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एक दूसरे के प्रति नरम हो रही सपा और बसपा

मुक्त विचार
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भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार उत्तरप्रदेश में पक रही राजनीतिक सौहार्द की नई खिचड़ी को लेकर अन्दर ही अन्दर चौकन्ने हो रहे हैं। इसको लेकर भाजपा की कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया या गतिविधि दिल्ली विधानसभा चुनाव के घमासान में पूरा ध्यान लगा होने की वजह से सामने नहीं आ रही लेकिन इस चुनाव से फुर्सत पाते ही भाजपा में काउन्टर सरगर्मी देखने को मिल सकती है। यह सौहार्द सपा और बसपा के बीच खामोशी से आकार ले रहा है जो इसलिये अप्रत्याशित है कि दोनों पार्टियों में अभी तक कुत्ता और बिल्ली जैसा बैर रहा है।
जनता दल परिवार के महाविलय की प्रक्रिया लालू व नीतीश के सम्बन्धों में फिर से आयी खटास की वजह से खटाई में पडऩे लगी है जिससे भाजपा को सबसे ज्यादा सुकून मिल रहा है। जनता दल परिवार के बीच कई जटिलतायें हैं। जिसकी वजह से सैद्धांतिक सहमति के बावजूद शुरू से ही निष्पक्ष प्रेक्षक इनमें विलय के प्रस्ताव को बहुत व्यवहारिक नहीं मान रहे। इसके बावजूद मोदी की छा जाने वाली कुशलता से महाकाय होती जा रही भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों में उसकी चुनौती का मुकाबला करने के लिये एकजुट होने की भावना में कोई कमी नहीं आयी है। जनता दल परिवार में भले ही विलय न हो लेकिन इस मामले में किसी भी दल के पक्ष द्रोही होने की संभावना फिलहाल में नहीं है। उक्त अंडरस्टैंडिंग को विस्तार देने के लिये बसपा, बीजू जद व तृणमूल कांग्रेस को भी टटोला जा रहा है। यहां तक कि कांग्रेस में भी इस मामले में राष्ट्रीय पार्टी के गुरूर को भूलकर स्थितियों से समझौता करने की मन:स्थिति बन चुकी है।
बाढ़ के समय की इस स्वत:स्फूर्त एकता ने राजनीति में कई नई संभावनाओं के द्वार खोल दिये हैं। पश्चिमी बंगाल में अभी तक शत्रुता की हद तक प्रतिद्वंद्वी वाम दलों व तृणमूल कांग्रेस का नई स्थितियों में भाजपा को रोकने के लिये एक मंच पर आने का संकेत दुनिया के आठवें आश्चर्य के रूप में पहले ही सामने आ चुका है। गत वर्ष लखनऊ में हुए समाजवादी पार्टी के सम्मेलन की एक हलचल भी इस संदर्भ में गौरतलब है। मुलायम सिंह यादव ने जब सम्मेलन में भाषण करते हुए दिवंगत बीजू पटनायक का आभार मण्डल आयोग की रिपोर्ट सबसे पहले लागू करने के उनके द्वारा व्यक्त निश्चय का सर्वप्रथम समर्थन करने के लिये जताया तो लोगों को बड़ा अटपटा लगा। कुछ लोगों ने माना कि नेताजी बहक गये हैं क्योंकि कोई ऐसा संदर्भ नहीं था जिसमें बीजू पटनायक का स्मरण करने का प्रश्न उनके भाषण के तारतम्य में आ रहा हो लेकिन मुलायम सिंह ढाई घर की शतरंजी चाल के माहिर हैं। वे कोई बात खाली पीले में नहीं करते और कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना लगाने में तो उन्हें महारत हासिल है। उन्होंने बीजू पटनायक के अपने प्रति लगाव को बहुत ही कैलकुलेटिव ढंग से उक्त सम्मेलन के माध्यम से दर्शाया था ताकि नवीन पटनायक पर भविष्य में उन्हें अपनी ओर खींचने के लिये कमंद फेेंक सकेें।
गौरतलब है कि मोदी के खिलाफ महामोर्चा बनाने का बीड़ा सबसे पहले बिहार में उठाया गया जब जद यू, राजद व कांग्रेस ने मिलकर उपचुनाव लडऩे का फैसला किया और भाजपा को नियंत्रित करने की मंशा नतीजे में इस प्रयोग से काफी हद तक फलित हुई। इसके बाद यह सिलसिला आगे बढ़ाने का उत्साह छलकने लगा। सबसे पहले राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने यह पेशकश की कि बिहार में हम लोगों की तरह उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा को भी एकजुट होने का प्रयास करना चाहिये। आशंका यह थी कि इस पर न सपा की प्रतिक्रिया सहज होगी और न बसपा की लेकिन इसके विपरीत सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने सकारात्मक प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि वे तैयार हैं बशर्ते लालूजी मायावती को रजामंद कर लें। हालांकि मायावती ने उस समय यह प्रस्ताव बहुत ही कटुतापूर्ण तरीके से नकार दिया था जिससे लगा था कि सपा और बसपा को फिर नजदीक लाने का अध्याय खुलना शायद संभव नहीं रह गया है लेकिन सपा के महासचिव प्रोफेसर रामगोपाल यादव ठीक ही कहते हैं कि राजनीति में कोई भी समीकरण असंभव नहीं होता। उक्त प्रसंग के कुछ ही महीनों बाद लालू की तुक्के में की गयी पेशकश रंग लाती नजर आयी। सपा के सहयोगी दल कांग्रेस ने विधान परिषद चुनाव में उसकी सहमति से अपने बचे हुए वोटों को बसपा के लिये ट्रांसफर कर दिया। सपा, बसपा, कांग्रेस और रालोद के बीच बनी अंडरस्टैंडिंग ने ऐसा गुल खिलाया कि इन पार्टियों में सेंध लगाकर इनके 10 वोट झटक लेने के बावजूद भाजपा अपने दूसरे उम्मीदवार को जिताने में नाकामयाब रही जबकि यह उसके लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था। नतीजतन भाजपा को इसमें भारी फजीहत झेलनी पड़ी। इसी के बाद प्रोफेसर रामगोपाल का बयान आया कि बसपा और हमारे बीच कोई दुश्मनी नहीं है। मीराबाई गेस्ट हाउस में हुए मामूली विवाद के कारण हम अलग हो गये थे लेकिन इससे यह नहीं माना जा सकता कि हमारे बीच फिर कोई समीकरण बनने की गुंजाइश नहीं रही है। राजनीतिक प्रेक्षकों को उनके इस बयान पर मायावती की ओर से उग्र प्रतिक्रिया आने का इंतजार था क्योंकि जून 1995 के मीराबाई गेस्ट हाउस कांड की तल्खी उनकी जुबान पर लंबा वक्त गुजर जाने के बाद कभी मिटी नहीं थी और इस नाते उक्त प्रसंग को हल्का साबित करने की किसी कोशिश पर वे चुप रह जायें ऐसा माना ही नहीं जा सकता था। पर मायावती ने इस बार सारे अनुमानों को धता बताकर रामगोपाल यादव की बात पर कोई प्रतिक्रिया देने में संयम बरता। जिसे उनमें बदलाव के एक बहुत बड़े लक्षण के रूप में लक्ष्य किया जा रहा है।
इस बीच मायावती ने धड़ाधड़ अपनी पार्टी के नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने का अभियान सा छेड़ दिया है। आशंका यह थी कि बसपा से छिटके इन नेताओं को चारा डालकर सपा वक्त का फायदा उठाने की कोशिश करेगी लेकिन सपा ऐसा कुछ करने के मूड में नहीं दिखती जो मायावती को निश्चित रूप से बहुत आश्वस्तकारी लगा होगा। सपा के इस कदम में निहित सद्भावना संदेश को मायावती के सर्विलांस में दर्ज किया गया है यानि दोनों के बीच नये सम्बन्धों की पटकथा अव्यक्त तौर पर बुनी जा रही है।
हालांकि 2017 का विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियां मिलकर लड़ें यह संभावना फिलहाल बहुत दूर की कौड़ी लगती है। दोनों में से किसी पार्टी के नेता में इतनी त्याग भावना नहीं है कि भाजपा को चेयर रेस से बाहर करने के लिये प्रदेश के मुखिया की कुर्सी पर अपना दावा आसानी से छोड़ सकेें लेकिन भाजपा के मजबूत उम्मीदवारों को घेरने के लिये दोनों में रणनीतिक समझदारी बन सकती है। यह हो सकता है कि वे आपसी अंडरस्टैंडिंग से भाजपा के सारे महारथियों को विधानसभा चुनाव में नथकर रखने की व्यूह रचना अन्दर खाने रचें ताकि भाजपा मुकुट विहीन नजर आने लगे। कांग्रेस व रालोद भी मजबूरी में उनकी व्यूह रचना का उपकरण बनने को तैयार हो जायेंगे।
उत्तरप्रदेश में ध्रुवीकरण के नये आयाम और नये चित्र के उभरने की परिस्थितियां बन रही हैं जो बेहद रोचक हैं। तय है कि भाजपा के खेमे को भी इसका अंदाजा होगा लेकिन जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि बेचैनी के बावजूद उसकी जवाबी कार्रवाई के लिये दिल्ली विधानसभा के चुनाव का शोर शराबा खत्म होने का इंतजार करना पड़ेगा।

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