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बुंदेलखंड में अब होने लगी किसानों की मौत की खेती

मुक्त विचार
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बुंदेलखंड में फसलों की खेती किसानों के लिए मौत की खेती में तब्दील होती जा रही है। वैसे तो बुंदेलखंड में हमेशा से ही किसानों के लिए मौसम प्रतिकूल रहा है। कोई कालखंड ऐसा नहीं गया जब यहां भीषण सूखे की मार न पड़ी हो। इसके बीच जीने का तरीका बुंदेलियों ने निकाला। चंदेलकालीन जल संरक्षण और संचयन पद्धतियां व संरचनाएं बुंदेलियों के इसी जीवट और प्रतिभा की निशानी हैं लेकिन अब इस अंचल में खेती पर संकट की अकेली वजह सूखा नहीं है। अनिश्चित मौसम ने इस अंचल में खेती के विनाश के कई नए रूप गढ़ दिए हैं। इस बार जो विनाश हुआ वह बेमौसम बारिश की शक्ल में आया।
2007 तक एक दशक लंबे सूखे ने बुंदेलियों के जीवट को हरा दिया था। इस दौरान हुईं किसानों की सैकड़ों आत्महत्याओं की वजह से बुंदेलखंड राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में छा गया। राष्ट्रीय राजनीति के केेंद्रबिंदु में इस त्रासदी ने बुंदेलखंड को स्थापित कर दिया। मनमोहन सरकार के समय कांग्रेस के राहुल का उडऩखटोला इसी के चलते कई जगह बुंदेलखंड में उतरा। सूखे के स्थाई निरोध के लिए भारीभरकम बुंदेलखंड पैकेज अस्तित्व में आया। मनमोहन सरकार द्वारा किसानों की कर्जमाफी के पीछे मुख्य प्रेरक तत्व बुंदेलखंड की ही त्रासदी रही।
लेकिन पिछले तीन वर्षों से साबित हो रहा है कि सिर्फ सूखा बुंदेलखंड के किसानों के दुर्भाग्य का कारण नहीं है। जीवन का प्रतीक जल भी खेती के लिए बैरी साबित हो रहा है।
2013 में 15 जून से ही बारिश शुरू हो गई थी। इसके बाद इसका अंत नहीं हुआ। नतीजतन न खरीफ की बुआई हो पाई और न ही रबी की। किसानों को भारी घाटा झेलना पड़ा। इसके बावजूद उन्हें तसल्ली थी कि अब आने वाले कुछ वर्ष शायद सूखे के होंगे लेकिन इसके बावजूद भूमिगत जल का संकट 2013 की अतिवृष्टि की वजह से अगले तीन साल तक नहीं होगा। इस बीच काफी नलकूप खुद गए थे जिससे किसानों को भरोसा था कि अल्पवर्षण की स्थितियों में भी सिंचाई करके वे खेतों से पर्याप्त उत्पादन लेते रहेंगे लेकिन अगले वर्ष यानी 2014 में बारिश ने नया ट्रेंड अपनाया। जब बुआई का सीजन निकल गया तब तक पानी बरसा नहीं और उस समय झड़ी लग गई जब फसलों में फूल आ रहा था। 2013 के कर्जे को इस साल चुकता कर पाना तो दूर उसका बोझा और बढ़ा लेना किसान की नियति बन गया। फिर भी उसने अपने साहस को किसी तरह से सलामत रखा।
इसकी मुख्य वजह थी कि रबी की वर्तमान फसल की बुआई के सीजन में कुल मिलाकर मौसम उसके लिए ठीक हो गया था। 2014 के अंतिम महीनों में उसे आस बंध गई थी कि इस बार इतनी अच्छी फसल होगी कि उसका पिछला घाटा काफी हद तक कवर हो जाएगा लेकिन जनवरी में थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल में मौसम के मिजाज बदलने से किसान सहमा लेकिन आगे चलकर मौसम निष्ठुर ही होता जाएगा इसका अंदाजा फिर भी वह नहीं कर सका था। होली तक फसल एकदम पक चुकी होती है। इसके बाद बारिश की झड़ी लगना या उपलवृष्टि का मतलब है कि किसानों की आंखों के सामने उसकी दुनिया का लुटना। इस कारण मौसम के झंझावत को इस समय पर बर्दाश्त करना उसके बूते में नहीं रह जाता लेकिन फरवरी में यही हुआ। मौसम की मार ने किसानों की व्याकुलता की सारी हदें तोड़ दीं। तैयार खड़ी फसल के बर्बाद हो जाने का गम, अगली रबी फसल आने तक साल भर घर में बिना अनाज के भोजन की व्यवस्था का गम और 2013 से न चुकाए गए बैंक कर्जे के मय ब्याज के भारीभरकम हो जाने का गम। अब किसान जान चुका है कि बैंक कर्जा टल नहीं सकता। इस कारण कर्ज वसूली में उत्पीडऩात्मक कार्रवाई के अदालती रोक से अब उसे बहुत ज्यादा तसल्ली नहीं रह गई। दूसरी ओर जमीन की महंगाई भी इस समय आसमान पर है। ऐसे में बैंक अपना कर्जा वसूल करने के लिए उसकी जमीन कुर्क करके नीलाम कराएगी इस आशंका पर जब किसान का चिंतन होता है तो वह अपनी बर्बादी को जमीन के मूल्य के रूप में पहुंचने वाली बीसियों लाख रुपए की चपत के रूप में देखता है और इतने परिमाण के नुकसान का एहसास किसान तो क्या अच्छे खासे व्यापारी के लिए भी असहनीय हो सकता है। यही वजह है कि खलिहान में फसल पहुंचने के कुछ ही समय पहले बारिश और उपलवृष्टि के रूप में खेतों में बरसी आफत को लेकर किसान के मन में कई बहुआयामी चिंताएं घुमड़ीं और खेत व खलिहान में दिल का दौरा पडऩे से किसानों की मौत का तांता लग गया। इसी के साथ कई किसान फांसी लगाकर, जहर खाकर या ट्रेन से कटकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो गए। एक अनुमान के अनुसार फरवरी और मार्च के महीने में उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में लगभग तीन सैकड़ा किसानों की अकाल मौतें हुई हैं। फिर चाहे वह हार्ट फेल से हों या खुदकुशी से। इतने छोटे अंतराल में अकाल मौतों का इतना बड़ा सिलसिला अभूतपूर्व है जिसने 2007 तक के दशक में हुई मौतों की गहनता को भी पीछे छोड़ दिया है।
केेंद्र से लेकर राज्य सरकार तक इससे हतप्रभ है लेकिन किसानों को किस तरह से तसल्ली दी जाए इस बारे में दोनों ही सरकारें फैसला नहीं कर पा रहीं। वैसे तो राज्य सरकार ने सदमे से किसानों की मौत के मामले में भी सात लाख रुपए तक के मुआवजे का एलान कर दिया है लेकिन अभी इसको लेकर कोई गाइड लाइन जिलों में नहीं पहुंची है। प्राकृतिक आपदा में मौतों को स्वीकार करना सरकार की नजर में गुनहगार बन जाने की ग्रंथि पाले अधिकारी ऐसी दशा में दिशाहारा हो गए हैं। वे फसल के नुकसान की वजह से जीवन के लिए घातक सदमे का ब्यौरा तैयार करने की बजाय किसानों की मौत के मामले में यह रिपोर्ट तैयार करवाने में लगे हैं कि इनका संबंध दैवीय आपदा से नहीं है। दैवीय आपदा से मौत के तकनीकी मानक से हटकर राज्य सरकार की सदमे से मौत के मामले में किसान के परिवार को मुआवजा देने का मानवीय सूत्र उनकी पकड़ में ही नहीं आ रहा जिससे स्थितियां और ज्यादा हाहाकारी हो गई हैं।
बहरहाल इस सूरतेहाल में केेंद्र सरकार को तत्काल किसानों के बैंक कर्जों की माफी का एलान करने के लिए आगे आना चाहिए। उधर राज्य सरकार को भी पिछले तीन साल की किसानों पर सभी बकायों की बकाएदारी माफ करने की घोषणा करनी चाहिए और बेमौत मरने वाले किसानों के आश्रितों की मदद के लिए केेंद्र राज्य सरकार को मिलकर पर्याप्त मुआवजे की घोषणा करनी चाहिए। एक और बुंदेलखंड पैकेज आना चाहिए जिसमें आजीविका के वैकल्पिक साधनों के विकास के लिए बुंदेलखंड में सभी मार्गों पर सुदृढ़ सड़केें, चौबीस घंटे सुनिश्चित बिजली व अन्य जरूरी ढांचागत व्यवस्थाएं की जा सकेें। देश के प्रमुख कारपोरेटों को भी संकट की इस घड़ी में किसानों की मदद के लिए आगे आना चाहिए। यह मदद अत्यधिक बर्बाद किसानों की नगद सहायता के रूप में भी होनी चाहिए और बुंदेलखंड जैसे अंचलों में गांव के बेरोजगारों को कौशल वृद्धि करके अपने उद्योगों में रोजगार के लिए ज्यादा से ज्यादा खपाने के रूप में भी।

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