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समाजवाद के यौगिक रूपांतरण पर शोध की जरूरत

मुक्त विचार
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समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के भतीजे और मैनपुरी के सांसद तेजप्रताप सिंह तेजू का तिलक समारोह 21 फरवरी को उनके पैतृक गांव सैफई में जिस शाही तामझाम के साथ आयोजित हो रहा है उससे समाजवाद की मान्यताओं और सिद्धांतों का जनाजा निकल जाएगा। मुलायम सिंह का यह सामंती अंदाज पहली बार सामने नहीं आया। इसके पहले उनके जन्मदिन का जश्न रामपुर में इंग्लैंड से विक्टोरिया बग्घी मंगाकर मनाया गया था। सैफई को उसकी कोई व्यवसायिक, पौराणिक व एतिहासिक उपयोगिता न होते हुए भी केवल इस नाते कि वह मुलायम सिंह का गांव है सजाने-संवारने पर जब-जब सपा की सरकार रही जितना धन फूंका गया है वह अपने आप में एक कीर्तिमान है।
समाजवादी आंदोलन सादगी के मूल्यों के लिए जाना जाता है। केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं धार्मिक क्षेत्र में भी सादगी का आदर्श सर्वोपरि वरेण्य है। इस्लाम में साफ हिदायत है कि दौलतमंद होकर भी किसी मुसलमान को अपने बेटे-बेटी की शादी में आडंबर नहीं रचाना चाहिए। यह अल्लाह की मर्जी के खिलाफ है क्योंकि अगर कोई दौलत के नशे में ऐसे अवसर पर अपने वैभव का प्रदर्शन करता है तो उसकी यह हरकत उस गरीब के दिल में आह निकल जाने का कारण बन जाती है जिसके पास बैंडबाजे और आतिशबाजी पर फूंकने के लिए पैसे नहीं हैं। इस वजह से अपने बेटे-बेटी की फीकी शादी के समय अमीरों के शहजादे-शहजादियों की शादी का ख्याल करके वह सोचता है कि काश उसे भी अल्लाह ने दौलत की नैमत बख्शी होती तो वह भी अपने लाडले या लाडली की शादी में ऐसी ही उमंग दिखा पाता। इस्लाम का यह उसूल इस मजहब की संवेदनशीलता को दर्शाता है। किसी को जाने-अनजाने किसी कारगुजारी से मानसिक चोट पहुंचाना बहुत बड़ी कू्ररता और हिंसा है। इस्लाम ने इसको समझा इसीलिए वैभव प्रदर्शन के मामले में शरीयत में इस तरह की हिदायत थोपी गई है लेकिन मुलायम सिंह ने जहां अपने जन्मदिन मनाने के तरीके से समाजवादी राजनीति की लक्ष्मण रेखा को लांघा वहीं इस्लाम और मुसलमानों के स्वयंभू ठेकेदार मो. आजम खां ने उनके सामंती अरमानों को पूरा करने के लिए मजहबी उसूलों को दांव पर लगाने में गुरेज नहीं किया। कमाल तो तब हुआ जब बुतपरस्ती को कुफ्र मानने वाले इस्लाम के अनुयायी होकर भी मो. आजम खां ने मुलायम सिंह का मंदिर बनाने की पैरोकारी कर डाली। वफादारी और दोस्ती निभाने के लिए कानून को फिर चाहे वह देश का हो या धर्म का न्यौछावर करने का उसूल भी सामंती प्रतिमानों में इंसान के किरदार की बेहतरी के रूप में परिभाषित है। हालांकि संवैधानिक शासन में यह प्रतिमान ठीक विलोम माना जाता है। भगवान राम शरणागत को उसने कितने भी बड़ा पाप किया हो अभयदान देने की वजह से धार्मिक कथाओं में सराहे जाते हैं क्योंकि उनका शासन सामंती शासन था लेकिन प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के दोस्त होने से कानून तोडऩे वाले को माफी देना संवैधानिक शासन में मुमकिन नहीं है। यह दूसरी बात है कि इस देश में कानून का शासन भी कायम है और राजा की अच्छाई नापने का यह पैमाना भी उसमें अपनों के लिए कानून को किस हद तक बधिया कर देने की कुव्वत है। डा. संजय सिंह वीपी सिंह के दामाद लगते थे और कांग्रेस से जब वीपी सिंह ने विद्रोह किया तो राजीव गांधी के दरबार में बहुत महत्वपूर्ण स्थिति में होते हुए भी अपने रिश्तेदार का साथ देने के लिए डा. संजय सिंह ने भी उनके खिलाफ बगावत का परचम फहरा दिया था लेकिन वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सैयद मोदी हत्याकांड में संजय सिंह को बचाने के लिए सीबीआई पर दबाव डालना मंजूर नहीं किया। कानून के शासन की मर्यादा का पालन करने के लिए उनकी यह निष्ठुरता उनकी छवि पर कृतघ्नता के कलंक का धब्बा बन गई जबकि मुलायम सिंह की सार्वजनिक छवि में अपनों के लिए कानून की हनक भीगी बिल्ली से भी ज्यादा बदतर कर देने की वजह से लगातार इजाफा होता रहा। मुलायम सिंह की यह महानता संक्रामक प्रभाव से भी लैस है इसीलिए उनके साथ यारी निभाने को आजम खां सारे मजहबी लिहाज ताक पर रखने में नहीं हिचकते।
जाहिर है कि इस नजरिए से देखा जाए तो आजम खां पर मुलायम सिंह की मेहरबानी को मुस्लिम परस्ती के तात्पर्य से जोडऩा गलत है। गांवदारी की सामंती राजनीति की विशेषता नेता का अपनी पार्टी के आदमी के लिए लडऩे-भिडऩे से लेकर हर मौके पर साथ के लिए तैयार रहने के रूप में प्रदर्शित की जाती है। बस मुलायम सिंह और आजम खां की दोस्ती का इतना ही मतलब-नितांत व्यक्तिगत है। व्यापक तौर पर इसे मुस्लिम कौम की भलाई के लिए प्रतिबद्धता से जोडऩा शायद पूरी तरह भ्रामक है।
बहरहाल तेजू के तिलकोत्सव समारोह के हाईलाइट्स में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस अवसर पर उपस्थिति सबसे ज्यादा सुर्खरू है। दिल्ली में शादी होती तो नरेंद्र मोदी शिरकत कर लेते कोई बात नहीं थी लेकिन वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हलचलों की व्यस्तताओं के बीच सैफई आने की जहमत उठा रहे हैं यह तक उनके मन में मुलायम सिंह की अहमियत को उजागर करता है। इसके पीछे कोई तर्क ढूंढना आसान नहीं है। नरेंद्र मोदी और मुलायम सिंह के बीच पुराना दोस्ताना भी नहीं है और पांच लोक सभा सदस्यों वाली पार्टी के नेता मुलायम सिंह फिलहाल इस हैसियत में भी नहीं हैं कि फ्लोर मैनेजमेंट के लिए मोदी की सरकार को नेता जी का मुंह ताकना पड़ रहा हो। जनता दल के दौर में अगर दूसरे गुट का नेता भाजपा के किसी सौम्य नेता के घर भी धोखे से चला जाता तो मुलायम सिंह उसकी धर्मनिरपेक्ष निष्ठा की फजीहत कर डालते थे और उनके इसी अतिवाद ने जनता दल सरकार की अकाल मौत व भाजपा के चरम विकास की पटकथा लिखी। आज भी उनकी पार्टी की सरकार उत्तर प्रदेश में है इसलिए मोदी को सबसे ज्यादा सीटें इसी राज्य में हासिल करने का मौका मिला है। सही बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश के योगदान की वजह से ही भाजपा को लोक सभा में स्पष्ट बहुमत मिल सका है जिससे देश की एक बड़ी कौम के बीच सबसे बड़े खलनायक की छवि रखने के बावजूद नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का निरापद रास्ता मिला। नरेंद्र मोदी निश्चित रूप से इसके लिए मुलायम सिंह के अंदर ही अंदर एहसानमंद होंगे। इस कारण उनका व्यवहार निभाने के लिए मुलायम सिंह के पौत्र के तिलक में दौड़े-दौड़े चला आना तो स्वाभाविक है लेकिन मुलायम सिंह को क्या कहा जाए जो बहुत गर्व के साथ कहते रहे हैं कि उन्हें मुसलमानों से सच्ची हमदर्दी रखने की वजह से गाली देने के अंदाज में मौलाना मुलायम सिंह कहा जाता है पर अपने पौत्र के तिलक में मोदी को न्यौतने में स्वयं को धन्य समझते हुए मुलायम सिंह को मुसलमानों के जज्बातों को ख्याल नहीं आया।
हालांकि अवसरवादी की ताली एक हाथ से नहीं बज रही। कारसेवकों पर जब अयोध्या में मुलायम सिंह के राज में गोली चली थी तो भाजपा ने राम की दुहाई देकर कहा था कि उन्हें हम लोग कभी माफ नहीं करेंगे पर भाजपा आगे चलकर उन्हीं मुलायम सिंह की कितनी मुरीद हो गई यह बताने की जरूरत नहीं है। मुलायम सिंह और भाजपा के बीच जो राजनीतिक वाकयुद्ध होता है सब जानते हैं कि उसकी सार्थकता नूराकुश्ती से ज्यादा कुछ नहीं है। बहरहाल बात हो रही थी तेजप्रताप सिंह के तिलक समारोह के तामझाम की। शादियों का खर्चीला आडंबर गरीब और मध्यवर्गीय जनता की गले की हड्डी बन गया है। बुंदेलखंड में किसान विवाह और त्रयोदशी कार्यक्रमों में होने वाले खर्च की वजह से हलकान है और इस इलाके में किसानों की आत्महत्याओं के सूखे के समय ताबड़तोड़ सिलसिले के पीछे यह भी एक बड़ी वजह रही है। एक समय था जब सरकारें फिजूलखर्ची और आडंबर की संस्कृति को हतोत्साहित करने के लिए निजी दावत में मेहमानों की संख्या बांधने का कानून बनाने का इरादा रखती थी। आज भी इसकी जरूरत खत्म नहीं हुई है लेकिन विडंबना है कि आज इसकी चर्चा तक बंद हो गई है। राजनेता जिनका हम जैसे तमाम आलोचकों के बावजूद करोड़ों लोग अनुकरण करते हैं अगर वे इसमें पहल करें और अपने यहां होने वाले निजी आयोजनों को इस मामले में उदाहरण बनाकर प्रस्तुत करने को कटिबद्ध हो जाएं तो समाज का बहुत उपकार हो सकता है। इस मामले में सर्वप्रथम तो समाजवादियों से ही आशा की जाती है।
यह दूसरी बात है कि समाजवादी राजनीति के इतिहास पर पूरी तरीके से शोध नहीं हुआ। समाजवाद के राजनीतिक उसूल इसी आंदोलन की विचारधारा से पिछड़े वर्ग के सशक्तिकरण के फलस्वरूप जन्मे लोकदलीय पंथ में अपनी तासीर खो बैठे हैं। लोक दल परिवार समाजवादी आंदोलन की यौगिक उत्पत्ति है। भौतिक शास्त्र जिन लोगों ने पढ़ा है उनको मालूम है कि पदार्थों के मिश्रण और यौगिक में फर्क है। यौगिक मूल तत्वों के गुणों से परे अलग ही उत्पाद का परिणाम देता है। इसी कारण लोक दल परिवार में समाजवादी राजनीति के किसी फंडामेंटल की कोई गुंजायश नहीं है। न ही वंशवाद का विरोध न ही एक व्यक्ति एक पंथ के सिद्धांत और न ही सादगीपूर्ण गांधीवादी जीवनशैली का आग्रह इसमें बचा रह गया है। यह कुछ भारतीय सरजमीं की अपनी विशेषता भी है कि इसमें सैद्धांतिक पक्ष वह कोई भी क्षेत्र हो बहुत वायवीय होता है। बुनियादी उसूलों के लिए कट्टरता बेहतरीन किरदार के लिहाज से बहुत जरूरी है। हिंदुओं को इस मामले में ईष्र्या वश मुसलमानों की बजाय सैद्धांतिक तरलता की अपनी कमजोरी के बारे में सोचना चाहिए जो मौका परस्ती का दूसरा नाम बन चुकी है। क्या बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए कल्याण सिंह को कुसूरवार मानना मुसलमान हिंदुओं की तर्ज पर कभी भुलाने को तैयार हो सकते हैं। यह एक बीज प्रश्न है जिसका उत्तर लोग खुद खोजें।

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