Menu
blogid : 11660 postid : 858677

नैतिक प्रभाव से धर्म परिवर्तन की कोशिश में हर्ज क्या है

मुक्त विचार
मुक्त विचार
  • 478 Posts
  • 412 Comments

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पेश करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर कहा है कि धार्मिक विद्वेष फैलाने वालों के खिलाफ कड़ाई से निपटा जाएगा। इस मामले में राजस्थान में संघ प्रमुख मोहन भागवत का मदर टेरेसा के कृतित्व को नीचा दिखाने वाले बयान का संदर्भ आ जाना लाजिमी है। प्रधानमंत्री के भाषण में इसके जिक्र में लोगों को यह ध्वनित होता सुनाई दे रहा है कि वे संघ प्रमुख के दबाव में आने को तैयार नहीं हैं। संघ प्रमुख और मोदी के बीच अघोषित रार उनके घर की कलह है जो अगर शांत न हुई तो आने वाले दिनों में उनकी सरकार को प्रभावित करने और देश में राजनीतिक संकट पैदा करने का कारण बन सकती है।
जहां तक मदर टेरेसा का सवाल है उन्होंने कुष्ठ रोगियों की जिस समर्पण भाव से सेवा की अगर उसके पीछे लोगों पर नैतिक प्रभाव डालकर उन्हें ईसाई बनने के लिए प्रेरित करने की मंशा रही है तो इसमें भी गलती क्या है। होना तो यह चाहिए कि विभिन्न धर्मों के ठेकेदार अपने धर्म की ताकत बढ़ाने के लिए इस मामले में आपस में होड़ करें। इससे मानवता का भला होगा। एक टीवी चैनल पर मोहन भागवत से सवाल भी किया गया था कि कुष्ठ रोगियों की सेवा संघ के लोग क्यों नहीं करते। संघ प्रमुख का जवाब था कि उनके संगठन के कई लोग इस तरह की सेवा में जुटे हैं लेकिन उनके नाम क्या हैं यह उन्होंने नहीं बताए और देश में लोगों को भी नहीं पता। हो सकता है कि संघ के किसी स्वयं सेवक ने छुटपुट किसी कुष्ठ रोगी की मदद की हो लेकिन मदर टेरेसा की तरह उसने अपना जीवन ही कुष्ठ रोगियों के लिए समर्पित कर दिया हो तो ऐसी ख्याति छिपी नहीं रहती। उस स्वयं सेवक को तो पूरा देश जान ही गया होता और यही नहीं देश ऐसी विलक्षण मानव सेवा के लिए उस स्वयं सेवक का महिमा मंडन करने में कोई कसर न छोड़ता।
कुष्ठ रोगियों की ही सेवा क्या बेहद कष्ट में जी रही मानवता के किसी भी हिस्से की सेवा करने का वैसा रिकार्ड संघ परिवार और हिंदू धर्म में नहीं है जिस तरह का समर्पण भाव ईसाई मिशनरी दिखाते हैं। इस मामले में पहला सवाल तो यह है कि धर्म क्या है। यह किसी समाज की जीवन पद्धति बाद में है पहले हर धर्म दुखी पीडि़त मानवता का उद्धार करने और समर्थ लोगों में सेवा भाव पैदा करने के लिए समर्पित होता है। इसके लिए एक बेहतर समाज व्यवस्था होनी चाहिए। सच्चा धर्म समूची मानवता को संबोधित होता है इसीलिए कहा जाता है कि हर धर्म की बुनियादी बातें एक जैसी हैं। अगर कोई धर्म इस अपेक्षा के अनुरूप है तो उसे पूरी दुनिया को उसके सिद्धांतों के मुताबिक गढऩे का प्रयास करना ही चाहिए। राजनीतिक विचारधारा हो या धार्मिक विचारधारा अगर वे सार्वभौम मानवता के लिए हैं तो उनमें यह गुण जरूर मौजूद होंगे और साथ ही उनके मानने वालों में दुनिया को अपने सिद्धांतों के नक्शे में ढालने का जज्बा भी होगा। भारत में भी बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने सारी दुनिया को तथागत बुद्ध की शिक्षाएं मानने के लिए प्रेरित करने की कोशिश की। सम्राट अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा और पुत्र महेंद्र को श्रीलंका में लोगों को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाने के लिए भेजा था बल्कि दुनिया का पहला मिशनरी धर्म तो बौद्ध धर्म ही था। ऐसा कई विद्वानों का मानना है इसलिए यह दावा नहीं किया जा सकता कि भारत में धर्म को मानने वाले लोगों ने दूसरों को अपना धर्म मानने के लिए तैयार करने की कभी कोई कोशिश नहीं की। मुश्किल यह है कि बहुत लोगों को यह बुरा लग सकता है लेकिन सही बात यह है कि जो धर्म अपनी दुनिया से बाहर जाने को डरता है उसमें जरूर ही कोई न कोई खोट होगा जिससे वह दुनिया को मुंह दिखाने से कतराता हो। इस कारण दूसरे लोग हिंदू धर्म के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित करने का प्रयास क्यों कर रहे हैं इस पर विधवा विलाप करने की कोई जरूरत नहीं है। सही विचारों की रोशनी को दुनिया भर में फैलाना एक पवित्र कर्तव्य है। जब आप ही इस कर्तव्य का निर्वाह नहीं करेंगे तो दूसरे तो इस कर्तव्य का पालन कर ही रहे होंगे। ऐसे में आपके लोग अगर उनकी तरफ चले जाएंगे तो आपका वर्चस्व घटने की समस्या पैदा होगी और कुछ नहीं। होना तो यह चाहिए कि अपने गिरेबान में झांक कर संघ परिवार यह देखे कि वे कौन से दोष हैं जिनकी वजह से सनातन धर्म का विस्तार करने की हिम्मत हम लोग नहीं जुटा पाते। उन दोषों को दूर करके हम भी दुनिया की दूसरी कौमों को ईश्वर के अद्भुद ज्ञान से लाभान्वित करने की कोशिश करें ताकि हम पर से स्वार्थी होने की तोहमत न लग सके।
जो लोग अभावग्रस्त हैं या किसी व्याधि से पीडि़त हैं उन्हें राहत पहुंचाना ही सबसे बड़ा धर्म है। मंदिरों और मठों में इसीलिए अरबों खरबों की संपत्ति लगाई गई है और इसी कारण लोग इनमें प्रसाद के साथ रुपया भी चढ़ाते हैं कि कोई हिंदू परिवार अभावग्रस्त न रहे। गरीब से गरीब परिवार की भी भूख शांत करने की गारंटी रहे और गरीब से गरीब परिवार के बच्चे शिक्षा हासिल करने से वंचित न रह जाएं जिसके पास पैसे नहीं हैं उसे धार्मिक खाते की जायदाद और संपत्ति से जीवन के संकट के समय कितना भी महंगा इलाज सुनिश्चित किया जाए। परहित सरिस धर्म नहीं भाई इस सूत्र वाक्य में विश्वास करने वाले हिंदू धर्म के सन्यासी और साध्वियां राजसुख की तलाश करने की बजाय ईसाई ननों की तरह अपने आपको ऐसे लोगों की सेवा के लिए समर्पित करें पर लगता है कि सनातन धर्म का ठेकेदार उन लोगों को समझ लिया गया है जिन्हें केवल निजी वैभव से सरोकार है। यहां अकूत संपत्ति वाले मंदिर और मठों के कर्ताधर्ताओं को अभावग्रस्त लोगों के प्रति जवाबदेह ठहराया जाना कबूल नहीं है। इसके बावजूद भी वे यह चाहते हैं कि अगर गरीब अपने होशियार बच्चों को शिक्षा दिलाना चाहता है तो वे उसकी कोई मदद नहीं करेंगे लेकिन अगर कोई दूसरा मदद करेगा तो उसे भी नहीं करने देंगे। धर्म से ज्यादा महत्वपूर्ण जीवन है। अगर हम किसी का जीवन बचाने का उद्यम नहीं कर सकते तो हमारे अंदर यह भावना तो रहना चाहिए कि उसका जीवन बेवजह समाप्त न हो। अगर कोई उसका जीवन बचा ले और उससे प्रभावित होकर वह अपना धर्म बदल ले तो जमीन आसमान पर उठाना अमानवीय सा लगता है।
धर्म परिवर्तन का विरोध केवल तब है जब वह जोरजबरदस्ती से कराया जाए। जहां तक जीवन पद्धति का सवाल है जो पुरखों से विरासत में मिली है उससे गरिमामय जीवन जीने का सुख हासिल कर रहे हर व्यक्ति को मोह होता है। जीवन पद्धति के इस मोह के नाते सवर्ण समुदाय के हम जैसे बहुत सारे लोग जो धर्म में बहुत कमियां भी देखते हैं फिर भी कितने भी प्रलोभन के बावजूद धर्म बदलने को तैयार नहीं हो सकते लेकिन जिन्हें अपमानित जिंदगी जीनी पड़ रही हो वे अगर कहीं और सम्मान व सुïिवधा मिलने की वजह से चले जाते हैं तो यह स्वाभाविक ही है। अगर सनातन धर्म के क्षरण को रोकने की इतनी ही चिंता है तो प्रयास यह होना चाहिए कि इस धर्म का कोई सदस्य इसमें रहते हुए अपने साथ भेदभाव महसूस न करे और जिनकी जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर गई है उन्हें इस धर्म के संचालकों से पूर्ण संरक्षण मिले। साथ ही अगर सनातन धर्म की शिक्षाएं मानव मात्र की भलाई के लिए हैं तो इस धर्म का भी प्रचार-प्रसार अन्य धर्मों की तरह दुनिया के दूसरे देशों में किया जाए। जो सिद्धांत व मान्यताएं इसमें बाधक प्रतीत हो रही हों उनका निराकरण करके सनातन धर्म को इस आवश्यकता के अनुरूप ढालने का काम हो।
हिंदुओं में तो व्यापक परिवर्तन तब नहीं हो पाया जब हुकूमतें तक इसके लिए जोर लगाए हुए थीं तो अब क्या होगा। वही बात यहां फिर दोहरानी होगी कि पुरखों की जीवन पद्धति से मुंह मोडऩा आसान नहीं है और इस नाते तमाम हिंदू पीढ़ी दर पीढ़ी अपने धर्म से चिपके रहेंगे। साथ ही अपने धर्म की संकुचित शिक्षाएं जो इसको व्यापक करने में बाधक हैं उनकी आलोचना भी करते रहेंगे ताकि एक दिन ऐसा कि उनमें सुधार हो सके। ऐसे लोगों को गाली बनाकर सेकुलर का नाम देने से हकीकत को नकारना सूचना संचार और विस्फोट के इस युग में संभव नहीं है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply