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संघ प्रमुख को अब अखरने लगा अपना ही मानस पुत्र

मुक्त विचार
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दिवंगत मदर टेरेसा का पोस्टमार्टम करने का न तो यह मौका है और न ही दस्तूर लेकिन संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उनकी चर्चा करके बर्र के छत्ते में ऐसे मौके पर हाथ क्यों डाला जब संसद के बजट सत्र की शुरूआत हो रही थी। इसकी जिज्ञासा जितनी अन्य लोगों को नहीं है उतनी खुद भाजपा के लोगों को है भले ही वे खुले तौर पर इसे व्यक्त न कर पायें। संघ प्रमुख ने नरेन्द्र मोदी द्वारा ईसाई विश्व में अपनी वानर सेना के उत्पात से जा रहे गलत संदेश और उससे अपनी सरकार व देश को संभावित क्षति का अनुमान करके किसी की भी धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाने की कोशिश करने वालों को सख्त चेतावनी देकर जो संकट प्रबंधन किया गया था उस पर पानी फेर दिया है। संसद सत्र के अवसर पर उनका दिया गया बयान कितना ध्वनि विस्तारक हो सकता है इसका अनुमान उन्हें न हो यह संभव नहीं है। उन्हें मालूम है कि विपक्ष इसकी गूंज को इतना तीव्र कर देगा कि पूरा ईसाई विश्व इसके आघात को बहुत ही गम्भीरता से महसूस करे। नरेन्द्र मोदी ने अन्तर्राष्ट्रीय समीकरणों में लामबंदी का जो तानाबाना देश के लिये बुना है, उनके गुरूर को जमीन पर लाने के लिये, उसके तितर बितर होने का खतरा भी मोहन भागवत को इस तरह का बयान जारी करने से नहीं रोक सका।
नरेन्द्र मोदी को भाजपा के सारे शीर्ष नेताओं को किनारे धकेल कर प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने में संघ ने अपनी बीटो पावर का इस्तेमाल किया था। नरेन्द्र मोदी जब अकेले दम पर भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत दिलाने में कामयाब रहे तो संघ ने जमकर अपनी पीठ थपथपाई थी। अपने बारे में उसका गुमान अंतरिक्ष की ऊंचाइयों के भी पार पहुंच गया था। उनके नेतृत्व में राज्यों के चुनाव में भी अप्रत्याशित सफलता का क्रम जारी रहने से संघ और इतरा गया था लेकिन अब अपने मानस पुत्र से उसे चिढ़ क्यों हो रही है। यह एक सवाल है लेकिन इस लेखक ने शूद्र राज कुछ ही दिन का….. फिर अच्छे दिन आने वाले हैं…. शीर्षक से अपने लेख में संघ के मोदी मोह के अन्र्तविरोधों को उजागर करते हुए बहुत जल्द ही उनके प्रति संघ का मोह भंग हो जाने की आशंका व्यक्त कर दी थी जो अब चरितार्थ भी हो रही है।
दरअसल लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली पहली अपार सफलता संघ के प्रयासों से सुसुप्त हिन्दू कौम के आत्म सम्मान के प्रकटन का परिणाम जतायी गयी थी। राजनैतिक व्याख्याकार भी इस मामले में संघ को बहुत ओवरएस्टीमेट कर रहे थे जबकि असलियत यह थी कि संज्ञा शून्य मनमोहन सरकार से ऊबी जनता सुसंगठित शासन की तलबगार हो रही थी जिसकी पूर्ति उसे मोदी में नजर आयी जिन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दृढ़ प्रशासक की छवि बनाकर अपने आपको पूरे देश में सशक्त विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रखा था। औसत दर्जे के हीरो अमिताभ बच्चन को रातोंरात मिलेनियम स्टार के रूप में स्थापित करने वाले मार्केटिंग के सिद्ध हथकंडों ने मोदी के मामले में भी जबर्दस्त उत्प्रेरक की भूमिका अदा की। इसके बाद मोदी ने जिस तरह से अपनी शुरूआत की। उससे राष्ट्रीय जनमानस में उनके पैर और मजबूत हो गये। खासतौर से विश्व नेता के रूप में अपनी छवि तराशने के लिये जो चोंचले उन्होंने किये वे बहुत कामयाब हुए और उनका यह अनुमान भी सही था कि वर्षों तक गुलाम रहे इस देश में विश्व के प्रमुख देशों और उनके राष्ट्राध्यक्षों से स्वीकृति प्राप्त नेता अपने आप राजनीति का महानायक बन जाता है। इसके बाद संघ की दकियानूस सलाहों का अंधानुकरण करने के जोखिम उन्हें डराने लगे और उन्होंने संघ के एजेण्डे से दूरी बनाना शुरू कर दी। पहले वे संघ को नाराज किये बिना उसकी भूमिका को सीमित करने के प्रयास में थे लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाती। संघ परिवार के नेताओं ने घर वापसी और धर्मान्तरण के विरोध के अभियान को इतनी तीव्रता से चलाया कि दिल्ली में ईसाई चर्चों में हुई घटनाओं की प्रतिक्रियाशीलता अमेरिका के व्हाइट हाउस तक जा पहुंची। ओबामा ने उनके साथ अपनी नई-नई यारी की भी परवाह न करते हुए भारत में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता पर यह बयान दे डाला कि अगर गांधी इस समय भारत में होते तो उन्हें बहुत सदमा पहुंचता। संघ के थिंक टैंक इसे लेकर ओबामा पर हमलावर हुए और संघ को उम्मीद थी कि मोदी भी यही लाइन लेंगे लेकिन मोदी ने खेल बिगडऩे के पहले ही समर्पण की मुद्रा अपनाकर धर्म के आधार पर टकराव पैदा करने वालों को कार्रवाई की चेतावनी का बयान जारी कर डाला। इसी बीच उन्होंने हिन्दुत्व की लाइन को एक और बात में धता बतायी कि शिवसेना की परवाह न करके वे महाराष्ट्र में शरद पवार से मिलने उनके घर चले गये। जैसे इतना ही काफी नहीं था। 1990 में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले और इसके बाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश में 2013 और 2014 के दंगों में सरकार का इकतरफा इस्तेमाल करने वाले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह का अतिरिक्त महिमा मंडित करने के लिये मोदी उनके पौत्र के तिलक में सैफई पहुंच गये। वह भी ऐसे समय जबकि अयोध्या में विवादित स्थल पर जल्द ही मंदिर बनने की भविष्यवाणी करने में संविधान की शपथ का भी ख्याल न रखने वाले उत्तरप्रदेश के खांटी स्वयंसेवक राज्यपाल राम नाईक को आजम खां के माध्यम से जलील कराने में मुलायम सिंह ने कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी। इस तरह के कई प्रसंगों के बाद मोदी की रीति नीति अब संघ को लगता है बहुत अखरने लगी है। संघ प्रमुख मोहन भागवत का बिना किसी संदर्भ के मदर टेरेसा के बारे में बयान शायद उनकी निगाह में बहुत उड़ रहे मोदी को जमीन पर लाने के सुनियोजित उद्देश्य से दिया गया है। इसी के साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया ने यह बात उठानी शुरू कर दी है कि अगर संघ की निगाह में मदर टेरेसा धर्मान्तरण कराने वाली पाखण्डी संत थीं तो क्या मोहन भागवत उन्हें दिये गये भारत रत्न अलंकरण को वापस लेने की मांग मोदी सरकार से करेंगे। फिलहाल संघ प्रमुख इस सवाल पर टाल मटोल कर रहे हों लेकिन देर सबेर अगर वे मदर टेरेसा के बारे में व्यक्त की गयी अपनी धारणा में इस मांग को भी जोड़ दें तो आश्चर्य न होगा।

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