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सन्यास को कलंकित कर रहीं ये साध्वियां

मुक्त विचार
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साध्वी निरंजन ज्योति के विवादित बयान से सरकार की किरकिरी तो हुई ही है संसद सत्र के दौरान यह मामला सामने आने से विपक्ष को एकजुट होकर सरकार पर तीखा हमला करने का अवसर भी मिल गया है। निरंजन ज्योति के माफी मांग लेने के बाद भी विपक्ष उन्हें बर्खास्त करने की मांग पर अड़ा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों सदनों में स्वयं इस पर बयान दे चुके हैं लेकिन फिर भी विपक्ष शांत होने को तैयार नहीं है। दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि मोदी को न झुकने वाले नेता की अपनी छवि पर बहुत नाज है जिसकी वजह से कितने दिन भी गतिरोध चले लेकिन वे फिलहाल निरंजन ज्योति से इस्तीफा देने को नहीं कहेंगे।
निरंजन ज्योति के मामले में चल रही उक्त राजनीतिक उठापटक अलग चीज है लेकिन बुनियादी बात यह है कि जो पार्टी अपने को धर्म का ठेकेदार घोषित करती है वह सन्यासी और साध्वियों को सत्ता का टुकड़ा फेेंक कर धर्म की मर्यादा का हनन करने पर क्यों तुली हुई है। जब संसार की नश्वरता और तुच्छता का ज्ञान साधक को हो जाता है और अध्यात्म के शिखर पर अपनी साधना को पहुंचाकर वह परमानंद का रसास्वादन एकबार कर लेता है तब वह वीतराग यानी सन्यस्त होता है। जाहिर है कि राजनीति और सन्यास दोनों के रास्ते एकदम जुदा हैं। सन्यासी होना हर आदमी की क्षमता की बात नहीं है। जो लोग भवसागर से बाहर निकलने में असमर्थ होते हैं वह लोग अच्छी भावना होने पर अपनी सीमाओं के कारण सामाजिक राजनीतिक प्रक्रियाओं से बेहतर दुनिया के निर्माण का रास्ता खोजते हैं जबकि अध्यात्म की दुनिया में यह प्रयास प्रवंचना से ज्यादा महत्व नहीं रखता। सत्ता को अवलंब बनाकर जीवन के उच्चतम लक्ष्य को हासिल करने की कल्पना मृगमारीचिका में भटकने जैसा है। इस तरह देखें तो एक राजा अंततोगत्वा सन्यास की ओर प्रवृत्त हो जाए जैसा कि गौतम बुद्ध ने किया था तो यह उच्चतम की ओर उसका प्रस्थान होगा लेकिन अगर सन्यासी होने के बाद भी कोई राजसत्ता के प्रति आशक्ति दिखाता है तो माना जाएगा कि वह साधक भ्रष्ट है। भाजपा इस मामले में माया महा ठगिन की भूमिका अदा कर रही है। उमा भारती व निरंजन ज्योति को मंत्री बनाकर उसने इन साध्वियों का तप भंग करने का अपराध किया है।
आश्चर्य यह है कि नरेंद्र मोदी और उनके संघीय आकाओं को भारतीय अध्यात्म के मर्म का ज्ञान नहीं है जबकि वे इस अध्यात्म पर हर रोज अपना गाल बजाते हैं। क्या उन्होंने राजा जनक की कहानी पढ़ी है जिन्हें विदेह की उपाधि दी गई थी क्योंकि उत्तरदाई राजा के नाते वे अपनी प्रजा के कल्याण की चिंता में इतने लीन रहते थे कि राजसुख की अनुभूति तो अलग बात उन्हें अपने ध्येय के अस्तित्व का भान तक नहीं रहता था। उन राजा जनक के पास जब सुखदेव जी राजसभा में आसन मांगने गए तो ऋषि पुत्र की यह याचना जनक जी को अस्वीकार करनी पड़ी क्योंकि जनक जी को मालूम था कि राजसत्ता के प्रति ऋषियों में लोलुपता उत्पन्न करने की किसी भी गुंजाइश का निर्माण महापाप है। लगता है कि भाजपा के स्वयंभू रामभक्तों ने जनक और उनके आदर्शों को कभी पढऩे की जरूरत नहीं समझी।
जितने भी साधु सन्यासी और महामंडलेश्वर सांसारिक पदों जिनमें मंत्री सांसद और विधायक के पद शामिल हैं को स्वीकार किए हुए हैं वे सभी महापातकी हैं और उन्होंने आदर प्राप्त करने का अधिकार खो दिया है। उनके आचरण से लोग आध्यात्मिक अनुभूतियों से विमुख होकर सांसारिकता के पंक में धंसे रहने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। नरेंद्र मोदी एक दुविधाग्रस्त राजनेता हैं। एक ओर वे वैश्विक प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए स्वयं को आधुनिक दृष्टि से युक्त नेता के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं दूसरी ओर संघ के दबाव में सरकार में उन लोगों को भागीदार बना रहे हैं जिन्हें सत्ता संचालन के आधुनिक प्रतिमानों का कोई ज्ञान नहीं है। जाहिर है कि दकियानूस मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के रहते आधुनिक विश्व के लिए वांछनीय सुशासन कायम नहीं हो सकता। अभी तो नरेंद्र मोदी को केवल एक साध्वी के आचरण का दंश चुभा है। उनके मंत्रिमंडल में उमा भारती, निरंजन ज्योति, गिर्राज सिंह जैसों की भरमार है। राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन के मामले में भी उन्होंने संघ के दकियानूस प्रचारकों को वरीयता दी है। उदाहरण हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का है जिन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव न होते हुए भी एक आधुनिक राज्य के संचालन की जिम्मेदारी सौंप दी गई है। अभी मोदी के नए नवेले राष्ट्रीय नेतृत्व की चकाचौंध में इसके नकारात्मक प्रभाव छिपे हुए हैं लेकिन जैसे-जैसे उनमें पुरानापन आता जाएगा उनका मुलम्मा उतरता जाएगा वैसे-वैसे यह प्रयोग जगहंसाई की नौबत बढ़ाते जाएंगे।
उमा भारती को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का परिणाम हालिया अतीत में भाजपा झेल चुकी है। अगर उन्हें कार्यकाल पूर्ण करने का अवसर मिल जाता तो भाजपा का मध्य प्रदेश में दूसरी बार सत्ता में आना दुश्वार था। सत्ता चलाने के लिए राजनीतिक पृष्ठभूमि का नेता होना चाहिए। शिवराज सिंह चौहान की शख्सियत राजनीतिक है। वे आध्यात्मिक कोटे से नहीं हैं इस कारण अवसर मिलते ही उन्होंने मध्य प्रदेश में भाजपा की अलंघ्य सत्ता के निर्माण का करिश्मा दिखा दिया।
भाजपा हिंदू अध्यात्म का जो चेहरा पेश कर रही है उस पर खुली बहस शुरू होनी चाहिए ताकि हिंदू अध्यात्म के गौरव को उसके नटखट के कारण हो रही क्षति की समय रहते भरपाई की जा सके। निरंजन ज्योति ने रामजादे और हरामजादे जैसे जुमलों का इस्तेमाल सार्वजनिक भाषण में करके यह साबित कर दिया कि भाजपा के तथाकथित साधु सन्यासी साधना की पहली पायदान भी नहीं चढ़े हैं। साधना का पहला सिद्धांत है कि व्यक्ति को अपनी आंतरिक चेतना के उच्चतम विकास के लिए अग्रसर होते हुए काम, क्रोध, लोभ मोह के अलावा मद के विकार से भी विरक्त करना पड़ेगा। भाजपाई सन्यासियों में मद की पराकाष्ठा है। यह बात उनके द्वारा धर्मसत्ता की बात कहने पर ही उजागर हो गई थी। वजह यह है कि सत्ता और धर्म में विलोमानुपाती संबंध होता है। धर्म के साथ सत्ता का उपसर्ग या प्रत्यय जोडऩा धर्म का अनर्थ करना है। भाजपा समर्थक छद्म साधु सन्यासी क्रोध और मद से हमेशा चूर रहते हैं जो उनके द्वारा वाणी के संयम के बार-बार उल्लंघन से स्पष्ट है। साधु संतों जैसी हृदय की निर्मलता का वरदान प्राप्त करना सांसारिक व्यक्तियों की अभीप्सा होती है ताकि उनके द्वारा किसी के प्रति कटुता, ठसक से संभाषण करने की चूक न हो सके लेकिन यह सामथ्र्य आसानी से अर्जित नहीं की जा सकती। इसका भी बोध उनको रहता है। यह संसार तभी तक कायम रह सकता है जब तक कि लोग साधुओं जैसी निर्मलता के लिए तरसते रहें। अगर इसके विपरीत आचरण वाले लोगों का परिचय साधु सन्यासियों के रूप में कराया जाएगा तब तो सांसारिक व्यक्तियों के ऊपर उनकी देखादेखी कोई अंकुश ही नहीं रहेगा। इस कारण अगर भाजपा अध्यात्म के महत्व के प्रति जरा भी जागरूक हो तो उसे पात्र साधु संतों को ही सम्मान का वातावरण बनाना पड़ेगा।

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