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आश्चर्यजनक लेकिन सत्य अटल जी मेरे रूममेट

मुक्त विचार
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पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेई के राजनीतिक सफरनामे का मैं बहुत कायल नहीं हूं लेकिन इसके बावजूद उन्हें भारत रत्न की घोषणा से मुझे अपार खुशी हुई जिसके पीछे व्यक्तिगत कारण है। लोग इसे मजाक समझेंगे कि अटल जी मेरे रूम मेट रहे हैं लेकिन किसी हद तक यह बात सही है। मुझे यह बात तब पता चली जब हसमत वारशी की पुण्यतिथि के आयोजन में अटल जी मुख्य अतिथि के रूप में भिंड पधारे। उस समय जनता पार्टी की सरकार थी और अटल जी विदेश मंत्री थे। हसमत वारशी श्रद्धांजलि समारोह के संयोजक थे। मेरे अग्रज और भिंड के उस समय के दिग्गज पत्रकार वर्तमान में मध्य प्रदेश उपजा के अध्यक्ष रामभुवन सिंह कुशवाह। उन्होंने मुझे इस कार्यक्रम का सह संयोजक बनाया था। हसमत वारशी भिंड का एक मुस्लिम नौजवान था जो कि हर प्रशासन विरोधी आंदोलन में शौकिया तौर पर हिस्सा लेता था। इस कारण इमरजेंसी में अधिकारियों ने उसे बंद करा दिया। जेल में बीमारी के दौरान उसकी मौत हो गई। जनसंघ से उसका खास लेनादेना नहीं था लेकिन जनता पार्टी में जनसंघ घटक को अपनी मुस्लिम विरोधी छवि से निजात पाना था। इस कारण जनसंघ घटक ने हसमत वारसी को तपाक से लपक लिया। जनता पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन उज्जैन के कालिया दाह पैलेस में जनसंघ घटक की वीरेंद्र सकलेचा सरकार की मेहरबानी में हुआ था और जिसमें मुसलमानों के बीच अपनी छवि निखारने के लिए आयोजन स्थल को सकलेचा सरकार ने हसमत वारशी नगर नाम दिया था। उनके गृह जनपद भिंड में उनके श्रद्धांजलि समारोह को भी इतना महत्व दिया गया था कि अटल जी जो कि जनसंघ के उस समय तक शिखर पुरुष हो चुके थे के साथ-साथ मुख्यमंत्री सकलेचा के नेतृत्व में मध्य प्रदेश का पूरा मंत्रिमंडल उसमें हाजिरी देने आाया था लेकिन आज हसमत वारशी का नाम कोई नहीं जानता। जनसंघ घटक की उनके प्रति श्रद्धा मौका परस्ती व भ्रम की राजनीति का एक नमूना था। इस कारण उन्हें कुछ समय बाद भुला दिया जाना लाजिमी ही कहा जाएगा।
बहरहाल मैं चर्चा कर रहा था अटल जी के अपने रूममेट होने के बारे में। आदरणीय रामभुवन सिंह जी उन दिनों ग्वालियर चंबल संभाग में सबसे ज्यादा प्रसारित होने वाले दैनिक स्वदेश के स्टार जिला संवाददाता भी थे। उन्होंने अटल जी के आगमन के दिन खबर प्रकाशित की कि यह वही घर है जहां आज पत्रकार केपी सिंह रहते हैं लेकिन जहां कभी अटल जी का भी बचपन कुछ दिनों बीता था। 2-मदन मोहन गली भिंड के इस आवास में मेरा स्टडी रूम भी वही था जो कभी अटल जी का रहा होगा। इस नाते मैंने अपनी ओर से उनके साथ तभी से एक आत्मीय संबंध जोड़ लिया।
अटल जी को वैसे तो सीधा सरल राजनीतिज्ञ माना जाता है लेकिन जहां तक उनके राजनीतिक सफरनामे पर बारीकी से गौर करने का सवाल है वे बहुत ही निर्मम राजनीतिज्ञ हैं। उनके कैरियर में जो भी आड़े आया उसे उन्होंने बहुत तरीके से निपटाया और इसी कारण वे शिखर तक पहुंच सके। फिर वे चाहे बलराज मधोक हों या लालकृष्ण आडवाणी। अटल जी ने मौका पडऩे पर यह दुहाई देने में कसर नहीं छोड़ी कि वे आरएसएस के स्वयं सेवक होने पर गर्व महसूस करते हैं जबकि वास्तविकता में ऐसा नहीं है। अटल जी ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज में छात्रसंघ का चुनाव कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया के बैनर पर जीते थे। छात्र जीवन में उनका एक प्रेम प्रसंग भी रहा। इसमें उन्हें झटका झेलना पड़ा क्योंकि उनके दोस्तों में यह तय हुआ कि उनकी मित्र इंदु उससे विवाह करेंगी जो डिबेट में जीतेगा। इसमें अटल जी रामगोपाल बंसल से हार गए और इंदु उनसे विवाह करके इंदु बंसल बन गईं। वियोग में अटल जी ने ग्वालियर छोड़ा और कानपुर जा पहुंचे जहां भोजन व रहने की व्यवस्था की सुविधा के लिए वे संघ से जुड़े न कि वैचारिक लगाव के नाते।
संघ के प्रचारक बनकर जब वे बलरामपुर पहुंचे तो वहां के राजा ने जमींदारी उन्मूलन के कांग्रेस के कार्यक्रम से नाराज होकर 1957 में उसे चुनाव में नीचा दिखाने का निश्चय किया। राजा होने की अकड़ के नाते वे अपनी प्रजा से वोटों की याचना खुद के लिए करने को तैयार नहीं थे इसलिए उन्होंने नौजवान अटल विहारी वाजपेई को बलरामपुर से उम्मीदवार बना दिया। इस तरह पहली बार अटल जी का लोकसभा में पर्दापण उनकी अपनी ख्याति की वजह से नहीं राजा बलरामपुर के तत्कालीन राजा के प्रतिनिधि के तौर पर हुआ। उनके बारे में कहा जाता है कि लोकसभा में पहले ही भाषण में वे राष्ट्रीय नेता बन गए थे लेकिन अगर ऐसा होता तो 1962 में उन्हें फिर पराजय का मुंह न देखना पड़ता। इस बीच अटल जी जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय के सबसे करीबी हो गए। इस कारण सांसद न होते हुए भी उन्होंने पार्टी में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। दीनदयाल जी की संदिग्ध स्थितियों में मौत हुई और इस लांछन के कुछ छींटे अटल जी पर भी पड़े थे। बहरहाल इसके बाद संघ के खांटी आइडिलाग बलराज मधोक से उनका जनसंघ की अध्यक्षी हथियाने के लिए मुकाबला हुआ जिसमें उन्होंने जबरदस्त घाघपन का परिचय देकर मधोक को जमीन सुंघा दी। अटल जी की खुशकिस्मती थी कि इसी दौरान द्वारिका प्रसाद मिश्रा के रवैए की वजह से ग्वालियर राजघराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस के जबरदस्त खिलाफ हो गईं और उन्होंने कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए महल का पूरा खजाना खोल दिया। अटल जी को बैठे बिठाए एक प्रभावशाली फाइनेंसियल सपोर्टर मिल गया। साथ ही संसद में पहुंचने का सहारा भी राजमाता से उन्हें मिला। राजमाता ने अपनी रियासत की राजधानी ग्वालियर की सीट 71 के चुनाव में अटल जी के लिए आफर की जबकि खुद उन्होंने भिंड से चुनाव लड़ा। बंगलादेश निर्माण के तत्काल बाद हुए देश के पहले मध्यावधि चुनाव में जबकि इंदिरा जी की लहर चल रही थी मध्य भारत राजमाता के कारण जनसंघ का सबसे मजबूत गढ़ साबित हुआ। जनसंघ को पूरे देश में 22 सीटें मिली थीं जिनमें 11 सीटें अटल जी की सीट सहित मध्य भारत की थीं। बहरहाल यहां भी राजा बलरामपुर जैसी ही बात थी। महारानी सिंधिया लोकतांत्रिक राजनीति में बहुत ज्यादा भागीदारी नहीं कर सकती थीं क्योंकि उन्हें महारानी के रुतबे की परवाह जनतांत्रिक सरकार के किसी भी पद से ज्यादा थी। नतीजतन मध्य भारत की जीत को कैश कराने का पूरा मौका अटल जी को मिला। 1977 के चुनाव की तो खैर कोई बात ही नहीं है लेकिन 1980 में अटल जी दिल्ली में फिर कांग्रेस के केरल मूल के सीएम स्टीफन से चुनाव हार गए। 1984 में ग्वालियर में उनकी माधवराव सिंधिया के मुकाबले शर्मनाक पराजय हुई। इसी बीच जनता पार्टी के विभाजन के बाद उन्होंने गांधीवादी समाजवाद पर आधारित भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। यह संघ की छाया से संगठन को दूर ले जाने की कोशिश थी जिससे संघ उनसे इतना नाराज हुआ कि बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी के पक्ष में अघोषित फतवा जारी कर दिया। भारतीय जनता पार्टी को अपने पहले चुनाव में पूरे देश में केवल दो सीटें मिलीं। अटल जी डिप्रेशन में चले गए। इसके बाद संघ लाबी ने उन्हें किनारे कर दिया। उनके पुराने सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी धीरे-धीरे संघ पोषित नए राजनीतिक स्टार के रूप में उभरे। यहां तक कि 1989 में उन्हें चुनाव लडऩे का भी अवसर नहीं दिया गया। उन्होंने रामजन्मभूमि आंदोलन का विरोध करके संघ के खिलाफ खुली बगावत की। यह भी ध्यान दिला दें कि जब वे विदेश मंत्री थे तब भी इंडियन एक्सप्रेस में उनका एक लेख संघ की राजनीति के विरुद्ध प्रकाशित हुआ था।
1991 में उनकी राजनीति की मुख्य धारा में वापसी को एक संयोग ही कहा जाएगा। उनके पास तो एक सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र भी नहीं था। इस कारण वे फिर एक बार राजामाता के प्रभुत्व वाले मध्य भारत क्षेत्र में गए। उन्होंने विदिशा से लोकसभा के लिए नामांकन किया जो ग्वालियर रियासत के हिस्से में रहा है। साथ-साथ उन्होंने लखनऊ से भी पर्चा भरा था लेकिन अतीत के अनुभव की वजह से लखनऊ में सफलता को लेकर वे बहुत आश्वस्त नहीं थे। यह दूसरी बात है कि अटल जी दोनों जगह चुनाव जीते और इसके बाद उन्होंने विदिशा छोड़कर लखनऊ को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाए रखने का निश्चय किया। लालकृष्ण आडवाणी के मुकाबले उन्हें फिर आगे लाने में नरसिंहा राव का बड़ा योगदान रहा। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अटल जी भारतीय राजनीति के कितने बड़े सेटर नेता हैं। नरसिंहा राव ने उन्हें भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित करने के लिए भेजा। साथ-साथ उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद के बतौर भी नवाजा। इस बीच नरसिंहा राव ने अपने और अपने मित्रों के राजनीति प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने के लिए जो हवाला चक्रव्यूह रचा उसमें लालकृष्ण आडवाणी भी फंस गए।
बहरहाल सधे हुए कैरियरिस्ट होने के बाद भी अटल जी ने कुछ मामलों में असाधारण निर्णय क्षमता का परिचय दिया है जिसके कायल हम जैसे लोग भी हैं। विश्व हिंदू परिषद और धर्माचार्यों ने भाजपा के रायपुर अधिवेशन के पहले उन पर दबाव डाला कि वे विवादित स्थल पर ही अयोध्या में मंदिर बनाने का विधेयक पेश करें वरना संघ व उसके संगठन उनसे समर्थन वापस ले लेंगे। अटल जी ने उस मौके पर संविधान के प्रति वफादारी की प्रधानमंत्री पद ग्रहण करते समय ली गई शपथ को पूरी दृढ़ता से निभाया। उन्होंने कहा कि मैं कदापि ऐसा नहीं करूंगा। भले ही आप लोग कुछ भी कर लें। इसके बाद विहिप के विरोध के बावजूद मध्य प्रदेश हिमांचल प्रदेश और राजस्थान के चुनाव में भाजपा ने अभूतपूर्व बहुमत पाया। अटल जी को एहसास था कि वे उत्तर भारत के सबसे उच्च ब्राह्म्ïाण कुल वाजपेई आसपद के हैं और वे कुछ भी करें लेकिन हिंदुत्व से संवेदित होने वाला वोटर उनके खिलाफ किसी अशोक सिंघल की बात नहीं मानेगा। उस वोटर के लिए ब्राह्म्ïाण और वह भी वाजपेई सुप्रीम कोर्ट की तरह हैं। अटल जी कितने दूरंदेशी थे और उनकी यह धारणा कितनी सही थी यह सिंघल से उनकी टक्कर से तत्काल बाद हुए राज्यों के विधान सभा चुनाव परिणामों ने साबित कर दिया। अटल जी का दूसरा बड़ा योगदान तब रहा जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन तीन दिन की भारत यात्रा पर आए। कद काठी में उनका डीलडौल अटल जी से काफी ज्यादा था। इसके अलावा भारतीयों में अमेरिका व इंग्लैंड को लेकर एक हीनभावना आज तक कायम है। अमेरिका के सीनेटर तक के आगे भारत सरकार का सबसे शक्तिशाली पदाधिकारी तक बौनेपन से नहीं उबर पाता था लेकिन अटल जी ने वाजपेई होने के नाते जन्मजात बड़प्पन बोध की वजह से क्लिंटन को पूरे दौरे में ऐसा उठल्लू पर रखा कि वह वाजपेई को बड़े भाई बड़े भाई कहकर पुकारते ही नजर आए। यह महाशक्ति के आगे केवल अटल जी का व्यक्तिगत दबदबा नहीं था बल्कि अटल जी के इस कांफिडेंस लेबिल की वजह से पहली बार समूचे भारतीय जनमानस को बुलंद आत्मविश्वास मिला।
नरेंद्र मोदी खांटी संघी हैं। प्रश्न यह हो सकता है कि जब अटल जी की विश्वसनीयता संघ के अंदरखाने में संदिग्ध रही तो फिर मोदी सरकार ने उनको भारत रत्न क्यों दिया। इसका उत्तर साफ है अटल जी व्यक्तिगत आचरण में कुछ भी रहे हों लेकिन वे राजनीति में यथास्थिति के सबसे बड़े संबल साबित हुए जिसकी वजह से उनको महिमामंडित करके संघ अपने कई लक्ष्य साध सकता है। दूसरी बात यह है कि गांधी से लेकर संघ के दूरदर्शी विचारक तक जानते हैं कि वर्ण व्यवस्थावादी चेतना की वजह से भारतीय जनमानस को स्थाई रूप से प्रभाव में लेने के लिए किसको प्रतीक बनाया जाना चाहिए। गांधी जी ने इसी कारण सबको छोड़कर पं. जवाहर लाल नेहरू को चुना था तो संघ ने सभी बातों को भुलाकर पं. अटल विहारी वाजपेई को।

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