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कांशीराम के व्यक्तित्व की विराटता को नजरअंदाज करना अभी भी जारी

मुक्त विचार
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कांशीराम ने पुणे में सरकारी नौकरी में आने के बाद जातिगत भेदभाव को बहुत नजदीक से देखा। वे सामाजिक गतिविधियों के तटस्थ दर्शक बनकर अपनी जिंदगी चलाने वाले लोगों में से नहीं थे। उनके अंदर गलत व्यवस्था को बदलने का जज्बा था। वर्ण व्यवस्था के खिलाफ इसी कारण उन्होंने अपनी नौकरी दांव पर लगाकर संघर्ष छेड़ा। वे अच्छे वक्ता नहीं थे लेकिन बाबा साहब डा. अंबेडकर के विचारों का उन्होंने खूब हृदयंगम किया था। बाबा साहब डा. अंबेडकर अगर मेन आफ आयडिया थे तो कांशीराम मेन आफ एक्शन। उन्होंने बाबा साहब के इस मंत्र को आत्मसात किया कि सत्ता की चाबी हासिल करके व्यवस्था में बदलाव किया जा सकता है।
वे जब शुरू में राजनीति में आए तो सफलता उनसे बहुत नजर आ रही थी। फिर भी कांशीराम के जज्बे में कभी कोई कमी नहीं आई। बाबा साहब अंबेडकर ने स्थापित किया था कि वर्ण व्यवस्था से लडऩे के लिए हरावल दस्ते के लोगों को न केवल साधनों से मजबूत होना पड़ेगा बल्कि उसके पहले अपने व्यक्तित्व में नैतिक विराटता को तराशने पर ध्यान देना होगा। बाबा साहब पर उनके जीवन काल में भी और आज भी आरोप लगते हैं कि वे ब्रिटिश शासन के एजेंट थे लेकिन जब उनका देहावसान हुआ तो आने वाली पीढिय़ों के लिए विरासत में बहुत बड़ी धन संपदा छोडऩे की बजाय उन्हें कर्ज का बोझा छोड़कर इस दुनिया से जाना पड़ा। जो लोग अपने मुताबिक सही विचारधारा को जमीन पर उतारने का काम करते हैं उन्हें रणनीति के तहत काम करना पड़ता है। उनके अनुयायी जानते हैं कि वे अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह ईमानदार हैं। इस कारण अगर वे कोई ऐसा आभास कराने वाली क्रिया करें जिससे उनकी नैतिक साख पर दूसरे लोग संदेह करें तो अपने लोगों में उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध नहीं होती। ब्रिटिश शासन से समय-समय पर सहयोग लेने और देने का काम बाबा साहब ने रणनीति के तहत ही किया जिसकी वजह से वर्ग शत्रुओं ने भले ही उन्हें कितना बदनाम क्यों न किया हो लेकिन उन्हें मानने वाले उनके प्रति कभी शंकालु नहीं हुए।
बाबा साहब की तरह कांशीराम ने भी रणनीतिक तौर पर कई ऐसी युक्तियां आजमाईं जिनसे आलोचकों को उन पर आरोप लगाने का मौका मिलता। जब उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए हैलीकाप्टर की व्यवस्था हेतु जयंत मल्होत्रा का साथ लिया तो उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। कांशीराम इससे विचलित नहीं हुए। क्रांतिकारी विचारधारा के क्षेत्र में दो तरह के लोग होते हैं। एक तो वे लोग जो यथास्थितिवादी वर्ग चेतना से वास्तविक तौर पर कभी ऊपर ुउठने का साहस नहीं कर पाते लेकिन नई और लीक से हटकर प्रतिपादित विचारधारा के प्रति उनके मन में आकर्षण इसलिए रहता है ताकि वे उससे जुडऩे का स्वांग करके अपनी व्यक्तिगत छवि अलग बना सकेें। विचारधारा की इस फैशन परस्ती में भारत के कम्युनिस्ट सबसे आगे हैं। वर्ग विहीन समाज का सपना साकार हो इसके लिए वे बहुत चिंतित नहीं थे। कम्युनिस्ट का लेबिल लगाकर उन्होंने खुद की छवि चमकाई इसीलिए वे किताबी जकड़बंदियों से पार जाकर कोई रणनीति नहीं बना सके। यही नहीं जिन लोगों ने इन जकड़बंदियों से अलग कोई प्रयोग करने की कोशिश की और उम्मीद यह थी कि उनके प्रयोग से ज्यादा प्रभावी हस्तक्षेप होगा उन्हें बदनाम करके ध्वस्त कर देने में भी उन्हें महारथ हासिल रही है। हद दर्जे के जातिवादी और शोषक वर्ग परस्ती वाले भारतीय कम्युनिस्टों की अलग ही नस्ल है जिन्होंने निर्णायक मौके पर हमेशा दगा करने का काम किया है।
बहरहाल बात हो रही थी कांशीराम की। बुर्जुवा लोकतंत्र में पार्टी चलाने के लिए फंड की जरूरत होती है। कांशीराम दलित अधिकारियों और कर्मचारियों से यह फंड शुरूआत में इकट्ठा करते थे। वामसेफ पर पहले पार्टी का अस्तित्व टिका रहा। आलोचक कहते थे कि कांशीराम निजी अयाशियों के लिए भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों को चंदा वसूलकर संरक्षण देने का काम कर रहे हैं। उन पर यहां तक आरोप लगा कि उन्हें भारत में एक और विभाजन का आधार तैयार करने के लिए सीआईए से पैसा मिल रहा है। कांशीराम ने सारे आरोप सहे और अपने रास्ते पर आगे बढ़ते गए। कांशीराम की जब मृत्यु हुई तो उन आरोपों का जवाब उनके वर्ग शत्रुओं को अपने आप मिल गया। कांशीराम ने अपने परिवार की जायदाद बढ़ाने के लिए पार्टी फंड का एक पैसा खर्च नहीं किया था इसलिए वे इतने बड़े नेता हो गए लेकिन उनका परिवार जहां का तहां रहा। उनका खुद का जीवन भी बेहद सादा था। हाफ शर्ट और पैंट भर पहनावा और कपड़ों के नाम पर कुछ जोड़ी ऐसे पैंट शर्ट। उन्होंने अपना कोई मकान नहीं बनवाया। विवाह नहीं रचाया कि उनकी संताने पार्टी फंड का दुरुपयोग कर पातीं। दूसरे वर्ग के ईमानदार नेताओं की बहुत चर्चा होती है पर कांशीराम किसी भी ईमानदार नेता से ज्यादा ईमानदार थे यह बात उनके जीवन का पूरा सच आ जाने के बावजूद कोई कहने के लिए तैयार नहीं है।
जिसे मीडिया कहते हैं हमेशा वह समाज के प्रभावशाली तबके का उपकरण होती है इसीलिए अपने लोगों के साथ संवाद के कांशीराम ने दूसरे साधन अपनाए। वे खुलेआम पत्रकारों को अपनी सभाओं से भगा देते थे। दबेकुचले समाज से सुदूर क्षेत्रों में जाकर सीधा संपर्क करने की उनकी रणनीति ने उनके आंदोलन को भ्रूण हत्या का शिकार होने से बचाया। अगर उन्होंने मीडिया का जरा भी सहारा लिया होता तो इससे जुड़ी मंथराएं उनके आंदोलन का किला वैसे ही भेद देतीं जैसे पश्चिमी मीडिया और समाज प्रेरित प्रतिमानों के सम्मोहन में गर्वाचोफ ने ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रका का नारा देकर सोवियत संघ को बर्बाद कर दिया। क्रांतिकारी बदलाव के लिए काम करने वाली शक्तियों को कांशीराम की इस मामले में सोच से हमेशा प्रेरणा लेनी होगी कि वे मुुनाफे पर विश्वास करने वाली और वर्गीय दृष्टिकोण पर अपनी मानसिकता में पूर्णतया आधारित मीडिया पर विश्वास न करें।
कांशीराम की सिद्धांत वादिता का दूसरा पहलू यह है कि उन्होंने सुरक्षित क्षेत्र से कभी चुनाव न लडऩे का संकल्प घोषित किया था और बार-बार चुनाव हारने के बावजूद इस संकल्प का उन्होंने अंत तक निर्वाह किया इसीलिए वे केवल एक बार इटावा से मुलायम सिंह के सहयोग से लोक सभा में पहुंच पाए थे। कांशीराम की जुबान बहुत खरी थी। वे बोलने और विचार व्यक्त करने में कभी भी कूटनीतिक कपट का सहारा नहीं लेते थे। जो उनका वोट बैंक था जरूरत पडऩे पर उन्होंने उसकी कमियों पर भी बेबाक टिप्पणी करने से गुरेज नहीं किया और उन्हें राजनीतिक तौर पर इसकी वजह से भारी हानि उठानी पड़ी।
लेकिन इंसान कितना भी महान क्यों न हो वह गलतियों का भी पुतला होता है। कांशीराम ने भी गलतियां कीं। जब वे देवीलाल और चंद्रशेखर जैसे घोर दलित विरोधी जातियों के रहनुमाओं के साथ मंडल आयोग की रिपोर्ट विफल करने के लिए हुई सभा में बैठ गए। वे उन शक्तियों के प्रति बहुत सतर्क रहते थे जो बहुजन वर्ग से न होते हुए भी उसके अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष का दावा रखते थे। इसी कारण वे कम्युनिस्टों को हरा सांप कहते थे और जहां चंद्रशेखर से जुडऩे में उन्हें परहेज नहींथा वहीं वीपी सिंह के वे हद दर्जे के आलोचक थे। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के बतौर मायावती पर पूरा भरोसा करके भी बहुत गलती की। मायावती उन्हें भारत रत्न दिलाने के लिए तो संघर्ष कर रही हैं लेकिन उन्होंने बहुजन मिशन का तानाबाना छिन्नभिन्न करके उनके सारे संघर्ष और तपस्या को बेमानी कर दिया है। आज बसपा वर्ण व्यवस्था से कहीं नहीं लड़ रही बल्कि वर्ण व्यवस्था को जातिगत भाईचारा समितियां बनाकर उन्होंने और ज्यादा टानिक दिया है। उनके क्रियाकलापों से पिछड़ी जातियां दलित आंदोलन से हमेशा के लिए छिटक गई हैं। पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद भी मायावती ने बसपा के एजेंडे को अमल में लाने की दृढ़ता नहीं दिखाई। पहले उन्होंने प्रचारित किया था कि वे जमीन की सीलिंग की सीमा घटाकर बारह एकड़ करेंगी लेकिन बाद में वे इससे मुकर गईं। आज वे वर्ण व्यवस्था विहीन समाज की रचना के लिए वोट नहीं मांगतीं बल्कि कांशीराम के मिशन की बजाय उन्हें अपनी गर्वनेंस के आधार पर वोट मांगना ज्यादा फलदाई लगता है। निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश में पिछले तीन दशक में जितने मुख्यमंत्री बने उनमें मायावती का कार्यकाल सबसे बेहतर साबित हुआ है लेकिन बहुजन समाज ने कांशीराम के पीछे खड़े होकर जो संघर्ष किया और जो जोर जुल्म झेले उनका मकसद किसी अच्छे प्रशासक के हाथ में सत्ता सौंपकर तात्कालिक तौर पर संतुष्ट हो जाना नहीं था। मायावती के यथास्थितिवाद से बहुजन समाज के लिए आगे चलकर फिर शोषण और दमन की स्थितियां कायम हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। भारत में हर सामाजिक आंदोलन की नियति तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले ही स्खलित हो जाने की रही है। कांशीराम के आंदोलन के संदर्भ में भी बसपा के मायावती युग को देखते हुए यही बात कही जा सकती है।

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