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फिर जेरे बहस हैं गांधी

मुक्त विचार
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महात्मा गांधी को लेकर चर्चाओं का बाजार हमेशा गर्म रहता है। बहाना कुछ भी हो। मोदी सरकार बनी थी तो हिंदू कट्टरपंथियों ने गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को सही ठहराने से लेकर उसका मंदिर बनवाने तक की घोषणा करके पूरे देश का माहौल गर्म कर दिया था। उन लोगों को फटकारने के लिए मोदी खुद आगे आ गए जिसके बाद बहस की आंच पर पानी पड़ गया। अब इस राख से आंच कुरेदने का काम उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने किया है। हालांकि गोडसे भक्तों से जस्टिस काटजू की आलोचना का एंगिल बिल्कुल अलग है और उसे पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। भले ही इस मामले में राज्य सभा में बड़ी तत्परता से उनके खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया गया हो।
जस्टिस काटजू लीक से हटकर फैसला देने के लिए चर्चित रहे हैं। इस कारण जब तक वे न्यायाधीश रहे सरकारें उनसे बहुत परेशान रहीं लेकिन कमोवेश आम लोगों को उनका अंदाज बहुत लुभाता था। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद भी उन्होंने अपने तेवर बरकरार रखे। कई बार उनकी अलग चिंतन शैली की वजह से पत्रकार उनसे भड़क गए। जस्टिस काटजू का लगता है कि विवादों से चोली दामन का रिश्ता बन गया है इसलिए वे अपनी शैली को बदलना नहीं चाहते। महात्मा गांधी को ब्रिटिश एजेंट ठहराकर उन्होंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। यह दूसरी बात है कि खबर को सनसनीखेज बनाने के लिए संपूर्णता व संदर्भ से काटकर उसके एक अंश को हाईलाइट करने की वर्तमान पत्रकारिता की परंपरा के चलते कहने वाले का असली आशय बदल जाता है और कई बार जस्टिस काटजू जैसे लोग जिनके कथन पर समाज में सार्थक बहस छिडऩी चाहिए खलनायक करार देकर खारिज कर दिए जाते हैं।
महात्मा गांधी के बारे में जस्टिस काटजू के बयान का मीडिया में हुआ पोस्टमार्टम भी इसी त्रासदी का एक नमूना है। जस्टिस काटजू के कथन में से महात्मा गांधी को उनके द्वारा ब्रिटिश एजेंट करार दिए जाने का भाव हाईलाइट कर प्रोजेक्ट किए जाने से उनके द्वारा उठाए गए एक विचारणीय मुद्दे पर नए सिरे से जो बहस शुरू होनी चाहिए थी उसकी गुंजाइश को शुभारंभ के पहले ही विराम लगता नजर आ रहा है। दरअसल काटजू ने यह कहा है कि गांधी जी हमेशा राजनीति में धर्म के प्रवेश की पैरोकारी करते रहे जिससे ब्रिटिश सरकार का फूट डालो और राज करो का एजेंडा पोषित हुआ। जस्टिस काटजू के इस कथन से पूरी तरह असहमत नहीं हुआ जा सकता। गांधी जी द्वारा राजनीति में धार्मिक मुद्दों के लिए आग्रह पर सबसे पहले मुहम्मद अली जिन्ना ने आपत्ति जताई थी। गांधी जी ने उस समय टर्की में अतातुर्क कमाल पाशा द्वारा खिलाफत समाप्त किए जाने की घोषणा के खिलाफ मुसलमानों को लामबंद करके आंदोलन छेड़ दिया था। मुहम्मद अली जिन्ना ने उनको टोका था कि उन्हें खिलाफत बचाने के आंदोलन से बचना चाहिए क्योंकि राजनीति और धर्म के घालमेल के नतीजे खतरनाक होंगे। जिन्ना की बात सही साबित हुई। गांधी जी ने जिन अली बंधुओं को इस आंदोलन का नायक बनाया था बाद में उन्हीं ने कहा कि गांधी एक काफिर है। उसकी सराहना से अच्छा मेरे लिए कितने भी निकृष्ट मुसलमान की सराहना करना है। गांधी जी की इसी राजनीति से चिढ़कर जब जिन्ना लंदन में निर्वासन बताने के बाद भारत लौटे तो उन्होंने धार्मिक कट्टरवाद की राह पकडऩे के लिए आधुनिक विचारधारा की केेंचुल उतार फेेंकी और इसका परिणाम देश को विभाजन के रूप में झेलना पड़ा।
गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी धारा को कुंद किया। इसमें भी कोई संदेह नहीं है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर शहीद-ए-आजम भगत सिंह तक के मामले में उन्होंने जो भूमिका निभाई उसके लिए इतिहास में उन्हें हमेशा गलत ठहराया जाएगा। आजादी की लड़ाई के समय काफी पहले यहां के बड़े व्यापारियों, उद्योगपतियों यहां तक कि सामंती वर्ग को भी अहसास हो गया था कि अब ब्रिटिश शासक सीधे तौर पर यहां अपना शासन बनाए रखने के इच्छुक नहीं हैं। आने वाले समय में उनके हितों को नुकसान न हो इसके लिए वे बेहद सजग थे और अपने प्रति वफादारी का इनाम देने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश शासन भी इस बात को तत्पर था कि वह अपने जाने के बाद उनके रौब-रुतबे और हुकूमत में कोई फर्क नहीं आने देगा। इसके लिए सत्ता हस्तांतरण को ब्रिटिश शासन ने अपने अनुकूल एक वर्ग तैयार किया और महात्मा गांधी ब्रिटिश सरकार के इस खेल में जाने-अनजाने में सबसे बड़े माध्यम बने। ब्रिटिश सरकार ने उस समय के न्यस्त स्वार्थों को पे्ररित किया कि वे गांधी का साथ दें। इसकी बड़ी कीमत देश की जनता ने चुकाई। आजादी के बाद भी ब्रिटिश सरकार के काले कानून चलते रहे। उनकी भाषा का आधिपत्य बना रहा। उनकी सांस्कृतिक श्रेष्ठता के प्रति देश का शासक वर्ग और ज्यादा कायल होता गया जिससे भारतीय चिंतन और परंपरा की विरोधी इस संस्कृति की जड़ें आज इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि उसे हिलाने की कल्पना नहीं की जा सकती। गांधी जी यथास्थिति वादियों के प्रतिनिधि थे। इसी कारण उन्हें हर शास्त्रार्थ में बाबा साहब अंबेडकर के सामने नीचा देखना पड़ा।
फिर भी गांधी जी में कई ऐसे गुण थे जो उन्हें महान व्यक्तित्व साबित करते हैं। उन्होंने अपनी मांगें मनवाने के लिए अनशन को हृदय परिवर्तन का माध्यम बनाया और कई बार इस मामले में उन्होंने अपने जीवन तक को दांव पर लगा दिया। इस नैतिक अस्त्र से उन्होंने ब्रिटिश सरकार को ही नहीं झुकाया बल्कि डा. अंबेडकर को भी ब्लैकमेल किया और इसके बाद आजादी के तत्काल बाद हुए कलकत्ते के दंगे में हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के खून के प्यासे नेताओं ने उन्हीं की वजह से सद्भाव बहाल में योगदान करने की शपथ हथियार फेेंक कर ली। आज के पूंजीवादी विश्व की बहुत बड़ी आवश्यकता गांधी का दर्शन है इसलिए सारा विश्व गांधी जी के आगे नतमस्तक नजर आता है। यह दर्शन जनवादी भावनाओं को विस्फोटक हद तक ले जाने से रोकने में सबसे कारगर सेफ्टी बाल्व है। जो भी हो लेकिन इस दर्शन की वजह से गांधी जी के प्रति मुख्य धारा का विश्व समुदाय जिस तरह श्रद्धा व्यक्त करता है उसकी वजह से पूरे देश का मान कहीं न कहीं बढ़ता है। अंतर्राष्ट्रीय जगत में गांधी जी भारतीय प्रतिष्ठा के सूचक के रूप में स्थापित हो चुके हैं। इस कारण कुल मिलाकर गांधी जी के प्रति श्रद्धा भाव बनाए रखना राष्ट्रीय कर्तव्य की तरह हो गया है लेकिन यथास्थितिवाद कोई भी सिस्टम अनंतकाल तक नहीं चला सका है। बाजारवाद से भी इस कारण लोगों का मोहभंग होना तय है और तब शायद गांधीवाद भी सर्वहारा विश्व समुदाय के निशाने पर हो। खुले विचारों की वर्तमान दुनिया में गांधी जी पर काटजू द्वारा दिए गए बयान से इतना हंगामा क्यों है बरपा।

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