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बसपा सुप्रीमो मायावती के खिलाफ एक बार फिर दलितों तक से रुपया लेने के बाद चुनावी टिकट थमाने का आरोप सामने आया है। हालांकि यह आरोप कोई नया नहीं है। जब अखिलेश दास ने यह आरोप लगाया था उसके बहुत पहले से बच्चा-बच्चा मायावती की इस रीति-नीति से परिचित था लेकिन लगातार यह आरोप दोहराए जाने से अब मायावती की छवि इस मुद्दे पर तेजी से दरकने पर आ गई है।
वर्ण व्यवस्था के कारण दलित समाज को जिस तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ा वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को छू सकता है। अंततोगत्वा दलितों ने ईश्वर के नाम पर की जा रही इस ज्यादती के खिलाफ बगावत की। दलित महापुरुषों ने अपने समाज को मानवीय अधिकार दिलाने के संघर्ष में बहुत कुछ सहा जिसे देखते हुए हर निर्विकार व्यक्ति को उनके प्रति असीम श्रद्धा होती है लेकिन दलित संघर्ष का मुख्य तत्व नैतिक स्तर के मामले में इस लड़ाई के योद्धाओं का स्थान बहुत ऊंचा होना रहा है। न्याय के लिए किया जाने वाला युद्ध ही क्रांति कहलाता है और क्रांति के लिए उसके अगुवाकारों में व्यक्तिगत पवित्रता और उद्देश्य के लिए समर्पण का भाव पहली शर्त है। इस मामले में बाबा साहब अंबेडकर से लेकर मान्यवर कांशीराम तक एक मिशाल है। बाबा साहब अंबेडकर वायसराय के श्रम मंत्री सैद्धांतिक कारणों से रहे। इस दौरान उन्होंने श्रमिकों के अधिकारों के लिए जो कानून बनाए वे मील के पत्थर साबित हुए लेकिन ऊंचे पदों पर रहने के बावजूद और जबकि बाबा साहब की किताबों लेखों की मांग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थी जिससे जाहिर है कि उन्हें अच्छी खासी रायल्टी मिलती होगी। इसके बावजूद जब उनका देहावसान हुआ तो उनके पास कुछ नहीं था उल्टे बीस हजार रुपए का कर्जा लदा था। खुद कांशीराम ने मिशन के लिए जमकर चंदा किया। यहां तक कि बाद में जयंत मल्होत्रा जैसे पूंजीपतियों को भी अपने साथ जोड़ा पर कांशीराम ने पार्टी फंड का एक रुपया अपने व अपने परिवार की अयाशी पर खर्च नहीं किया। यही उनकी नैतिक ताकत थी जिससे उन्होंने अपने असहाय और कातर समर्थकों के जरिए समाज के प्रभावशाली तबके को सशक्त चुनौती दी और काफी हद तक अपने संघर्ष में सफलता प्राप्त की।
लेकिन मायावती का नैतिक स्तर न तो आर्थिक मामलों में ठीक है और न ही वे उद्देश्य के प्रति ईमानदार हैं। शुरू में दलित समाज के सामने मजबूरी थी। सवर्ण सामंतवाद के मुकाबले के लिए दलित सामंतवाद कहीं न कहीं जरूरी था। तानाशाह मायावती इस कारण तात्कालिक तौर पर दलित समाज की आवश्यकता बन गईं लेकिन उन्होंने न सिर्फ पैसे की नैतिकता को ताक पर रख दिया बल्कि निजी सत्ता मजबूत करने के लिए उन्होंने सामाजिक मिशन को भी कुर्बान कर दिया। वहां तक गनीमत थी कि वे कुछ जगहों पर सवर्ण उम्मीदवारों को टिकट बेचतीं ताकि पार्टी की सफलता के लिए साधन जुटा सकेें लेकिन इसमें भी उन्हें ख्याल रखना था कि जिन्हें वह हाथी का निशान थमा रही हैं कम से कम सामाजिक मामलों में वे कांग्रेस जैसी पार्टियों से तो ज्यादा उदार हों लेकिन मायावती ने ऐसी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं खींची बल्कि उन्होंने टिकट की बिक्री में सबसे ज्यादा वरीयता संघ परिवार से जुड़े सत्ता लोलुप सवर्णों को दी जिनके मन में दलितों के प्रति कूट-कूट कर नफरत भरी हुई थी। मायावती ने यह भी प्रयास नहीं किया कि पार्टी में रहकर उनका ब्रेन वाश हो बल्कि उन्होंने उन्हें छूट दी कि वे अपनी दलित विरोधी भावना को और मजबूत बनाएं। यही नहीं उन्होंने उन क्षेत्रों में भी सवर्णों को टिकट बेच दिए जहां बहुजन का प्रयोग पहले से बहुत कारगर था। मायावती की इस अंधी नीलामी में आंदोलन की बहुजन भावना बिखर गई। अपने सवर्ण प्रेम में मायावती ने समान रूप से वर्ण व्यवस्था से पीडि़त रहीं पिछड़ी जातियों को परे ढकेल दिया। एक तरह से मायावती ने वर्ण व्यवस्था विरोधी धुरी को अपने लालच में चकनाचूर कर डाला।
अब जबकि वे चार बार उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ हो चुकी हैं और इस बीच दलितों में भी पर्याप्त नागरिक चेतना का विकास हो चुका है तब उनका काम सिद्धांत विहीन ढर्रे और पार्टी में उनके एकतंत्रीय प्रभुत्व से चलने वाला नहीं है। हाल में उन्होंने पार्टी के राज्य सभा सदस्य व पूर्व कोआर्डिनेटर जुगल किशोर को भी बिना किसी प्रगट कारण के पार्टी से निष्कासित कर दिया। जुगल किशोर इसके बाद जिस तरह से मायावती पर हमलावर हुए हैं उससे उनके लिए मुश्किल पैदा हो गई है। हालांकि मायावती अभी यह सोच सकती हैं कि उन्होंने इसी तरह रामाधीन, आरके चौधरी, फूल सिंह बरइया जैसे तपेतपाए मिशनरी दलित नेताओं को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेेंका था लेकिन वे उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए थे पर तब स्थितियां दूसरी थीं। आरंभ में तानाशाह नेता दलित समाज के लिए इतिहास की अनिवार्यता थी लेकिन अब संदर्भ बदल चुका है। अगर मायावती अपने तौरतरीकों में बदलाव नहीं लातीं तो दलितों के सामने कोई नया विकल्प सामने आ सकता है। हालांकि सामाजिक जड़ता को खत्म किए बिना देश में प्रगति के नए युग की शुरूआत नहीं हो सकती जिसकी वजह से वर्ण व्यवस्था विरोधी आंदोलन लाजिमी है लेकिन इसके लिए ऐसा नेतृत्व चाहिए जो प्रतिबद्धता में ईमानदार हो और वर्ण व्यवस्था से पीडि़त सारे तबकों को साथ लेकर सामाजिक न्याय की लड़ाई को बिना कोई समझौता किए हुए तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए कटिबद्ध रहे।
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