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जिसके पास खुद पहनने को कपड़े नहीं थे…कहा था देवीलाल ने

मुक्त विचार
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जिसके पास खुद पहनने के लिए कपड़े नहीं थे उसे मैंने कपड़ा मंत्री बनवा दिया फिर भी उसने मेरे साथ गद्दारी करते हुए नहीं सोचा। शरद यादव की टुच्ची राजनीतिक हैसियत को आईना दिखाते हुए जब जनता दल के विभाजन के समय चौ. देवीलाल ने यह वाक्य कहे थे उस समय शरद यादव शर्म और बौनेपन के एहसास मैं दबकर रह गए थे। शरद यादव भले ही 1975 में सेठ गोविंद दास जैसी हस्ती को सिर्फ पच्चीस साल की उम्र में हराकर तब की अत्यंत प्रतिष्ठित मानी जाने वाली धर्मयुग पत्रिका में कवर स्टोरी के बतौर छप कर स्टार बन गए हों लेकिन अंततोगत्वा उनकी नियति धूमकेतू की तरह रही। वैसे 1977 में पहली बार केेंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो शरद यादव को उक्त पृष्ठभूमि के कारण ही सत्तारूढ़ पार्टी की युवा शाखा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया लेकिन इस पद पर रहकर प्रतिभाहीनता के कारण वे कोई कामयाबी हासिल नहीं कर पाए। उन्होंने युवा जनता को एक अराजकत ब्रिगेड के रूप में तब्दील करके जो बदनामी कमाई उससे लोगों का उनसे मोहभंग हो गया। बहरहाल चूंकि वे पहली बार में ही सांसद बन गए थे और युवा जनता के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे थे इसलिए प्रतिपक्ष के सारे बड़े नेता उनको पहचानने लगे थे। इस कारण गर्दिश के दिन शुरू होने के बावजूद उनका अस्तित्व इसलिए बना रहा कि वे इन नेताओं की चाकरी की हद तक गणेश परिक्रमा में मशगूल हो गए। उन्होंने तीन तिकड़म की राजनीति में महारथ हासिल कर ली। इसी का नतीजा था कि हरियाणा की राजनीति में कोई असर न रखने के बावजूद देवीलाल ने उन्हें अपना सबसे बड़ा कृपापात्र बना लिया। देवीलाल का ही रहमोकरम था कि 1989 में जब लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए उन्हें कोई सीट ढूंढने को नहीं मिल रही थी तब मुलायम सिंह ने उनको उत्तर प्रदेश में बंदायूं में पनाह दी और मुलायम सिंह के सहयोग व समर्थन की बदौलत वे चुनाव जीत पाए। यह दूसरी बात है कि जिस तरह जबलपुर में बाद में उनका कोई नामलेवा नहीं रहा उसी तरह आज बंदायंू में उनके नाम पर कोई वार्ड का चुनाव तक नहीं जीत सकता।
बिना जड़ वाले छुटभैया नेता जब जोड़तोड़ की वजह से बड़ी राजनीति के केेंद्र बिंदु में आ जाते हैं तो मेंटल केस बन जाता है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण शरद यादव हैं। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बाद पिछड़ों और दलितों को लामबंद करने के लिए उनमें वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध आक्रामक चेतना पैदा की जाना लाजिमी था जिसके लिए वीपी सिंह को जरूरत थी कि इन्हीं तबकों में से कुछ चेहरे आगे लाकर बात कही जाए। इसमें दो चंगू मंगू उन्होंने तलाशे जिनमें एक थे रामविलास पासवान। हालांकि पासवान के व्यक्तित्व को हल्का मानने की गलतफहमी हमें नहीं है। पहली बार में ही लोकसभा में पहुंचने के बाद उन्होंने अपनी भाषण शैली से जो सिक्का जमाया उससे वे अपने आप में भी एक स्टार थे लेकिन वीपी सिंह के मंगू यानी शरद यादव के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। शरद यादव का बौद्धिक स्तर शुरू से लेकर आखिरी तक सड़क छाप कार्यकर्ताओं से भी गया बीता रहा है। इस कारण वीपी सिंह के पुछल्ले बनकर ही वे धन्य थे क्योंकि इससे उन्हें कम से कम राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत पहचान बनाने का पहली बार अवसर मिला था।
1997 तक जब वीपी सिंह अपने ब्लड कैैंसर की वजह से पस्त होकर राजनीतिक मैदान छोडऩे के लिए विवश होने लगे तो शरद यादव जिनमें कोई आकर्षण और काबलियत नहीं थी अपनी राजनीतिक उत्तरजीविता के लिए छटपटा उठे। यहां तक कि जिन लालू प्रसाद यादव को वे अपने इशारे पर हांकने का सपना देख रहे थे उन्हें भी जनाधार से खोखले शरद यादव को अपने नेता के रूप में ढोना मंजूर नहीं रहा था। इसी बीच जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में पथ भ्रष्ट सोशलिस्टों की टोली ने देशहित के नाम पर भाजपा शरणम् गच्छामि होने की योजना बना ली तो उनके शागिर्द बनकर शरद यादव भी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के सिपाही के रूप में किए गए अपने योगदान का पुण्य गंवाकर राजग की कर्मनाशा में स्नान करने में लग गए। अब कई वर्ष से जार्ज फर्नांडीस रोग शैया पर बेसुध पड़े महाप्रयाण पर निकलने की तैयारी में हैं। ऐसे में राजनीतिक समीकरणों की वजह से राजग संजोग बनने का मौका शरद यादव के हाथ में अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह आ गया पर इसका असर बचकानेपन से उबर कर उनके परिपक्व राजनीति की ओर अग्रसर होने में न हो सका बल्कि यह असर क्षुद्र नदी जल भर उतराई की तर्ज पर उफना गया। अपने पूर्व मसीहा वीपी सिंह को मंडल आयोग की रिपोर्ट के क्रियान्वयन में नगण्य जाहिर कर स्वयं को मंडल क्रांति का प्रणेता सिद्ध करने की उनकी बड़बोली कोशिश से उनके नंबर तो नहीं बढ़ पाए लेकिन इस हरकत ने उन्हें राजनीति का विदूषक जरूर बना दिया। देवगुणा सरकार के विश्वास मत पर संसद में हुई चर्चा के समय शरद यादव फरमा रहे थे कि पांच हजार वर्ष पहले बुद्ध के समय से दलित और पिछड़े सामाजिक अन्याय का दंश भोग रहे हैं। इसी बीच भाजपा के एक तेजतर्रार सदस्य ने उन्हें टोका कि बुद्ध पांच हजार नहीं ढाई हजार वर्ष पहले पैदा हुए थे। इसके बावजूद जब शरद यादव बुद्ध की पैदाइश पांच हजार वर्ष पहले साबित करने पर अड़ गए तो जयपाल रेड्डी को हस्तक्षेप करना पड़ा। जयपाल रेड्डी ने कहा कि शरद जी बुद्ध का कार्यकाल ढाई हजार वर्ष पुरानी ही है। इस पर शरद यादव झुंझलाकर बोले मैं इतिहास में क्या जानूं। मैं तो बीटेक का छात्र रहा हूं। विडंबना देखिए कि गठबंधन राजनीति की मजबूरी की वजह से मनमोहन सरकार ने ऐसे छिछले नेता को सर्वश्रेष्ठ सांसद के बतौर नवाज दिया। इसके बाद तो शरद यादव के अहंकार पूर्ण प्रलाप की चरम सीमा हो चुकी है। शरद यादव आजकल बार-बार अपने मुंह से ही खुद को सीनियर मोस्ट सांसद की दुहाई देते नहीं थक रहे।
बहरहाल जनता दल यू में इन हरकतों की वजह से उन्हें बोझ समझा जाने लगा है। नीतीश कुमार ने उन्हें औकात में रखने के लिए ही राजग से नाता तोड़कर मोदी के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। शरद यादव इससे छटपटाए तो बहुत लेकिन करते क्या। अब यह दिखाने के लिए कि इसमें नीतीश की कोई पहल न होकर यह उनका फैसला था। पत्रकारों को बताने लगते हैं कि हमने तो बाबरी मस्जिद टूटने पर अपनी सरकार धर्मनिरपेक्षता को बचाने के लिए कुर्बान करना ज्यादा बेहतर समझा था। इस सोच के कारण ही अब जब उन्हें लगा कि भाजपा से दोस्ती खत्म की जानी चाहिए तो अपने सिद्धांतों के लिए उन्होंने राजनीतिक नफा-नुकसान की चिंता किए बिना यह कदम उठा दिया। 1991 में वीपी सिंह सरकार से भाजपा के समर्थन लेने का प्रसंग इतना पुराना नहीं हुआ है कि लोगों को याद न हो कि शरद यादव की हैसियत तब क्या थी। वे वीपी सिंह की कैबिनेट में सबसे कनिष्ठ सदस्यों में थे। इस कारण सरकार को कुर्बान करने के लिए अब उनका मियां मुंह मिट्ठू बनना कोई अर्थ नहीं रखता। सही बात तो यह है कि यह जानते हुए भी कि बीजेपी के नेताओं का दामन बाबरी मस्जिद को शहीद करने के कलंक से दागदार है उन्होंने सरकार में हिस्सेदारी पाने के लिए राजग का हिस्सा बनकर 1991 की पूरी कुर्बानी को गटर में बहा दिया। नीतीश कुमार ने हालिया लोकसभा चुनाव के परिणाम सामने आने के बाद बिहार में जदयू को मिली करार हार की नैतिक जिम्मेदारी लेने के नाते जब अपना पद छोडऩे का फैसला किया तो शरद यादव उनकी जगह अपना मुख्यमंत्री बिठाने के लिए साजिशों को रचने में मशगूल हो गए थे पर नीतीश ने इसका मौका दिए बिना मुशहर समाज जीतनराम माझी को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। जीतनराम माझी में भले ही राजनीतिक होशियारी की कमी हो जिसकी वजह से वे कड़वा सच उगलने की आदत के चलते कुछ हद तक पार्टी के लिए समस्या बन गए हों लेकिन नीतीश ने सही मायने में उन्हें मुख्यमंत्री बनवाकर सामाजिक न्याय का एक चक्र पूरा किया है। पिछड़े नेताओं पर आरोप है कि वे सत्ता मिलने के बाद दलितों के प्रति द्वितीय श्रेणी के नागरिक की तरह व्यवहार करने में सवर्णों को भी दो कदम पीछे छोड़ देते हैं। वर्ण व्यवस्था को बदलने में पिछड़ों की यही गं्रथि सबसे बड़ी बाधा साबित हो रही है। नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय की दिशा में दलितों के लिए पहली बार पिछड़े नेता के रूप में बड़ी पहलकदमी की है जिससे वर्ण व्यवस्था जैसी सड़ी गली व्यवस्था को ढहाने का एक मजबूत आधार बिहार में तैयार हो सका है। दूसरी ओर जीतनराम माझी के बेलाग बयानों से जनता दल यू को राजनीतिक नुकसान के जोखिम से दो-चार होना पड़ रहा है। इसे लेकर पार्टी के प्रधान महासचिव केसी त्यागी जैसे लोग बेहद फिक्रमंद हैं। शरद यादव से तो यह उम्मीद की नहीं जा सकती कि वे जनता दल को एक विचारधारा वाली पार्टी के रूप में पेश कर सकेें क्योंकि थिंक टैंक के रूप में काम करने की उनमें बुनियादी योग्यता तक नहीं है लेकिन केसी त्यागी विद्वान हैं और एक समर्थ सोशलिस्ट आइडियल लाग। उनकी यह विशेषता शरद यादव के मन में उनके प्रति डाह का कारण बन गई है। एक पत्रकार वार्ता में उन्होंने केसी त्यागी का हवाला आने पर उनके लिए जिस तरह की वितृष्णा दिखाई उससे उनके क्षुद्र व्यक्तित्व का एक और आयाम उजागर हुआ है। मुलायम सिंह व लालू यादव की होने वाली रिश्तेदारी वे अलग नहीं पचा पा रहे। कुल मिलाकर स्थिति यह बन रही है कि जनता दल यू को अपना वजूद कायम रखना है तो उसे शरद यादव जैसे अहंकार के कारण मूढ़ मगजपन की पराकाष्ठा पार कर चुके नेता से छुटकारा पाना होगा।

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