। इस बात पर इसलिए चर्चा न की जाए कि कहने को तो भारत आज संख्यात्मक दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है ही और अगर लोकतंत्र की सच्चाई को उजागर किया जाएगा तो भारत का यह स्टेट्स न केवल दरक जाएगा बल्कि चकनाचूर हो जाएगा। लोकतंत्र में सामंती ताकतों द्वारा उसे चाहे जितना हाईजैक किया गया हो पर इतना योगदान तो उसने किया ही है कि लोग इसके कारण अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गए हैं। ऐसे में उनके द्वारा वर्तमान लोकतंत्र के विकल्प के रूप में सर्वहारा की तानाशाही की व्यवस्था की ओर ताकना लाजिमी है। कई राज्यों में सच्चे जनवाद की स्थापना के लिए प्रचंड हो रहा जनवाद इसी की अभिव्यक्ति है। जातिवाद और सांप्रदायिकता का रक्षा कवच उग्र जनवाद के असर को काफी हद तक कामयाब नहीं होने दे रहा लेकिन अगर स्थितियां ऐसी ही रहीं तो यह कवच उस तूफान के आगे छिन्नभिन्न हो जाएगा इसलिए जरूरत इस बात की है कि लोकतंत्र को पटरी पर लाने के लिए गंभीर कोशिशें शुरू की जाएं ताकि देश को रक्तिम क्रांति से बचाया जा सके।

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