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भारत के मूल धर्म के अस्तित्व को बचाने की मासूम चिंता

मुक्त विचार
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उरई के एक छात्र संजय बौद्ध ने अपनी फेसबुक पर पोस्ट डाली है कि वह उस धर्म के विरोध में जरूर लिखेगा जिसने उसकी जाति को अपमानित करने वाले प्रावधान रचे। बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम माझी जातिगत प्रभुत्व के खिलाफ लगातार तिक्त बयान दे रहे हैं। आजादी के पहले डा. भीमराव अंबेडकर तो सामाजिक उपनिवेशवाद की व्यवस्था से इस कदर आहत हुए थे कि उन्होंने कहा था कि यह उनके वश में नहीं था जो वे हिंदु धर्म में जन्म नहीं लेते लेकिन यह उनके वश में है कि वे हिंदु होकर मरेंगे नहीं। अंततोगत्वा जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने धर्मांतरण कर लिया। यह दूसरी बात है कि उन्होंने विदेशी धरती से प्रवर्तित किसी धर्म को स्वीकार करने की बजाय इसी धरा के बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
सांप्रदायिक भावना से ओतप्रोत लोग यह कहते हैं कि इस देश में अतीत में तलवार के बल पर हिंदुओं को जबरदस्ती धर्मपरिवर्तन के लिए बाध्य किया गया। हालांकि मुस्लिम शासन का दौर काफी लंबा रहा है और इसके बाद अंग्रेजों के यानी ईसाइयों के शासन में भी धर्म परिवर्तन का दौर चला लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि आज भी इस देश की पचासी प्रतिशत आबादी अपने पुराने धर्म से ही बंधी हुई है। अगर बाध्यकारी धर्म परिवर्तन के माध्यम से इस देश में किसी धर्म का सफाया हुआ है तो वह बौद्ध धर्म है। बौद्ध धर्म का उद्घोष भारत की धरती से ही हुआ था और इसके बाद लगभग पूरा देश बौद्धमय हो गया था। यहां तक कि आसपास के देशों में भी बौद्ध मत का प्रभुत्व स्थापित हो गया था। इसके बावजूद पुष्य मित्र शुंग के शासन से बौद्धों के सफाए की जो मुहिम शुरू हुई उसका नतीजा यह निकला कि मुस्लिम शासन का दौर शुरू होने तक यहां से बौद्ध धर्म का लगभग पूरी तरह सफाया हो गया। यह काम किसने किया इतिहास में यह बात भली तौर पर स्पष्ट है लेकिन यहां इसे विवाद का विषय बनाना मुद्दा नहीं है।
मुद्दा यह है कि मोदी सरकार के पदारूढ़ होने के बाद देश के मूलधर्म को बचाने और उसके सफाए की साजिश रचने वाले धर्मों को दंडित करने का जो अभियान देश भर में शुरू हुआ है उसमें मूल धर्म के अल्पसंख्यक वर्ग की ही भागीदारी है। दलित व पिछड़े जो कि बहुसंख्यक हैं वे न केवल इसके लिए उत्साह नहीं दिखा रहे बल्कि मूल धर्म के प्रति विद्रोही भावनाएं भी व्यक्त कर रहे हैं। जो जातियां मूल धर्म के समर्थन में हैं उनमें भी एक बड़ा प्रगतिशील तबका इस अभियान के प्रति आपत्ति जता रहा है। साथ ही वह इस बात पर बल दे रहा है कि मूल धर्म का पतन जिन कारणों से हुआ उनमें सुधार के तकाजे की आवाज को दबाया नहींजाना चाहिए। भले ही मूल धर्म का समर्थक कट्टरवादी तबका उनकी इस विवेकपूर्ण सलाह के कारण उन्हें अपने समाज का विभीषण अथवा दूसरे धर्मों का तुष्टीकरण करने वाला साबित करने में जुटा हो।
दरअसल भारत में धर्म के मामले में लोगों का माइंडसेट जिस तरह से लचीला बना हुआ है उसे वे चाहकर भी बदल नहीं सकते। उन्हें मालूम है कि एकत्ववादी धर्मों को वे पचा नहीं पाएंगे। इस कारण वे भले ही मूल धर्म की आलोचना करें लेकिन उन्हें भी डा. अंबेडकर की तरह ही दुनिया के दूसरे हिस्सों से प्रवर्तित धर्मों में शामिल होना गवारा नहीं है भले ही वे विदेशी धर्मों में तमाम कमियों के साथ-साथ बहुत अच्छाईयों को भी देखते हों। भारतीय धर्म संस्कृति की मूल धारा के वास्तविकत शुभचिंतकों को फिक्र इस बात की है कि वैश्वीकरण के इस युग में अगर उन कुरीतियों और हठधर्मी विधानों में परिवर्तन न किया गया जो किसी भी धर्म के तात्विक रूप के लिए कलंक का विषय हैं तो वैश्विक पटल पर भारतीय समाज को लगातार शर्मसार होने की स्थिति का सामना करना पड़ेगा और इसके कारण उपजने वाली हीनभावना कभी भी उन्हें बुलंदी की ओर अग्रसर नहीं होने देगी। आखिर इस युग में कैसे यह स्वीकार किया जा सकता है कि एक इतना बड़ा जुआरी जो अपनी पत्नी तक को जुए में दांव पर लगा दे उसे धर्मराज यानी धर्म के मानक के रूप में हमारी संस्कृति में परिचित कराया जाए। इस सृष्टि के विधान को रचने वाले ब्रह्म्ïाा तो स्वाभाविक रूप से नैतिकता और संयम के हिमालय हैं। उनके लिए रची गई यह कथा कैसे स्वीकार की जा सकती है कि उन्होंने अपनी पुत्री के चरित्र को भ्रष्ट करने का कार्य किया था। जिन कथाओं में बीतराग ऋषियों के चरित्र को स्खलित होते दर्शाया गया है उन कथाओं को स्वीकारने का मतलब है कि अपने ही हाथों से अपनी ही संस्कृति को कलंकित करना। निश्चित रूप से यह कथाएं मूल धर्म के शुभचिंतकों द्वारा नहीं लिखी गई हैं। इस कारण इन कथाओं का विरोध करने पर इस बात से नहीं डरा जा सकता कि धर्म को बंधक बनाए कुछ लोग आपको धर्मद्रोही घोषित करने लगेंगे।
कोई भी समाज अपने नैतिक बल से दूसरे समाजों पर बढ़त हासिल करता है। धर्म की आड़ में अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए समाज को नैतिक पतन की खाई में धकेलने का षड्यंत्र अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। देश की लंबी गुलामी की यही वजह रही है। किसी को जन्म के आधार पर पराक्रमी, ज्ञानी और किसी को जन्मजात हेय मानने का सिद्धांत मानवता विरोधी है। ऐसे सिद्धांतों के रहते हुए किसी समाज की नैतिक सबलता की आशा नहीं की जा सकती। अपरिग्रह, त्याग, करुणा यह किसी भी धर्म के बुनियादी गुण हैं। धर्म की आड़ में यह स्थापित करना कि ईश्वर सर्वाधिक धन संचय करता है, वह सर्वाधिक वैभव लोलुप है धर्म की आत्मा की हत्या करना है। इस कारण अगर धर्म के सशक्तीकरण की कोई मुहिम चलानी है तो उसके मूल गुण और स्वभाव पर बल देना होगा जिसके लिए तमाम ढोंग, आडंबरों को नकारना अपरिहार्य है। भारत का मूल धर्म वास्तव में नैतिक प्रतिमानों के मामले में शिखर पर था। अगर एक बार फिर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों का बलिदान करके उसे उसी नैतिक शिखर पर स्थापित करने का संकल्प लिया जा सके तो भारतीय समाज दुनिया का सबसे शक्तिशाली समाज बन सकता है। धर्म के नाम पर अनाचार को संरक्षण प्रदान करके इस अभिलाषा की पूर्ति नहीं हो सकती।

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