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एंगिल और मीडिया

मुक्त विचार
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भिंड में दद्दा मलखान सिंह फिल्म की इन दिनों चल रही शूटिंग कई पुरानी स्मृतियों को कुरेद गई। मलखान सिंह के समर्पण के समय पत्रकारिता मुनाफा कमाने के धंधे में तब्दील नहीं हो पाई थी। व्यवसायीकरण की चपेट में आने के बाद समाज में वैचारिक चेतना के विकास की जरूरत पूरी करने के लिए अवतरित की गई यह विधा किस तरह से सच के लिए संघर्ष के दावे के तले फरेब और झूठ का व्यापार बन गई। उन दिनों इसकी पहली झलक मुझे देखने को तो मिली लेकिन यह बात उस दौर में इतनी अनजानी थी कि उस समय लोग बहुत गंभीरता से इसे संज्ञान में नहीं ले सके थे।
मलखान सिंह के समर्पण के बाद मध्य प्रदेश में फूलन देवी के समर्पण का तानाबाना बुना गया जिसके औचित्य पर तमाम सवालिया निशान थे। दरअसल मध्य प्रदेश में फूलन देवी के खिलाफ उस समय तक कोई अपराध दर्ज नहीं था फिर भी मध्य प्रदेश की सरकार और पुलिस महिमा मंडन की कीमत पर उनके समर्पण को आयोजित करने के लिए क्यों उत्सुक है यह एक ऐसी पहेली थी जो कई तरह की चिंताओं और खतरों की ओर आगाह करने का कारण साबित हो रही थी। उत्तर प्रदेश की सरकार और पुलिस जिसके लिए बेहमई कांड के बाद फूलन देवी सबसे गंभीर चुनौती बन गई थीं उसे इस मामले में मध्य प्रदेश की बेतुकी सक्रियता पर इस हद तक एतराज था कि जालौन पुलिस ने फूलन देवी के परिवार से संपर्क करने आए भिंड के कोतवाल मंगल सिंह चौहान और उनके हमराह सिपाहियों को पकड़कर सीखचों के अंदर डाल दिया।
बाद में उन दिनों यह खबर आई कि फ्रांस की एक टेलीविजन कंपनी ने जीवित किवदंति बन चुकी फूलन देवी की लाइव शूटिंग के लिए मध्य प्रदेश के पुलिस अधिकारियों से बीस लाख रुपए एडवांस देकर करार किया है। हालांकि हम लोगों की वजह से मध्य प्रदेश पुलिस को अपने इस प्रयास में तब तेज झटका लगा जब दस हजार रुपए के इनामी डकैत मुस्लिम को भिंड जिले के ऊमरी थाने के तत्कालीन थानाध्यक्ष ने एनकाउंटर की नौबत आने पर गोली मार दी। इसके बाद मध्य प्रदेश में भोपाल तक हड़कंप मच गया। इस गुडवर्क के लिए न केवल थानाध्यक्ष को लाइन हाजिर होना पड़ा बल्कि पीछे से उन्हें निर्देशित कर रहे चंबल रेंज के डीआईजी एमडी शर्मा को भी हटाकर लूप लाइन में डाल दिया गया। इसी के साथ भिंड के सारे पुलिस अधिकारी ग्वालियर मेडिकल कालेज अस्पताल में मुस्लिम को मौत के मुंह से बचाने में जुट गए और आखिर में वे कामयाब भी हुए।
इस मुठभेड़ का असर यह हुआ कि फूलन देवी मध्य प्रदेश की पुलिस से बुरी तरह भड़क गई। उन्होंने कहा कि सारे खाकी वाले दगाबाज हैं और अब वे समर्पण बिल्कुल नहीं करेंगी। वे उनके निरापद रहने के लिए भिंड में पुलिस द्वारा घोषित किए गए पीस जोन से निकलकर फिर जालौन जिले के अपने अभयारण्य में वापस जाने की पूरी तैयारी कर चुकी थी। इस बीच उनके समर्पण को कैश करा रहे पुलिस अधिकारी उनके पास पहुंच गए। जब वे मिन्नतें करने से नहीं मानी तो पुलिस अधिकारी ने उन्हें अपना इकलौता पुत्र सौंप दिया और कहा कि आगे अगर आपको लगे कि आपके साथ कोई धोखा हो रहा है तो इस लड़के को मार देना।
आखिर फूलन देवी सध गईं। फिर भी समर्पण की योजना के अंजाम तक पहुंचने में कुछ महीने और लग गए। इस दौरान बीहड़ में उनके जीवंत विचरण को फिल्माया जाता रहा। इसके बदले में उन्हें भी मोटी रकम दी गई। पहली बार बिना पढ़ीलिखी फूलन ने तब जाना कि उनके फोटो खिंचने का पेमेंट मिलता है। फूलन देवी ने इसी कारण समर्पण के एक दिन पहले लहार के पास ईंगुई के डाक बंगले में दिल्ली के एक पत्रकार को बिना रुपया दिए उनका फोटो करने की वजह से थप्पड़ जड़ दिया था जिससे एसएएफ और उनके गिरोह में गोली चलने की नौबत आ गई थी। यह एक अलग प्रसंग है। फूलन देवी समर्पण के बाद भी पश्चिमी मीडिया के लिए वित्तीय लाभ के तौर पर उपयोगी बनी रहीं। भारत में सभ्यता का विकास पांच हजार वर्ष पहले हो गया था। यूरोप तो सोलहवीं शताब्दी तक सभ्यता के विकास की दृष्टि से दीनहीन अवस्था में ही था लेकिन जब भारत को पश्चिमी शक्तियों ने अपना उपनिवेश बना लिया तो उसका गौरव जाता रहा। स्वाधीन होने के बाद भी पश्चिमी जगत की भारत को हिकारत की निगाह से देखने की भावना खत्म नहीं हुई। उन्होंने बराबर यह कोशिश की कि भारतीय अपने पुराने गौरव को भूल जाएं और गुलामी के बाद उनमें जो हीनभावना पनपी है वह बरकरार रहे इसलिए भारत को पिछड़ा और असभ्य देश साबित करने वाली किताबें और फिल्मों का पश्चिमी बाजार में जबरदस्त स्वागत होता था। भारतीय मूल के लोग भी अपने समाज की अस्मिता की कीमत पर पश्चिमी भद्रलोक को कैश कराने में पीछे नहीं रहना चाहते थे।
फूलन देवी को केेंद्र बनाकर फ्रांस में रहने वाली भारतीय मूल की पत्रकार माला सेन यही काम कर रही थीं। उन्होंने फूलन देवी पर किताब लिखने की योजना बनाई और उसे बेस्ट सेलर बनाने के लिए जो एंगिल चुना उसमें भारत को ऐसे देश के रूप में पेश किया जाना शामिल था जिसमें आधुनिक कानून और प्रशासन का अभी भी कोई अस्तित्व न दिखे और नजर आए भारत में व्यवस्था की रूपरेखा विभिन्न जातियों के बीच जारी बर्बर कबीलाई युद्धों से तय होती है। फूलन देवी की कहानी को ठाकुर बनाम निषाद के जाति संघर्ष से जोडऩे के लिए ग्वालियर की जेल में माला सेन ने बाकायदा उन्हें लंबे समय तक ट्रेनिंग दी। उनकी बैंडिट क्वीन का सच हकीकत से बिल्कुल जुदा था। अगर फूलन देवी किसी जाति युद्ध का केेंद्र बिंदु होती तो उन्होंने समर्पण के लिए अर्जुन सिंह पर कभी भी भरोसा न किया होता क्योंकि अर्जुन सिंह भी तो आखिर एक ठाकुर ही थे। जैसा कि ऊपर की पंक्तियों में आ गया है। समर्पण के पहले उनके परिवार का विश्वास जिस पुलिस अधिकारी ने जीता वे मंगल सिंह चौहान भी ठाकुर ही थे। फूलन देवी को जिसने बंदूक मुहैया कराई वे बादशाह सिंह भदौरिया भी ठाकुर ही थे और उनको शरण देने में पीएसी की नौकरी गंवा बैठे वे जयकरन सिंह भी ठाकुर थे। फूलन देवी ने केवल एक अपहृत को बिना पैसा लिए बल्कि उल्टा पैसा देकर रिहा किया वह कुशवाहा ट्रांसपोर्ट कंपनी का युवक भी ठाकुर था। फूलन देवी के बहाने भारत में जाति संघर्ष का गृह युद्ध छिड़ा होने की धारणा को थोपा जाना देश की छवि खराब करने की एक बहुत बड़ी साजिश थी और इसके लिए भारतीय मूल के लोग ही प्रेरित हुए तो इसलिए मुनाफे के लिए बाजारी सिद्धांत में सबकुछ जायज माना जाता है। शेर सिंह राणा जैसे आपराधिक मानसिकता के युवक ने सस्ते में कौम का हीरो बनने के लिए फूलन देवी की हत्या करने का जो काम किया वह भी इस नजरिए से देखें तो एक राष्ट्र विरोधी कृत्य रहा और निश्चित रूप से अफगानिस्तान में पृथ्वीराज चौहान की समाधि पर पहुंचने का जौहर दिखाने की वजह से जो लोग शेर सिंह राणा को सिर माथे पर बिठाते हैं उनके बारे में भी कहा जा सकता है कि उनकी देशभक्ति संदेह से परे नहीं है। बहरहाल आज मुनाफे की होड़ मीडिया में चरमसीमा पर है। तथ्यों को किस एंगिल से पेश किया जाए ताकि खबर सबसे ज्यादा बिकने वाला आइटम बन जाए। मीडिया को इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए तथ्यों को तोडऩे-मरोडऩे से कोई परहेज नहीं है बल्कि आज मीडिया सच को तोडऩे-मरोडऩे का ही धंधा बन गया है। देश हित मानवता हित व समाज हित को मुनाफे की हवस में रौंदा जा रहा है। तीन दशक पहले तक सच को संदर्भ से काटकर या आधे-अधूरे सच को पेश करना पीत पत्रकारिता का ही एक आयाम माना जाता था। उस समय टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप को चलाने वाले बेनेट कोलमेन एंड कंपनी के मालिकान अपने संपादकों से कहते थे कि भले ही उनके प्रकाशन घाटे में चलें लेकिन उनकी विश्वसनीयता और प्र्रमाणिकता पर कोई आंच नहीं आना चाहिए लेकिन उन्हीं की तीसरी पीढ़ी ने उन संपादकों की छुट्टी कर दी जो अखबार का रेवेन्यू नहीं बढ़ा पा रहे थे। आज संपादक की नौकरी का अस्तित्व टीआरपी या सर्कुलेशन से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। यही नहीं मीडिया कलम के जरिए रंगदारी वसूल करने वालों का गिरोह बनती जा रही है। उच्छृंखल रिपोर्टर होंगे तभी मीडिया के आंतक का सिक्का जमेगा। इस धारणा के तहत काम किए जाने का परिणाम है कि लूटखसोट में माहिर लोगों को पत्रकारिता में प्राथमिकता मिल रही है। मीडिया आंतक के दम पर न केवल विज्ञापन वसूल रही है बल्कि मालिकान के गलत कामों को कराने के लिए भी उसकी शहजोर छवि बहुत काम की साबित हो रही है। यह अलग बात है कि धीरे-धीरे मीडिया का यह रूप उसे खोखला करने की वजह बन गया है। लोग अब पहले की तरह मीडिया की खबरों पर विश्वास नहीं करते और बिना लोगों के विश्वास के मीडिया की जिंदगी बहुत लंबी होने की उम्मीद नहीं रखी जा सकती तब भविष्य में मीडिया का स्वरूप क्या होगा इस पर अटकलबाजी करना काफी दिलचस्प हो सकता है।

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