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मोदी के लिए कूटनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा की घड़ी

मुक्त विचार
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धर्मांतरण का विवाद लगातार गरमाता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज अपने सांसदों व पार्टी के अन्य नेताओं को हिदायत दी है कि वे विवाद पैदा करने वाली हरकतों से बाज आएं। दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि घर वापसी के सारे कार्यक्रम संघ के इशारे पर और उसके आशीर्वाद से हो रहे हैं और योगी आदित्यनाथ जैसे भाजपा के महंत सांसदों का भी खुला समर्थन इस अभियान को प्राप्त है। यह एक बेहद विरोधाभासी स्थिति है जिसकी परिणति कुछ भी हो सकती है। मोदी को पहली बार अपनी कूटनीतिक क्षमताओं की परीक्षा देने की स्थिति में उलझना पड़ा है। देखें वे इससे कैसे पार पाते हैं।
मोदी और उनकी मुश्किलों को लेकर बातें फिर। अभी तो यह है कि धर्मांतरण पर चली बहस ने कई सैद्धांतिक पहलुओं पर नए सिरे से विचार करने का मौका दिया है। मोटे तौर पर नैसर्गिक न्याय के अनुरूप व्यवस्था और व्यक्तिगत आचरण की वकालत चाहे वह कोई राजनीतिक विचारक करे या धार्मिक पैगंबर तो उसके अनुयायी जो यह विचार करते हैं कि बेहतर दुनिया उसके पे्ररणा स्रोत के आदर्शों के आधार पर ही बनेगी। उनका यह अनिवार्य रूप से कर्तव्य होना चाहिए कि वे पूरी दुनिया में इसे लागू करने की जिद्दोजहद करें। तथागत बुद्ध ने भारत भूमि पर ही कहा था कि धर्म आडंबर पूर्ण कर्मकांड और अव्याकृत जटिल प्रश्नों का स्वरूप नहीं है। धर्म स्वयं के जीवन को और दूसरे सभी के जीवन को सुखी बनाने का उद्योग है। जब उनकी इस पक्षधरता के लोग कायल होते गए तो सम्राट अशोक ने सोचा कि भारत के साथ-साथ दुनिया के और दूसरे देशों में भी लोग तथागत बुद्ध के रस्ते पर चलें। इस कारण उन्होंने अपने पुत्र महेंद्रा व पुत्री संघमित्रा को दुनिया की अन्य देशों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दिलाने के लिए भेजा। इस्लाम व ईसाई धर्म द्वारा भी ऐसा करना लाजिमी था। राजनीतिक स्तर पर माक्र्स ने कहा कि दुनिया में सही राज तब आ सकता है जब बुद्धि विलास करने वाले बुर्जुवाओं की बजाय सत्ता मेहनतकशों के हाथ में हो। उनके विचारों में दम था। इस कारण दुनिया के तमाम देशों के लोग उन विचारों के अनुरूप राजनीतिक व्यवस्था को बनाने के लिए प्रेरित हुए। दुनिया के सारे वंचितों पीडि़तों के धर्म व पीडि़तों की राजनीतिक विचारधारा में एक बात सामान्य है कि इनमें व्यक्तियों के बीच समानता के मूल्यों को सर्वोच्च महत्व दिया गया है। इस रूप में सारे संसार में धर्म के सबसे प्रारंभिक गुण के रूप में समानता के मूल्य की पहचान की गई।
यहां से हम देखें तो पाएंगे कि जो लोग यह कहते हैं कि भारत ने अपने धर्म को दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं की वे तथ्यों को तोड़मरोड़ रहे हैं। भारत के ही धर्म ने सबसे पहले मिशनरी यानी प्रचारक गुण को अपनाया लेकिन अगर सनातन धर्म ऐसा न कर सका तो उसकी अपनी वजह थी। यह एक ऐसा अनोखा धर्म है जिसमें समता के सिद्धांत को रंचमात्र भी स्वीकार नहीं किया गया है। सामाजिक उपनिवेशवाद को धार्मिक जामा पहनाने का एक उपक्रम है सनातन धर्म। बाबा साहब अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच जब हिंदु धर्म को लेकर शास्त्रार्थ शुरू हुआ तो महात्मा गांधी ने स्वीकार किया कि सनातन धर्म की सबसे पहली विशेषता है वर्ण व्यवस्था। उन्होंने कहा कि वर्ण व्यवस्था सनातन धर्म का मौलिक और अभिन्न स्वरूप है। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को महिमा मंडित करने के लिए अपने हिसाब से तर्क दिए। हर वकील अपने मुवक्किल के पक्ष को सही ठहराने के लिए दलीलें ढूंढ सकता है। यह संसार ही ऐसा है लेकिन वर्ण व्यवस्था का मतलब है एक ऐसा व्यवस्था जिसमें समाज के बहुत बड़े वर्ग को दासता की नियति स्वीकारने के लिए बाध्य किया जाए। वर्ण व्यवस्था के प्रवर्तक जानते थे कि इस बुनियाद पर उनके द्वारा बनाया गया धर्म किसी को हजम नहीं होगा इसलिए उन्होंने सनातन धर्म को एक बंद धर्म बनाया जिसमें न तो कोई बाहर का प्रवेश कर सकता है और जिसमें से अगर कोई बाहर हो गया तो भीतर नहीं आ सकता तो यह उनकी अपनी परिस्थितियों और अपने लक्ष्यों के अनुरूप था। इस कारण इस प्रवृत्ति को यह कहकर कि हम दूसरों पर अपना धर्म थोपने वाले नहीं रहे महिमा मंडित करना औचित्यपूर्ण नहीं है।
अब बात रही यह कि जिसे लोग यह समझते हैं कि यह दुनिया को बेहतर बनाने का रास्ता है उसका हामी सारे लोगों को बनाना उनके लिए लाजिमी है तभी तो उनके पैगंबर के विचारों के अनुरूप आदर्श संसार बन पाएगा। फिर वह पैगंबर राजनीतिक भी हो सकता है और धार्मिक भी। माक्र्सवादी जब चीन पर काबिज हो गए तो उन्होंने अपने पैगंबर यानी माक्र्स के अनुरूप चीन बनाने में सबसे बड़ी बाधा बुर्जुवा समाज को समझी। इस नाते उन्होंने सांस्कृतिक क्रांति में बुर्जुवा समाज का निर्ममता से दमन किया। धार्मिक व्यवस्थाओं में भी यही हुआ। हालांकि न तो चीन में माक्र्स के वर्गविहीन समाज का यूटोपिया साकार हो पाया। न ही धार्मिक निजामों में उनके पैगंबर और प्रभु पुत्रों के सपनों का संसार कायम हो पाया है। यह एक अलग बात है लेकिन सत्य यह है कि जिन्हें पूरी दुनिया को बेहतर बनाना था उन्होंने इसके लिए अपने से असहमत लोगों को राजीकुराजी अपने मत में दीक्षित करने पर जोर लगाया तो इसमें कुछ अनुचित नहीं था। दूसरी ओर हम बेहतर दुनिया के लिए नहीं सामाजिक उपनिवेशवाद के अपने गढ़ को बचाने के लिए सूत्र गढ़ रहे थे जिसके कारण हमारा उद्योग में ऐसी कशिश का अभाव लाजिमी ही था।
इसी के साथ यह बात उठती है कि आज हम जब घर वापसी का उपक्रम करते हैं तो हमें यह विचारना होगा कि क्या हम इस स्थिति में हैं कि सनातन धर्म अपने उक्त मूल लक्ष्य से विमुख होकर नए लक्ष्य को अपनाए जो न्याय संगत हो और समकालीन अवधारणाओं के अनुरूप हो। इसमें हमारी सीमाएं बहुत स्पष्ट हैं। आज भी सनातन समाज में इतनी कट्टर स्थिति है कि अगर कोई गैर धर्म में चला गया व्यक्ति या समूह अगर वापिसी चाहे तो उसे अपने बेटे-बेटियों के लिए रिश्ते ढूंढने में नाकों चने चबाने पड़ेंगे। यहां तक कि अगर वाल्मीकि समाज के लोग किसी जमाने में दूसरे धर्म की दीक्षा लेने की गलती कर बैठे हों और आज वे वापस आना चाहें तो वाल्मीकि समाज के लोग तक उनसे रिश्ता जोडऩे को कदापि तैयार नहीं होंगे। ऐसा नहीं है कि जो लोग घर वापिसी करा रहे हों वह इस हकीकत को न जानते हों। उनके मन में एक भावना बनी हुई है कि दूसरे धर्मों के जो राष्ट्र बने उनमें गैर धर्म वाले दोयम दर्जे के नागरिक समझे गए। हालांकि ऐसा करने के पीछे कोई तानाशाही या अतिवाद न होकर एक लाजिक है पर इससे क्या। आज दुनिया बदल चुकी है। धार्मिक राष्ट्र राज्य भी समानता व लोकतंत्र पर आधारित व्यवस्था वाले राज्यों में तब्दील हो रहे हैं लेकिन संघ परिवार के लिए इतिहास की घड़ी की सुई जहां की तहां थमी हुई है। भारत में जो कभी नहीं हुआ यानी कभी धार्मिक राज कायम नहीं किया गया उसे दूसरों की देखादेखी इस युग में अवतरित करने का सन्निपात इन पर सवार है। संविधान इसकी इजाजत नहीं देता लेकिन उनकी अपनी व्याख्या है कि मोदी की जीत ने भारत को एक धार्मिक राष्ट्र में बदलने का नया संविधान कायम कर दिया है। धार्मिक राष्ट्र के चरित्र के नाते गैर धर्म के लोगों को यह एहसास कराना जरूरी है कि वे अब इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक हो गए हैं। संघ परिवार के लोग घर वापसी की आड़ में मतांतरित हिंदुओं को मोहरा बनाकर इसी उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं। उनका घर वापसी करने वालों का क्या हश्र होगा इससे कोई लेनादेना नहीं है।
जहां तक इस आशंका का प्रश्न है कि अगर ईसाई और मुसलमान बने रहे तो देश टूट जाएगा तो यह भी एक बहुत बड़ी खामख्याली है। यह देश जब एक धर्म के तहत परिचालित था तब कभी राजनीतिक रूप से अखंड नहीं रहा। जहां तक मतांतरित ईसाइयों और मुसलमानों का सवाल है वे धर्म बदलने के बावजूद भी आज भी ऐसे भारतीय हैं कि दुनिया के दूसरे देशों में उनके धर्म के लोग उनको आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते। इस्लाम और ईसाइयत को भारत में फैलाने के लिए अपने आप में कितनी तब्दीलियां करनी पड़ीं। इससे यह बात समझी जा सकती है। सोलहवीं शताब्दी में मदुरई को केेंद्र बनाकर एक इटालवी पादरी राबर्ट डिनो विली ने लगभग एक लाख हिंदुओं का धर्मांतरण कराया लेकिन यह काम वह तब कर सका जब उसने अपने आपको घोषित किया कि वह रोम में रहने वाले ब्राह्म्ïाणों का आखिरी वंशज है। उसे बाइबिल को पांचवां वेद घोषित करना पड़ा। अपने आपको उसने आखिरी तक हिंदु आडंबरों से ओतप्रोत रखा। उसके तरीकों की कभी मान्यता न तो ईसाई विश्व में पहले हो पाई न आज हो सकती है। बाबा साहब अंबेडकर ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि लगभग सभी धर्मांतरित ईसाई पूजा-अर्चना में हिंदु पद्धति को अपनाए हुए हैं। यह साबित करता है कि भारतीयता की जड़ें कितनी गहरी हैं जो धर्म परिवर्तन के बावजूद भी नहीं बदल पातीं। इस कारण हिंदुस्तानी मुसलमान और हिंदुस्तानी ईसाई शेष इस्लामिक विश्व अथवा ईसाई विश्व में खप ही नहीं सकता। उसके द्वारा भारतीयता के अस्तित्व को खतरे की बात नितांत काल्पनिक है। जहां तक आदिवासियों की बात है उनके हर कबीले का अपना कुलदेवता है। उनके अपने टोटके हैं। भारतीय संविधान में लिखा गया है कि अनुसूचित जातियां माने वे आदिवासी जो सनातन धर्म के तहत बनाई गई वर्ण व्यवस्था में से किसी वर्ण से नहीं आते। उनका संस्कृतिकरण दुनिया बदलने के साथ-साथ होना था। यह काम सनातनियों ने इसलिए नहीं किया क्योंकि उनके धर्म ध्वजा वाहक धर्म के लिए समाज द्वारा उन्हें सौंपी गई जायदाद से निजी अयाशियां करना चाहते हैं जबकि ईसाई संतों ने पूरी निष्ठा के साथ धर्म के लिए मिले चंदे का उपयोग हृदय परिवर्तन में किया। उन्होंने धन का ही सही इस्तेमाल नहीं किया बल्कि लोगों का दिल जीतने के लिए उनके बीच कष्टपूर्ण जीवन में रहना भी गवारा किया। आप कहें कि दूसरे लोग अभाव और अनगढ़ स्थितियों में रह रहे लोगों की परवाह न करें तो यह नहीं हो सकता। ऐसा करना तो अन्याय भी है। जब संघ के निष्ठावान प्रचारकों ने ईसाई मिशनरियों की तरह वनवासियों के बीच में काम किया तो वे उनकी ईसाई धर्म में सामूहिक दीक्षा पर लगाम लगाने में भी सफल हुए।
इस कारण जरूरत इस बात की है कि अगर भारत को एक बेहतर देश बनाना है तो अपने धर्म को हमें धार्मिक बनाने की मशक्कत सबसे पहले करनी पड़ेगी। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है धर्म की पहली पहचान समता का मूल्य है। वर्ण व्यवस्था को तिलांजलि देकर समता को सनातन धर्म के केेंद्र में लाएं उसे ईसाइयों की तरह दीनदुखियों की सेवा का धर्म बनाएं। जहां तक धर्मांतरण का सवाल है यह आसान नहीं होता। जो लोग सनातन धर्म में बुराई देखते हैं वे भी अपना घर छोड़कर जाना गवारा नहीं कर रहे और न करेंगे इसलिए एक दिन हिंदु धर्म समाप्त हो जाएगा। ऐसा कहने वाले इंसानी फितरत के जानकार नहीं हैं। धर्मांतरण, लव जिहाद, दूसरों के पूजा स्थलों को अपना बताकर ध्वस्त करने की कोशिश करना यह न तो मोदी सरकार के हित में है और न ही भारत राष्ट्र राज्य के हित में। मोदी ने जैसी फसल बोई है वैसी ही उन्हें काटनी पड़ रही है। संघ परिवार को सद्बुद्धि देने के लिए अब उन्हीं को अपने नेतृत्व कौशल का परिचय देना पड़ेगा।

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