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इस्लाम और विभिन्न धर्मों के बीच सह अस्तित्व

मुक्त विचार
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आज पूरा संसार धार्मिक आधार पर वर्चस्व के लिए हो रहे विग्रहों से आक्रांत है। इसमें सबसे ज्यादा चर्चा सभी जगह इस्लाम की हो रही है। पैगंबरे इस्लाम हजरत मुहम्मद साहब की यौमे पैदाइश के मौके पर इस्लाम को लेकर छिड़ी बहस की थाह टटोलना पूरी तरह प्रासंगिक कहा जोएगा। इस्लाम में कहा जाता है कि दूसरे धर्म के साथ सह अस्तित्व की कोई गुंजाइश नहीं है। इसके लिए इस्लाम की दुनिया के एक मिथक दारुल इस्लाम बनाम दारुल हरब का हवाला दिया जाता है।
लेकिन अगर इस्लाम के इतिहास को देखें तो यह मिथक न्याय संगत नहीं लगता। हजरत मुहम्मद साहब ने दूसरे मजहबों को नकारा नहीं है बल्कि उन्हें इस्लाम में जज्ब करने की कोशिश की है। उन्होंने घोषित किया था कि दुनिया में विभिन्न जगहों पर विभिन्न धर्मों के जो महापुरुष या अवतार पैदा हुए वे सभी मेरी ही तरह अपने समय में अल्लाह के भेजे हुए रसूल थे। मुहम्मद साहब का कहने का मतलब यह था कि उन्होंने अपने समय जो उपदेश दिए या हिदायतें बताईं वे ईश्वरीय मंशा की अभिव्यक्ति होने की वजह से मान्य होनी चाहिए। ऐसी अवधारणा के रहते यह कल्पना कैसे की जा सकती है कि इस्लाम में विभिन्न धर्मों के बीच समन्वय और सह अस्तित्व की गुंजाइश नहीं है।
मुहम्मद साहब ने अपने धर्म का नामकरण जानबूझकर इस्लाम किया। हर धर्म लोगों के लिए आनंद से भरी खुशहाल दुनिया बनाने का दावा करता है। खुशहाली अमन के बिना मुमकिन नहीं है। इस्लाम के मायने हैं अमन रहा। इससे स्पष्ट है कि मुहम्मद साहब ने नए मजहब में सबसे ज्यादा जोर शांति पर दिया। समाज में समय-समय पर जब कुरीतियों का बोलबाला होता है। पुरानी मान्यताएं नए संदर्भ में सड़ीगली हो जाती हैं। रूढिय़ां लोगों के जीवन की दुश्वारियों का कारण बन जाती हैं तब मूर्ति भंजक व्यक्तित्व समाज के उद्धार के लिए पैदा होते हैं। मूर्ति भंजक का ही पर्याय क्रांतिकारी है। मुहम्मद साहब भी अरब के ऐसे ही परिवेश में नमूदार हुए। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे स्वयं अरबी समाज के पुजारी कुल कुरैश वंश का प्रतिनिधित्व करते थे। जो काबा के मंदिर में पूजा कराता था। इस नाते उसे अरब के समाज में अलग सम्मान प्राप्त था और उसे पूजा में आने वाले चढ़ावे में अच्छा खासा हिस्सा मिलने की वजह से अपनी संपन्नता बढ़ाने का मौका भी हासिल था। इसके बावजूद उन्होंने अरब की परंपरागत धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया। उन्होंने अपने को लोगों के सरोकारों से जोड़ा। कुलीन वंश से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने नए धर्म को जनोन्मुखी बनाया। उन्होंने कहा कि आदमी को खुदा के अलावा किसी के सामने सिजदा नहीं करना चाहिए। दबेकुचले आवाम को खुद्दारी के जज्बे से लवरेज करने में उनका यह मंत्र बेहद कारगर सिद्ध हुआ जिससे सामान्य जनता उनकी ओर आकर्षित हुई। उसी की बदौलत उन्होंने अरबों के परंपरागत धर्म से जुड़े शक्तिशाली अभिजन वर्ग को परास्त करके तेरह वर्ष के मदीना के अपने निर्वासन को समाप्त कर मक्का में वापसी की। मेहनतकश वर्ग को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने इस्लाम में सूदखोरी को हराम घोषित किया। उन्होंने बंदिशों के जरिए इंसानी किरदार को मांजने की जो प्रक्रियाएं धर्म में विकसित कीं उसकी वजह से उनके अनुयायियों में बुलंद हौसला पनपा। मुहम्मद साहब ने खोखले आदर्शवाद की बजाय दृढ़प्रतिबद्धता का गुण अपने अनुयायियों के सामने रखा। ईमान के रास्ते पर चलने में रुकावट डालने वालों के खिलाफ वैचारिक और शारीरिक प्रतिरोध को ही उन्होंने जेहाद का नाम दिया। इस्लाम को हिंसा का धर्म मानने वालों को उसकी कोमलता का वह पक्ष जरूर देखना चाहिए जिसके तहत उसमें बेटे-बेटियों की शादी से लेकर किसी भी मौके पर तड़क-भड़क दिखाने से बाज आने की हिदायत इसलिए दी गई है ताकि किसी गरीब आदमी की आह यह सोचकर न निकल जाए कि काश उसके पास भी दौलत होती तो वह भी अपने बेटे-बेटी की शादी में ऐसे ही अरमान निकालता। कमाई का एक हिस्सा समाज की भलाई के कामों के लिए निकालने के मशविरे को उन्होंने अनिवार्य फर्ज बनाया। वास्तव में इस्लाम दूसरों का बलिदान लेने का नहीं बल्कि अपनी कुर्बानी देने का मजहब है। जब इस्लामी अकीदतमंद हज पर जाते हैं तो उन्हें यही पाठ पढ़ाया जाता है। बंदिशों पर बहुत अधिक जोर देने की वजह से इस्लाम उपभोक्तावाद की राह का सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है। इसी कारण उपभोक्तवाद का इबलीस इस्लाम के कुछ बंदों को बहका कर मजहब को बदनाम करने के लिए दहशतगर्दी और अंधी हिंसा के रास्ते की ओर ले जा रहा है। औरतों और बच्चों तक का कत्ल करने की करतूत में इस्लाम का चेहरा नहीं देखा जा सकता। भले ही शैतान का सूचना और संचार साम्राज्यवाद इसी तरह का प्रस्तुतीकरण कर रहा हो। इस्लाम को उसकी मूल आत्मा में ही परखे जाने की जरूरत है और हजरत मुहम्मद साहब की यौमे पैदाइश का दिन आज के वक्त में इसकी जरूरत बहुत शिद्दत से महसूस कराता है।

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