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अटल जी को भारत रत्न! कुछ ओझल से पहलू

मुक्त विचार
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अटल बिहारी वाजपेई को भारत रत्न से अलंकृत करने का एलान तो पहले ही हो चुका था लेकिन इस अलंकरण को प्रदान करने में अनूठापन दिखाने या मजबूरीवश एक महत्वपूर्ण प्रोटोकाल को तोड़ा गया। यह सम्मान देने के लिए पहली बार राष्ट्रपति अलंकृत व्यक्तित्व के आवास पर स्वयं पहुंचे। उनको भारत रत्न देने के फैसले पर भाजपा का भाव विभोर होना तो स्वाभाविक है। इस कारण सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े नेताओं द्वारा उनकी महानता का बखान करने का बहुत महत्व नहीं है लेकिन प्रतिपक्ष की नेता सोनिया गांधी ने भी उनके व्यक्तित्व की प्रशस्ति में अत्यंत उच्च कोटि की टिप्पणियां व्यक्त कीं। यह भारत में लोकतांत्रिक परंपराओं के गरिमापूर्ण विकास का एक ऐसा सोपान है जिस पर गर्व किया जाना चाहिए।
अटल जी को भारत रत्न देने का फैसला उन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का है जिन्हें अटल जी ने गुजरात दंगों के बाद राजधर्म सीखने की नसीहत देकर बेहद आहत किया था और नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के बारे में अभी तक जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनमें सर्वोपरि यह है कि वे अपनी किसी आलोचना को भूल नहीं पाते और उससे हिसाब-किताब चुकाने की बात भी कभी नहीं भूलते। अटल जी भी इसमें अपवाद हो सकते हैं। इसकी गुंजायश बिल्कुल भी नहीं है लेकिन बदला लेने का यह एक दूसरा तरीका भी हो सकता है या फिर यह बात हो सकती है कि अटल जी की उपयोगिता उनके लिए इस मामले में इतनी ज्यादा है कि जिससे उनके साथ हिसाब चुकता करने की भावना उनके लिए गौण हो गई। फिर भी यह संयोग है कि उन्होंने अटल जी को इस अवसर पर भाजपा और राष्ट्रीय राजनीति के पितामह के रूप में संबोधित किया। जिन लोगों ने महाभारत पढ़ी है उन्हें जरूर याद आता होगा कि पितामह की उपाधि परिवार के सबसे मान्य लेकिन अभिशप्त बुजुर्ग की पहचान के बतौर महाभारत में रूढ़ कर दी गई थी। महाभारत के पितामह यानी भीष्म का अंतिम समय सबसे ज्यादा कष्टप्रद रहा। महाभारत के युद्ध में कई बड़े योद्धा मारे गए लेकिन वे सब युद्ध मैदान में ही वीरगति को प्राप्त हो गए। दूसरी ओर धर्मराज न कहे जाने के बावजूद धर्म के सर्वोच्च मानक के रूप में जीवन निर्वाह करते रहे भीष्म पर युद्ध में ऐसे बाण चलाए गए जिससे वे तत्काल वीरगति को प्राप्त होने की बजाय छह माह तक उन्हीं में बिंधे कराहते रहे। वे सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण में जाने की प्रतीक्षा के नाते ऐसा करने को विवश थे। यह तो एक बनाई हुई बात लगती है लेकिन सच्चाई यही है कि भीष्म से ज्यादा यातनाएं जीवन के अवसान के समय किसी को नहीं झेलनी पड़ीं। भीष्म को यह सजा क्यों मिली ईश्वर के रूप में घोषित हुए अपने युग के सबसे महान नीति विशारद और दूरदृष्टा कृष्ण ने उनको शायद अंतिम समय में उनके पास जाकर बताया भी है। भीष्म अनजाने में इस बात के दोषी थे कि उन्होंने व्यक्तिगत मान को उस साम्राज्य के हित से ज्यादा भाव दिया जिसके वे संरक्षक थे। अगर वे बहुचर्चित प्रतिज्ञा को लेकर जड़ न बने रहते तो शायद हस्तिनापुर साम्राज्य के विनाश की स्थितियां पैदा न होतीं। प्राकृतिक न्याय की दृष्टि में उनका यह अपराध अक्षम्य माना गया और उन्हें इसका खामियाजा भोगना पड़ा।
नरेंद्र मोदी भगवान श्रीकृष्ण नहीं हो सकते लेकिन भारत रत्न से अलंकरण के समय उन्होंने अटल जी को पितामह कहकर उनकी भीष्म जैसी अंतिम समय की कारुणिक नियति को उभार दिया है। अनुमान है कि यह भले ही अचेतन रूप से उनके द्वारा हुआ हो लेकिन वे परपीड़क आनंदानुभति के अपने मौलिक स्वभाव की वजह से ऐसा कहने की ओर अग्रसर हुए होंगे। हर पुरस्कार के साथ उसे देने वाली व्यवस्था का हित और स्वार्थ जुड़ा होता है। नोबल पुरस्कार को वैसे बेहद सम्मानीय माना जाता है लेकिन जो लोग सोवियत संघ के समय धीरे बहो दौन के लिए सोलोजेनेत्सिन को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने की राजनीति से परिचित हैं उन्हें मालूम है कि इससे अमेरिकी ध्रुव का निशाना कितना सधा। इसी नोबल पुरस्कार के माध्यम से अमेरिकी खेमे ने सोवियत संघ की लौह व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मुद्दा बनाने के लिए छेद करने का अवसर पाया जो कई दशक बाद गर्वाचोब जैसे नेता के रूप में उस व्यवस्था को पूरी तरह खोखला करके ध्वस्त करने का कारण बना। भारत रत्न को प्रदान करने में भी हमेशा राजनीतिक दृष्टिकोण रहे हैं। हर व्यवस्था ने यथास्थिति में सहायक बने व्यक्तित्वों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में इस अलंकरण को साधन बनाया। मात्र एक बार ऐसा हुआ जब भारत रत्न के माध्यम से बदलाव के क्रांति बीज का रोपण करने की कोशिश की गई। यह अवसर था जब बाबा साहब डा. अंबेडकर को मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया था।
संघ परिवार की आंतरिक राजनीति के संदर्भ में अटल जी को देखें तो वे प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने स्वयं सेवक होने पर सार्वजनिक रूप से गर्व जताने की हद तक जरूर चले गए थे लेकिन वे संघ की राजनीति में विद्रोही व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते रहे। उन्होंने जनता पार्टी की सरकार के समय ही विदेश मंत्री रहते हुए इंडियन एक्सप्रेस में एक ऐसा लेख लिख दिया था जिससे संघ तिलमिला गया था। अशोक सिंघल ने जब उन पर संतों को ले जाकर अयोध्या में विवादित स्थल पर ही मंदिर बनाने का विधेयक लाने का दबाव डाला तो उन्होंने साफ कह दिया था कि वे राज धर्म से परिचित हैं इसलिए कोई इस तरह की मांग स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने अनुसूचित जातियों के सरकारी कर्मचारियों अधिकारियों की पदोन्नति में उच्चतम न्यायालय के एक फैसले की वजह से आए व्यवधान का निराकरण करने में भी सामाजिक यथास्थितिवादियों की परवाह नहीं की। अपने दक्षिणपंथी विचारों के बावजूद वे भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने जिन्होंने दक्षिणपंथ के सिरमौर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति को भारत यात्रा के दौरान पूरी तरह औकात पर रखा और वे भी अटल जी के व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक होकर अपने अहम को परे करके उन्हें बड़े भाई-बड़े भाई कहते हुए ही विदा हुए।
इंडिया टुडे के संपादक रहे दिलीप मंडल ने अटल जी को भारत रत्न दिए जाने के बाद एक ब्लाग लिखा जिसमें उन्होंने अटल जी के प्रति श्रद्धावनत होते हुए भी उनके समय लिए गए तमाम ऐसे फैसलों की तरफ इशारा किया जिनसे यह साबित होता है कि सुधारवादी प्रगतिशीलता के बावजूद अटल जी अंततोगत्वा क्रांतिकारी नहीं बल्कि यथास्थितिवाद के पोषक ही थे। इसमें उनके कार्यकाल में संविधान समीक्षा आयोग के गठन और विनिवेश मंत्रालय बनाया जाना व इसके द्वारा बाल्को जैसी समृद्ध कंपनी को औने-पौने में निजी हाथों में बेचना शामिल था। बाजार और पूंजीवाद के बारे में माना जाता है कि वह अपने आरंभ काल में प्रगतिशील भूमिका निभाता है। इसी प्रवृत्ति के अनुरूप भारत में बाजार ने शुरू में जातिगत और सांप्रदायिक अस्मिता की जकड़बंदी से भारतीय नागरिकता को ऊपर ले जाने की भूमिका निभाई लेकिन बाद में उसने इन बुराइयों से समझौता कर लिया जबकि नादान लोग अभी भी इस प्रवंचना में हैं कि बाजारवाद के कारण स्थितियों में आए परिवर्तन से नई पीढ़ी में जातिवाद की भावनाएं समाप्त हो गई हैं। सच्चाई तो यह है कि बाजारवाद ने जातिवाद और संप्रदायवाद से गठजोड़ करके इनके सशक्तिकरण की भूमिका निभाना शुरू कर दिया है। हर जाति के लिए अलग-अलग देवता की पूजा को बल देकर बाजार ने उपभोक्तावाद के विकास की राह इसमें से निकाली है। आज दीपावली और नव वर्ष पर ही बधाइयों के एसएमएस नहीं होते बल्कि रक्षाबंधन, गुरु पूर्णिमा और हैप्पी रामनवमी, हैप्पी कृष्ण जन्माष्टमी के एसएमएस भी इन अवसरों पर छाए रहते हैं। दूरसंचार कंपनियों की इस ट्रेंड ने मौज कर दी है। पहले गणेश चतुर्थी मुख्य रूप से महाराष्ट्र का पर्व था तो काली पूजा बंगाल और सिंहवाहिनी दुर्गा पूजा पंजाब का लेकिन अब यह पर्व हर राज्य में उतनी ही धूमधाम से मनाए जाने लगे हैं। अब चमकीली लाल गोटीदार पट्टी देवी भक्तों द्वारा पहनने का रिवाज पंजाब तक सीमित नहीं रह गया। हर राज्य में नवरात्र के समय यह देवी भक्तों का मुख्य फैशन बन गया है। इस वजह से इन पट्टियों के बाजार में बूम आ गया है। जाहिर है कि ऐसे में बाजार जातिवाद और सांप्रदायिकता से क्यों लड़े। दूसरी ओर जातिवाद जैसी बेहद पिछड़ी और आधुनिकता विरोधी संरचनाओं के रहते हुए कानून के शासन के कायम होने की आशा कदापि नहीं की जा सकती। यह द्वंद्वात्मकता भारतीय समाज के लिए एक बड़े ऊहापोह का कारण बनी हुई है। अटल जी का व्यक्तित्व इसका तोड़ है जो यथास्थिति में भी अपनी उदारवादी और सुधारवादी प्रवृत्ति की वजह से सुïिवधाजनक समायोजन प्रस्तुत कर सकता है। ऐसे में अटल जी की शरण में जाने की याद मोदी को आई तो उसकी वजह साफ है कि वे जिन वर्ग शक्तियों से परिचालित हैं यह उनका तकाजा है।

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