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ओबामा की नसीहत कितनी आंखें खोल पाएगी

मुक्त विचार
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वे मुझे मोदी कहते हैं और मैं उनके सीधे बराक कहकर पुकारता हूं। यह कहते हुए स्वयं को शक्तिशाली विश्व नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने की हसरत के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की जो कोशिश की ओबामा ने भारत से रवाना होने के ठीक पहले एक झटके में उस पर पानी फेर दिया। मोदी निश्चित रूप से ओबामा के इस कदम से सन्न होंगे लेकिन अब यह उनसे न निगलते बन पा रहा है न उगलते बन पा रहा है। दिल्ली में विधान सभा चुनाव के लिए मचे कोहराम के बीच गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाए गए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा को टं्रप कार्ड के रूप में कैश कराने की सत्तारूढ़ पार्टी की मंशा उजागर रही लेकिन ओबामा ने नई दिल्ली के सीरी फोर्ट स्टेडियम में आयोजित सभा में भारत के लिए नसीहतनुमा भाषण देकर बाजी पलट दी। ओबामा ने कहा कि भारत की सफलता तभी संभव है जब धार्मिकता के द्वंद्वों के आधार पर इसमें कोई बिखराव न आ पाए। उन्होंने साफ कहा कि भारत के हित में जरूरी होगा कि इस देश में यहां के संवैधानिक संकल्प के अनुसार सभी धर्मावलंबियों को अपनी आस्था का निर्वाह पूरी स्वतंत्रता से करने की छूट रहे। ओबामा के इस भाषण के पीछे किस बात की प्रतिक्रिया थी यह छिपी नहीं रही। मीडिया में ओबामा के कथन के पीछे लव जेहाद और घर वापसी जैसे मुद्दों पर संघ परिवार के उत्पात को तपाक से खुलकर बताया गया और मीडिया का यह आंकलन गलत भी नहीं था। इसी कारण भाजपा के नेताओं की हिम्मत नहीं हुई कि वे इस बात का प्रतिवाद करके मीडिया पर कोई प्रत्यारोप लगाते।
संभव है कि ओबामा का उक्त भाषण भारत के प्रति उनके सच्चे मैत्री भाव का परिणाम हो। कोई शुभचिंतक नहीं चाहता कि उसका मित्र गफलत में कुएं में गिर जाए। ऐसे मौके पर उसे आगाह करना मित्र धर्म है। दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि महाशक्ति के बड़प्पन के आडंबर के तहत ओबामा भारत और भारतीय नेताओं के प्रति आदर का ऊपरी प्रदर्शन कर रहे हों लेकिन मोदी ने जब उन्हें सरेआम बराक ओबामा कहा तो उनके डर को ठेस लगी हो जिसके जवाब में जाते-जाते वे मोदी को सबक सिखाने से न चूके हों। चीन की सरकारी मीडिया जो पहले अमेरिका और भारत के बीच गहराते रणनीतिक संबंधों से बौखलाई हुई थी उसने इस घटना के बाद अपना रुख बदल दिया है। वहां के सरकारी अखबर ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि भारत और अमेरिका के रोमांस को ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है। दोनों देश जब मिलते हैं तो बड़े-बड़े समझौतों पर सैद्धांतिक सहमति एक अनिवार्य कर्मकांड बन गया है लेकिन वे समझौते दोनों देशों की अपनी-अपनी सीमाओं की वजह से जमीन पर कभी नहीं उतर पाते। भले ही यह मूल्यांकन भारत के प्रति दुराग्रह से भरे एक देश का हो लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस कारण भारत और अमेरिका के बीच संबंधों की प्रगति को भावावेश से नहीं यथार्थ स्थितियों के आधार पर आंकना पड़ेगा।
जिस मुद्दे पर ओबामा ने भारत की कमजोर नस को झिंझोड़ा है उस पर तो गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी देश के नाम अपने संदेश में चेतावनी जारी करना जरूरी समझा जिसकी वजह से उन्होंने कहा कि धर्म का इस्तेमाल टकराव को बढ़ावा देने के लिए नहीं होना चाहिए। खुद मोदी भी मानते हैं कि संघ परिवार की हिंदुत्व के मुद्दे पर जल्दबाजी से उनके पैर जमने से पहले ही उखड़ सकते हैं इसीलिए वे पार्टी के सांसदों साध्वी निरंजन ज्योति से लेकर साक्षी महाराज तक को डपट चुके हैं। संघ के शिखर नेतृत्व से मिलकर कह चुके हैं कि या तो उन्हें विकास के एजेंडे पर काम करने का पर्याप्त अवसर दें अन्यथा वे इस्तीफा देने को तैयार हैं। संघ ने इसके बाद उन्हें आश्वास्त करने के लिए राजेश्वर सिंह जैसे अति उत्साही प्रचारकों के खिलाफ एक्शन लेने का काम किया है। यह बात दूसरी है कि इसके बावजूद स्थिति संभल नहीं पा रही। संघ परिवार को यह समझ में नहीं आ रहा कि उसका यह फतवा मान्य नहीं किया जा सकता कि अगर कोई भारतीय दूसरा धर्म अपना लेता है तो उसे या तो देश में रहने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए अथवा दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रहने के लिए उसको दंड स्वरूप मजबूर किया जाए। धर्म बदलने वाले भारतीय नागरिकों का देश पर उतना ही अधिकार रहना है जितना हिंदुओं का इस धारणा में संघ परिवार को विश्वास नहीं है। इस कारण वह बराबरी पर आधारित सहअस्तित्व साहचर्य को चोट पहुंचा रहा है।
एक आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में भारत इतना आगे बढ़ चुका है कि उसे अब एक धार्मिक राष्ट्र के रूप में परिवर्तित किया जाना संभव नहीं है। उसकी वर्तमान सामाजिक संरचना भी इसकी इजाजत नहीं देती। संघ परिवार को यह बात तभी समझ लेनी चाहिए थी जब संविधान समीक्षा समिति का गठन करके उसने संविधान को बदलने की कोशिश में मुंह की खाई थी। भारत का विश्व समुदाय में जो आदर और प्रभुत्व है वह भी इसी विशेषता की देन है। ओबामा ने अपने भाषण में भारत की इस अहमियत को भी रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि दोनों देशों में मैत्री का प्राकृतिक आधार है क्योंकि दोनों बहुलतावाद के बीच समानता की व्यवस्था को कायम रखने वाले राष्ट्र हैं।
आज पूरे यूरोप में आप्रवासन से जुड़ी आशंकाओं के चलते मुस्लिम विरोधी आंदोलन जोर पकड़ रहे हैं। फ्रांस में एक उपन्यासकार ने ऐसा उपन्यास लिखा है जिसमें 2022 तक फ्रांस में इस्लामिक हुकूमत कायम हो जाने की स्थिति को दर्शाया गया है। यह भले ही काल्पनिक हो लेकिन फ्रांसीसी समाज में अवचेतन में मुसलमानों को लेकर व्याप्त भय को दर्शाता है। चार्ली ऐब्दो में बार-बार पैगंबर साहब का कार्टून प्रकाशित करके मुसलमानों को चिढ़ाए जाने के पीछे कहीं न कहीं इन धारणाओं की भूमिका जरूर है। जर्मनी में मुसलमानों के खिलाफ पेगिडा आंदोलन शुरू किया गया है लेकिन यूरोप के राष्ट्रों की सरकारें इस दावानाल पर विस्तार के पहले ही पानी डालने के लिए सक्रिय हो गई हैं। जर्मनी में पेगिडा से जुड़े नेताओं के खिलाफ कदम उठाए जाने लगे हैं। पोप ने चार्ली ऐब्दो को परोक्ष में मुसलमानों की आस्था का सम्मान करने की सलाह दी है। उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निर्बाध नहीं हो सकती।
अब अमेरिका भी इस बात के लिए सावधान हो रहा है कि आतंकवाद के खिलाफ उसकी विश्वव्यापी मुहिम को मुसलमानों को ठिकाने लगाने की मुहिम के रूप में प्रस्तुत न होने दिया जाए। उसे मालूम है कि अमेरिका को मुसलमानों के खिलाफ युद्ध छेड़ देने की छवि बन जाने के कारण कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। हर समय सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सजगता के कारण अमेरिका में सामान्य जनजीवन लगातार अस्त-व्यस्त चल रहा है। पूरी दुनिया में अमेरिकन आशंकाओं के बीच जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर हो गए हैं। मुनाफाखोरी की हवस के चलते दुनिया भर के तेल भंडारों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश अमेरिका को विनाश के मुकाम पर ले गई है जिसकी वजह से जाने-अनजाने में अमेरिकी समुदाय ने पूरी दुनिया के मुसलमानों को अपना शत्रु बना लिया है लेकिन अब अमेरिका में अपनी इस छवि से उबरने की तीव्र छटपटाहट है। इस कारण भारत को उसने जो सलाह दी है उसमें नेक नीयती ही मानी जानी चाहिए। पाकिस्तान के पेशावर के सैनिक स्कूल में बच्चों के कत्लेआम के बाद पूरी दुनिया में विवेकशील इस्लामिक समुदाय आतंकवाद के खिलाफ खड़ा होने लगा है। इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है।
सदियों तक चले धर्म परिवर्तनों के अभियान के बावजूद अगर देश में अस्सी-पचासी फीसदी आबादी यथावत स्थिति में कायम है तो यह संघ परिवार की मेहरबानी की वजह से नहीं है बल्कि भारतीयों में धर्म को लेकर वैचारिक स्वतंत्रता की जो परंपरा है उसका चस्का इतना गहरा है कि कोई भी उस गंवाना नहीं चाहता। स्थिति तो यह है कि कई गरीब समुदाय अपने भोलेपन में दूसरे धर्मों को रस्मी तौर पर अपना जरूर बैठे थे लेकिन उनके परंपरागत रीतिरिवाजों में कोई अंतर नहीं आया था। उन रीतिरिवाजों से या अपनी जड़ से उनमें इतना मोह था कि अगर परंपरागत धार्मिक धारा में फिर लौटने की कोई गुंजाइश होती तो वे लोग सहर्ष ही जाने कब की घर वापसी कर गए होते। भारतीय धर्म की मुख्य धारा में उदारता और कट्टरता का अद्भुद विरोधाभासी संगम देखने को मिलता है। पहले तो यहां एक अराजक धार्मिक व्यवस्था नजर आती है लेकिन जो इससे बाहर हुआ उसके लिए इसकी खोल अकाट तौर पर बंद हो जाना कट्टरता की पराकाष्ठा है। बहरहाल मूल रूप से भारत की मुख्य धारा में सभी धर्मों के खरे आध्यात्मिक पहलुओं के प्रति न केवल श्रद्धा का भाव है बल्कि उन्हें आत्मसात करने का भी आग्रह है। बाजारवाद जो कि भोगवाद का दूसरा नाम है। अपरिग्रह, संयम, त्याग पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों का निषेधकर्ता है। इस निषेध को इस्लाम में ईमान के खिलाफ चलने के लिए मजबूर करने के बतौर माना गया है जिससे उसके द्वारा जेहाद अनिवार्य हो जाता है पर यह हिंसक और आतंकवादी जेहाद न होकर कुरान की शिक्षाओं के मुताबिक वैचारिक प्रतिकार का जेहाद होना चाहिए। हिंदुत्व का दर्शन भी इसका विरोधी कहां है तो फिर इतिहास की कुंठाओं का बदला वर्तमान में मुसलमानों से लेने का कुचक्र बनाने की बजाय बाजारवाद के कारण डिरेल हुई आध्यात्मिकता को पटरी पर लाने के लिए हिंदुत्व और इस्लाम मिलकर काम क्यों नहीं कर सकते। वैसे भी ओबामा के भाषण में यह संदेश निहित है कि आप ग्लोबल विलेज के युग में मनमाने तरीके से काम करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। जातीय, नस्लीय व धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्र के संचालन का ग्लोबल एजेंडा मेंडेटरी है वरना आपको वैश्विक बहिष्कार झेलना पड़ेगा जिसमें बर्बादी के अलावा आपके हाथ कुछ नहीं आएगा। ओबामा इस सरकार के देव तुल्य अतिथि के रूप में आए थे इस कारण उनके भाषण से ही सही अगर संघ परिवार में सद्बुद्धि आ जाए तो यह बहुत बेहतर होगा।

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