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मायावती को नहीं पचा था कांशीराम का जीतना

मुक्त विचार
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1993 में साहब के इटावा से चुनाव लड़कर लोक सभा में पहुंचने पर पूरे देश में बहुजन समाज के लोगों ने भारी खुशियां मनाई थीं लेकिन बहन जी उनकी कामयाबी को नहीं पचा पाई थीं और उन्होंने साहब पर तोहमत लगा दी थी कि आपने इटावा में अपने लिए पार्टी के देश भर के कार्यकर्ता बुलवाकर बुलंदशहर में मुझे हरवा दिया। उस साल इटावा के साथ-साथ बुलंदशहर में भी लोकसभा उपचुनाव हुआ था। साहब बहन जी की ऐसे मौके पर यह बात सुनकर पहले तो हतप्रभ रह गए बाद में उन्होंने बहन जी को मनाना शुरू कर दिया और इसमें बड़ी मशक्कत की। उन्होंने कहा कि अभी पंजाब में एक जगह चुनाव होना है। मैं वहां तुम्हें लड़वाऊंगा और जितवाने के लिए जान लगा दूंगा। यह दूसरी बात है कि बहन जी पंजाब में भी जीत नहीं पाईं। कांशीराम और मायावती से जुड़े ऐसे कई अछूते प्रसंग बसपा के बागी नेता दद्दू प्रसाद ने खास बातचीत में उजागर किए हैं जो उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार में मायावती के साथ कैबिनेट में ग्राम विकास विभाग के मंत्री रह चुके हैं लेकिन कुछ ही दिन पहले उन्हें मायावती ने पार्टी से बेआबरू करके निकाल दिया है। दद्दू प्रसाद का कहना है कि इसके बावजूद वे बहन जी का व्यक्तिगत विरोध नहीं करना चाहते लेकिन मान्यवर के मिशन को बचाना अब उनका मकसद है क्योंकि बहन जी कार्यशैली से उनका मिशन बर्बाद हो रहा है। उन्होंने कहा कि मान्यवर के विचारों को लागू करने से ही देश में सच्चा लोकतंत्र कायम हो सकता है। प्रस्तुत है उनसे लंबी बातचीत-:
प्रश्न:- कांशीराम का मिशन क्या था?
दद्दू प्रसाद:- मान्यवर ने 1987 में जब इलाहाबाद से संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार वीपी सिंह के सामने चुनाव लडऩे का फैसला किया तो उन्होंने सत्ता में दलित शोषित बहुजन समाज के वर्चस्व के लिए संघर्ष की रणनीति प्रस्तावित की। उन्होंने कहा कि एक तो मिथक यह है कि इलाहाबाद से चुनाव जीतने वाला ही देश का प्रधानमंत्री होता है और उस पर क्लेम का अधिकार केवल राजा को नहीं गरीबों के प्रतिनिधि को भी है। यह बात स्थापित करने के लिए उन्हें यह चुनाव लडऩा चाहिए जबकि इसके पहले उनका एलान यह था कि जब तक उनकी पार्टी के पचपन सदस्य लोक सभा में नहीं चुने जाएंगे तब तक वे स्वयं चुनाव नहीं लड़ेंगे। पचपन सदस्यों की न्यूनतम संख्या सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए जरूरी है और बहुजन हित के एजेंडे पर वे सशक्त अविश्वास प्रस्ताव लाकर पूरे देश में एकमुश्त धु्रवीकरण का मंसूबा साधे हुए थे। उन्होंने कहा कि वे इलाहाबाद से उपचुनाव नहीं जीतेंगे लेकिन इस तरह से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर बहुजन समाज का क्लेम रजिस्टर्ड करा देंगे। उन्होंने इस चुनाव में हर गरीब से एक वोट के साथ एक नोट की भी मांग की थी ताकि चुनावी चंदे के लिए अपना मिशन थैली शाहों के पास गिरवी रखने की नौबत न आए। उन्होंने नारा दिया था कि छोटे साधन से बहुजन समाज को बड़े साधनों को शिकस्त देना है। इसके तहत उन्होंने साइकिल से चुनावी जनसंपर्क का निश्चय किया। उनके इस संकल्प का ऐसा असर हुआ कि उस समय वीपी सिंह हैलीकाप्टर पर उड़ रहे थे लेकिन उन्हें घोषणा करनी पड़ी कि वे चारपहिया वाहन तक का इस्तेमाल अपने चुनाव में नहीं करेंगे। इस तरह वे भी दोपहिया वाहन पर आने को मजबूर हो गए। चुनाव प्रचार में पूंजीवादी ताकतों की प्रोपोगंडा की मशीनरी का मुकाबला करने के लिए वाल राइटिंग जैसे मास कनेक्ट के तरीकों को अपनाकर उन्होंने पार्टी को नई दिशा सुझाई। कैपिटल मीडिया के प्रभाव को समाप्त करने के लिए छोटे-छोटे न्यूज बुलेटिन का प्रकाशन जो आम आवाम तक न पहुंच सके तो काडर के हाथों में भी तो पहुंच ही जाए। बाद में काडर पार्टी के पैगाम को आवाम तक पहुंचा ही देगा। गरीब आदमी में भी यह आत्मविश्वास पैदा हो कि वह इस लोकतंत्र में चुनाव लड़कर जीत हासिल कर सकता है इसकी पूरी वर्कशाप मान्यवर ने चलाई थी।
प्रश्न:- इस मिशन में कांशीराम को कहां तक कामयाबी मिल सकी?
दद्दू प्रसाद:- 1993 के उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव में बसपा के जो 67 सदस्य जीते उनमें 50 ऐसे थे जो अपनी दम पर डिपोजिट तक जमा नहीं कर पाए थे। अन्य 17 में भी एक विधायक करोड़पति नहीं था। इससे जनता में पहली बार भरोसा कायम हुआ और यह क्रम बना रहता तो कुछ ही समय बाद प्रदेश की सारी सीटों पर मामूली लोग ही जीतकर आने लगते।
प्रश्न:- मायावती कांशीराम को ही अपना गुरु मानती हैं। फिर यह संदेह कैसे किया जा सकता है कि वे कांशीराम की विचारधारा से विश्वासघात कर सकती हैं?
दद्दू प्रसाद:- अगर बहन जी मान्यवर की विचारधारा को जानती होतीं तो वे यह भ्रम पैदा नहीं करतीं कि चुनाव बिना पैसे के नहीं लड़े जा सकते। इसी नाम पर उन्होंने टिकट बेचने की शुरूआत की और बहुजन के बोर्ड से उनके दुश्मनों को लोकसभा विधान सभा में पहुंचाया। गरीब आदमियों को इन सदनों में बिठाने का मान्यवर का सपना इस तरह उन्होंने तोड़ दिया। मान्यवर ने बहुजन समाज के सत्ता में वर्चस्व की पैरोकारी की थी। पहले विधान सभा में पार्टी पचपन प्रतिशत टिकट ओबीसी को देती थी। 2014 के चुनाव में मात्र 18 प्रतिशत टिकट ही पिछड़ों को दिए गए। बहुजन में बिखराव पैदा करके बहन जी ने मिशन की जड़ें हिला दीं।
प्रश्न:- इस बार विधान सभा उपचुनाव न लडऩे के मायावती के फैसले से माना जा रहा है कि बसपा को दूरगामी राजनीतिक क्षति हुई है। पार्टी का एक बड़ा तबका पहले ही यह महसूस करता था। उनकी कार्यशैली पर इतने सवाल खड़े हो रहे हैं तब क्या आपको नहीं लगा था कि वे मनमानी कर रही हैं और यह पार्टी को भारी पड़ेगी?
दद्दू प्रसाद:- इसको तो बसपा के विधान मंडल दल के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने ही लखनऊ में हुई पार्टी की बैठक में बहन जी के मुंह पर ही गलत ठहरा दिया था जिसके बाद बहन जी ने कहा था कि अगर आप लोग चाहते कि उपचुनाव लड़ें तो पार्टी लड़ेगी लेकिन अगले ही दिन जब वे अपने दिल्ली आवास पर पहुंचीं तो उन्होंने फोन करके स्वामी प्रसाद से कहा कि नेशनल लीडर की बात काटता है। मैं तुझे पार्टी से निकालकर बाहर कर दूंगी। मैंने तय कर दिया कि उपचुनाव पार्टी नहीं लड़ेगी तो नहीं लड़ेगी। इसके बाद सब खामोश हो गए।
प्रश्न:- मायावती को उपचुनाव न लडऩे से क्या फायदा था?
दद्दू प्रसाद:- बहन जी की टिकट बेचने की नीति पर पार्टी में दबी जुबान से विरोध शुरू हो गया था और उन्हें भी इसकी भनक लग गई थी। इस कारण उन्होंने सोचा कि उस समाज को जिसे यह कहकर मान्यवर ने वोट बेचने के लालच से दूर कर दिया था कि अपना वोट बेचना मां-बहन को बेचने के बराबर है। ïउसे फिर बिकाऊ बनाने की नीयत से उन्होंने ऐसा किया। पार्टी के उपचुनाव न लडऩे से सभी निर्वाचन क्षेत्रों में बसपा के लोगों ने दूसरे दलों से कीमत वसूल कर वोट दिए। मान्यवर ने कहा था कि नेता कभी मिशन को बेच सकता है और ऐसा हुआ तो बहुजन समाज का पूरा संघर्ष और तपस्या बर्बाद हो जाएगी। इस तरह के विश्वासघात से नेता को रोकने का एक ही उपाय है कि समाज अपने आप को इतना सक्षम बनाए कि वह किसी के द्वारा कितनी भी बोली लगाने पर अपने को बेचने के लिए तैयार न हो। अगर समाज बिकाऊ नहीं होगा तो नेता के बिकाऊ होने पर वह दुलत्ती मारकर उसे बाहर कर देगा और दूसरा नेता चुन लेगा।
प्रश्न:- मायावती के खिलाफ आज तक पार्टी में जिसने बगावत का झंडा लहराया कोई कामयाब नहीं हुआ और आखिरी में उनको मायावती के सामने ही शरणागत होना पड़ा। कहीं आपके साथ भी ऐसा न हो जाए?
दद्दू प्रसाद:- यह बात सही है लेकिन पहले के बागियों में मान्यवर की विचारधारा की न तो इतनी समझ थी और न ही उसके प्रति जज्बा। मेरा मामला अलग है। मैं बहन जी से नहीं लड़ रहा। मैं तो मान्यवर के विचारों को पुर्नस्थापित करने के लिए निकला हूं। बहन जी ने दलितों के साथ उत्पीडऩ और अत्याचार के मामलों में संघर्ष छेडऩे की परंपरा पार्टी में खत्म कर दी थी। हम इस काम को हाथ में ले रहे हैं क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया जाता तो दलित समाज फिर जुर्म की चक्की में पिसने को मजबूर हो जाएगा।
इस मुद्दे पर हमारा संघर्ष बहन जी के प्रति न केवल दलितों में बल्कि पूरे बहुजन समाज में मोहभंग की वजह बन जाएगा। बहन जी के लोगों ने प्रचार किया था कि दद्दू की अमित शाह से मुलाकात हो चुकी है और वह भाजपा में चला जाएगा लेकिन मैं यह कहता हूं कि अगर मैंने कभी ऐसा किया तो मान लेना कि मैंने अपनी मां के दूध को लजाया है। मैं भाजपा या किसी दूसरी पार्टी में नहीं जा रहा। दूसरी कोई पार्टी भी नहीं बना रहा हूं। मैंने राष्ट्रीय स्वाभिमान मंच बनाया है जिसके प्लेटफार्म पर मान्यवर की विचारधारा को फिर से बलवती करने का बौद्धिक अभियान शुरू होगा। बसपा के काडर का पार्टी के प्रति आकर्षण का मुख्य केेंद्र बिंदु यही विचारधारा है इसलिए वे हमारे साथ खिंचे चले आएंगे। यह बात जरूर है कि लोगों को अभी मेरी क्षमताओं पर भरोसा नहीं है और भरोसा बनाने के लिए मुझे बहुत जद्दोजहद करने की जरूरत है। मैं मानसिक रूप से इसके लिए तैयार हूं।

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