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कारपोरेट जगत का विश्वास नहीं खोना चाहते अरविन्द केजरीवाल

मुक्त विचार
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आम आदमी पार्टी की सीमायें उजागर होने लगी हैं। अरविन्द केजरीवाल पार्टी पर अपना शिकंजा ढीला नहीं होने देना चाहते जबकि पार्टी ने अपनी जैसी छवि बनायी है उससे यह स्वाभाविक ही है कि स्वस्थ लोकतंत्र की परंपराओं और प्रक्रियाओं को अपनाने की अपेक्षायें उससे जुड़ जायें। एक व्यक्ति एक पद की मांग इसके बीच उठायी जाना नितांत जायज था। विडम्बना यह है कि लोकतांत्रिक सुधारों के मसीहा के रूप में देखे जा रहे अरविन्द केजरीवाल ने आप के अभी तक के इतिहास में अपनी कार्यशैली को पूरी तरह अधिनायक वादी सिद्ध किया है। पिछली बार अरविन्द केजरीवाल द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद आम आदमी पार्टी को गर्दिश के लंबे दौर का सामना ही इस कारण करना पड़ा कि अरविन्द केजरीवाल की मनमानी से पार्टी में बार-बार विद्रोह हुए लेकिन यह भी सच है कि दिल्ली विधानसभा के ताजा चुनाव में आम आदमी पार्टी को जो अभूतपूर्व कामयाबी मिली। उसके पीछे भी मुख्य कारण केजरीवाल का व्यक्तित्व और व्यूह रचना रहा है। इस सफलता ने केजरीवाल में अति आत्मविश्वास पैदा कर दिया है जिससे वे दुस्साहस की हद तक निर्भीक हो गये हैं। आम आदमी पार्टी के संयोजक का पद दूसरे को सौंपने की मांग इसी कारण उन्हें सहन नहीं हो सकती थी। इस बीच योगेन्द्र यादव की पार्टी के आइडियोलोग के रूप में व्यापक चर्चायें हुईं जिससे केजरीवाल उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी मानने लगे। प्रशांत भूषण को अपनी खिलाफत करने की वजह से वे पीएसी से हटवा देते तो इतना फर्क नहीं पड़ता लेकिन योगेन्द्र यादव पर की गई कार्रवाई से उनकी दुर्भावना साबित हो गयी है जिसका देर सबेर उन्हें बड़ा खामियाजा उठाना पड़ेगा।
योगेन्द्र यादव की विचारक के रूप में अपनी प्रमाणिकता है। सामाजिक लोकतन्त्र का आग्रह उनकी पत्रकारिता का मुख्य स्वर रहा है जबकि कारपोरेटवादी अरविन्द केजरीवाल अपने वर्ग चरित्र के मुताबिक इस तरह की राजनैतिक लाइन के प्रति असहज रहते हैं। आम आदमी पार्टी में उभरा व्यक्तित्वों का द्वंद्व का एक कोण यह भी है। दिल्ली देश की राजधानी है और इस नाते यहां एक तरह का कास्मोपोलिटिन माहौल है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो भद्र लोग वाली दिल्ली मानवीय संसार की खींचतान के ऊपर के यक्ष किन्नरों के लोक की तरह है। शेष भारत की स्थितियां जहां सामाजिक, राजनैतिक जटिलतायें गहराई हुई हैं इससे एकदम अलग हैं। इस कारण दिल्ली में राजनीति करने के पैमाने सारे देश के संदर्भ में उपयुक्त नहीं कहे जा सकते। देश के पैमाने पर राजनीति करने के लिये सामाजिक, आर्थिक यक्ष प्रश्नों से जूझना अनिवार्य नियति है। अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में मलिन बस्तियों के बाशिंदों के लिये अपने तरीके से हमदर्दी जरूर दिखाई है और गरीब परिवारों को उनकी जरूरत भर की बिजली, पानी जैसी सेवायें रियायती दरों पर मुहैया कराने की वकालत की है लेकिन पार्टी के नाम और इन कामों से आम आदमी पार्टी की जनवादी पार्टी के रूप में शिनाख्त दर्ज करना बहुत बड़ा भ्रम है। अरविन्द केजरीवाल के विचार दरअसल समाजवादी पूंजीवाद के चौखटे में फिट बैठते हैं। उन्होंने समय-समय पर कारपोरेट जगत और व्यापारी वर्ग को आश्वस्त किया है कि वे कहीं से उनके विस्तार में रुकावट बनने का इरादा नहीं रखते। अन्ना के साथ जनलोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली में किये गये आन्दोलन को प्रचंड बनाने के लिये उन्हीं की रणनीति के तहत एनजीओ को लामबंद किया गया था। इसमें भी समाजवादी वर्क लगाये पूंजीवादी कार्यनीति की झलक थी। समाजवादी पूंजीवाद के संसार में एनजीओ जन सरोकारों के लिये जूझने की मृग मरीचिका रचने वाला सिद्ध हथकंडा है। साथ ही वैधानिक सुधारों के माध्यम से समाजवादी पूंजीवाद आम आदमी को अपने साथ जोड़े रखने का काम करता है। यह दोनों चीजें केजरीवाल के अभियान में खूब देखने को मिली हैं।
हो सकता है कि केजरीवाल सोचते हों कि कारपोरेट के विस्तार से ही हर आदमी के लिये बुनियादी सुविधाओं की गारन्टी संभव होगी और दुनिया का अभावग्रस्त चेहरा बदला जा सकेगा। उनकी दृष्टि में यह भी होगा कि पूंजीवादी विकास के लाल कालीन के नीचे अपने आप सामाजिक सांप्रदायिक सवालों की गर्द बैठ जायेगी। केजरीवाल के दृष्टिकोण के बारे में अनुमान लगाने के पीछे मकसद उनकी नीयत में खोट देखना नहीं है। बेहतर व्यवस्था के निर्माण का बहुत लोगों के नजरिये से यह भी एक विकल्प है।
लेकिन सवाल यह है कि उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे समाज में क्या विकास ऊर्जा के विकिरण के सिद्धान्त के तहत किया जाना संभव है। भौतिक शास्त्र के अनुसार ऊर्जा के संचरण की तीन पद्धतियां हैं और विकिरण की पद्धति सूर्य की रोशनी से सीधे धरती पर उत्पन्न होने वाले ताप के रूप में दर्शायी जाती है। पृथ्वी से लाखों किमी. दूर स्थित सूर्य की रोशनी का ताप शून्य से होता हुआ धरती और उसके वायु मण्डल पर प्रभाव करता है लेकिन उत्तरप्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में ऐसा सीधा विकास संभव नहीं है। यहां विकास की किरणों को जातिगत व आर्थिक गुत्थियों के घटाटोप से होकर गुजरना होता है। इस कारण दिल्ली की राजनीति ऐसे राज्यों में जहां अभी आधुनिक समाज के निर्माण की प्रक्रिया शैशव अवस्था में भी नहीं है लागू की जाना नामुमकिन है। दिल्ली में कमोवेश पुरानी पहचानों को मिलाकर लोगों में नागरिक चेतना के निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है। इस कारण वहां बेहतर कानूनी शासन की मांग लोगों की प्राथमिकता में है। इसके इतर पिछड़े समाजों वाले राज्यों में विभिन्न जातियों के बीच वर्चस्व की जंग लोकतंत्र लागू होने के साथ छिड़ गयी है जो राजनैतिक लोकतंत्र के पहले सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना की दृष्टि से वैज्ञानिक विकास का एक अवश्यंभावी चरण है। इस द्वंद्वात्मकता का पटाक्षेप सकारात्मक समायोजन में करने की कवायद से गुजरना ही होगा। बिहार में लालू को प्रतिस्थापित कर जब नीतीश की सरकार बनी तो लफ्फाजी की गयी थी कि इस राज्य में उनके सुशासन ने पहचान की संकीर्ण राजनीति का अंत कर दिया है लेकिन जीतनराम मांझी की हालिया बगावत ने इसकी कलई खोल दी। उन्होंने अपनी बगावत को कामयाब करने के लिये पहचान की राजनीति का जिन्न बाहर निकाला तो इसके प्रति वितृष्णा जताने वाली राजनैतिक शक्तियां उनके पाले में खड़ी हो गयीं। पाखण्ड और अवसरवाद की राजनीति की यह पराकाष्ठा थी।
अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का कलेवर प्रदान करने की महत्वाकांक्षा सर्वविदित है लेकिन वे फिलहाल दिल्ली में ही अपने प्रयोग को कामयाब करके आगे बढऩे की रणनीति का संकेत दे रहे हैं जबकि यह एक कपट चाल है। वे पार्टी को योगेन्द्र यादव जैसे सामाजिक न्याय वादियों के हवाले हो जाने से बचाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने पूंजीवादी धूर्तता के अनुरूप पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के पहले प्राकृतिक चिकित्सा के बहाने बंगलुरु जाने का इंतजाम कर लिया ताकि उन पर योगेन्द्र यादव को निकलवाने का आरोप न लगे। साथ ही प्रस्थान के पहले उन्होंने यह भी प्रचारित कराया कि वे तो आप के संयोजक पद से पहले ही इस्तीफा दे चुके हैं। इस कारण राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जो हुआ उसका इल्जाम अपने सिर न आने को लेकर वे पूरी तरह आश्वस्त थे लेकिन कार्यकारिणी के एक सदस्य ने बैठक की गोपनीय कार्रवाई को सार्वजनिक करके केजरीवाल को बेनकाब कर दिया है। केजरीवाल का विश्वास है कि अगर कारपोरेट जगत में अपने आपको मोदी के बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर पाये तो यह शक्तियां ही उन्हें राष्ट्रीय कामयाबी सुनिश्चित करा देंगी। हालांकि यह दूसरी बात है कि कारपोरेट निर्देशित आदर्श लोकतंत्र के लिये भी एक व्यक्ति एक पद का सिद्धान्त उच्च परंपराओं के प्रतिमान के रूप में चिन्हित हैं।

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