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प्रोमिला शंकर की किताब

मुक्त विचार
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भारतीय प्रशासनिक सेवा की सेवानिवृत्त अधिकारी प्रोमिला शंकर की किताब गाड्स आफ करप्शन इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई है। सन् 2012 में सेवानिवृत्त हो चुकीं प्रोमिला शंकर ने इस किताब में कई राजनीतिज्ञों व वरिष्ठ अधिकारियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। हालांकि उत्तर प्रदेश के चर्चित आईपीएस अफसर अमिताभ ठाकुर ने सेवानिवृत्ति के बाद जेहादी दिखाने की अफसरों की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि प्रोमिला शंकर को नौकरी में रहते हुए गैरकानूनी दबावों के प्रतिकार का काम करना चाहिए था। अब जबकि वे नौकरी से रिटायर होकर सुरक्षित हो गई हैं तो उनके द्वारा क्रांतिकारिता झाडऩे का कोई मतलब नहीं है। अमिताभ ठाकुर के मूल शब्द चाहे जो हों लेकिन उनके कथन का आशय यही है। अमिताभ ठाकुर को प्रोमिला शंकर के सामने इस तरह के सवाल उठाने का हक इस कारण है कि वे खुद नौकरी में रहते हुए इस तरह का साहस दिखाने की मिसाल बन गए हैं।
आईएएस यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा औपनिवेशिक शासन की आईसीएस सेवा का स्वाधीनता उपरांत का संस्करण है। आईसीएस सेवा का गठन भारत में ब्रिटिश हुकूमत को मजबूत बनाए रखने के लिए किया गया था। किसी गैर हुकूमत का दूसरे देश में राज करना आसान काम नहीं है। उसका उद्देश्य चाहे कुछ हो लेकिन उसूलों के मामले में उच्चतम स्तर पर अपने को स्थापित रखकर ही ऐसी हुकूमत काम कर सकती है। आईसीएस अधिकारियों के बारे में हम कह सकते हैं कि साख के मामले में उनका कोई जवाब नहीं था। जैसे किसी उच्च कुल का गर्व होता है वैसे ही आईसीएस संवर्ग की आने वाली पीढ़ी अपने से पिछली पीढ़ी के अधिकारियों की परंपरा का बहुत ही गर्व के साथ उल्लेख करती थी। कई मामलों में आईसीएस अधिकारी सचमुच रूल आफ ला बनाए रखने के संदर्भ में स्टील फ्रेम वर्क कहलाए जाने के अधिकारी रहे। पर उनके परवर्ती संस्करण आधुनिक आईएएस सेवा के अधिकारियों के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। आज भी भले ही उन्हें कानून के शासन का लौह सांचा कहा जा रहा हो लेकिन अब इसका अर्थ एक सजावटी मुहावरे से ज्यादा नहीं रह गया। हालत तो यह है कि आईएएस अधिकारी ही आज नेताओं को इस कदर भ्रष्ट बनाने के लिए गुनहगार हैं। वे कानून के शासन की रक्षा नहीं करते बल्कि उसे पंगु करके कैसे स्वार्थ सिद्ध किए जा सकते हैं इसकी तरकीबें नेताओं को बताते हैं। अपने बैच के टापर प्रदीप शुक्ला इस बात के गवाह हैं जिन्होंने बाबू सिंह जैसे लोगों को सिखाया कि एनआरएचएम के बजट का अधिकतम भाग कैसे निजी तौर पर हड़पा जा सकता है। उसके नतीजे में वे और बाबू सिंह दोनों जेल पहुंचे। पहले किसी आईएएस अधिकारी का जेल पहुंचना अपवाद के तौर पर ही होता था और ऐसा प्रसंग बहुत बड़ी सनसनी का कारण बन जाता था लेकिन अब तो जेल की हवा खाने वाले आईएएस अधिकारियों की खास तौर से उत्तर प्रदेश में तो भरमार है जिनमें प्रदीप शुक्ला से पहले अखंड प्रताप सिंह और नीरा यादव जैसे नाम सामने आ चुके हैं जो अपने जमाने के बेहद तीरंदाज प्रशासक थे और कई मुख्यमंत्रियों ने जिनका महिमा मंडन किया था।
प्रोमिला शंकर अपने को दूध का धुला साबित करने की चाहे जितनी कोशिश करें लेकिन इस समय देश के जनसाधारण को बिल्कुल भी यकीन नहीं है कि कोई आईएएस अधिकारी ऐसा हो सकता है जो किसी भी दृष्टि से अपने को पाक साबित करे। हालांकि ऐसा नहीं है। कई आईएएस अधिकारी हैं जो बेहतर ढंग से अपना फर्ज अदा करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह सेवा इतनी बदनाम हो चुकी है कि जनसाधारण को किसी पर विश्वास नहीं है। पहले लगभग सभी आईएएस अधिकारी जब तक छोटे जिलों में कलक्टर रहते थे यानी दस साल की सेवा तक रिश्वत और कमीशन से अपना दामन पूरी तरह बचाए रखने के प्रति सजग रहते थे लेकिन अब तो ज्यादातर आईएएस अधिकारी ऐसे हैं जो कलक्टर बनने के पहले ही पैसा बनाना शुरू कर देते हैं।
जहां तक स्वाधीन देश की आकांक्षाओं के अनुरूप देश के सर्वोच्च नौकरशाहों को डालने का प्रश्न है इस मामले में भारतीय प्रशासनिक सेवा अपेक्षाओं पर कदापि खरी नहीं उतर पाई है। स्थिति यह है कि जैसे-जैसे लोकतंत्र का विकास हो रहा है वैसे-वैसे इस तरह की प्रतिबद्धता आईएएस अधिकारियों में और ज्यादा घटती जा रही है। आईएएस अधिकारी कहते हैं कि वे राजनीतिक दबाव की वजह से सही काम नहीं कर पाते जबकि हालत यह है कि वे जो काम करते हैं उनमें से केवल दस या बीस प्रतिशत के लिए वे राजनीतिक दबाव से मजबूर होते हैं शेष अस्सी प्रतिशत तक काम वे अपनी मर्जी से करते हैं। जिनमें शस्त्र लाइसेंस का काम भी शामिल है लेकिन नब्बे प्रतिशत आईएएस अधिकारी ऐसे हैं जो किसी जरूरतमंद को कभी शस्त्र लाइसेंस नहीं देते। अगर वे लाइसेंस में घूस नहीं लेते तो भी लाइसेंस तभी जारी करते हैं जब किसी नेता या उनसे उच्चाधिकारी अथवा किसी तेजतर्रार पत्रकार की सिफारिश हो। पीडि़त आदमी अगर उसके साथ कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं है तो उसकी शिकायत को तार्किक परिणति पर ले जाने की सूझ आईएएस अधिकारी के दिमाग में कभी नहीं रहती। अधिकांश आईएएस अधिकारी तो ऐसे हैं जो कि किसी शरीफ या निरीह आदमी से सीधे मुंह भी बात करना पसंद नहीं करते। जिनसे उन्हें नुकसान का भय रहता है वे केवल उन्हीं का काम करते हैं। आईएएस अधिकारी अगर चाहें तो राजनीति में बढ़ती खरपतवार पर काफी अंकुश लगा सकते हैं लेकिन यह उन्हीं की देन है कि आज नेता अवांछनीय तत्व बन रहे हैं। जाहिर है कि विघ्नकर्मियों मात्र को तवज्जो देने की उनकी मानसिकता इसके लिए मुख्य रूप से प्रेरक है। ऐसे लोगों को जब अपने संकट मोचक के रूप में आईएएस अधिकारी की बदौलत जरूरतमंद आदमी बार-बार देखता है तो वह उसे नेता बनाने को मजबूर हो जाता है और ऐसे नेता बाद में आईएएस अधिकारियों के लिए ही भस्मासुर साबित होते हैं। आईएएस अधिकारियों के साथ नेताओं द्वारा दुव्र्यवहार की लगातार बढ़ती प्रवृत्ति इसी का परिणाम हैं जिनका रोना रोने का कोई अधिकार आईएएस अधिकारियों को नहीं है। अगर उनका तिलिस्म टूटा है तो उसका मुख्य कारण उनका खुद का घटिया व्यवहार है।
हालांकि आज कुछ आईएएस अधिकारी ऐसे हैं जो कि गरीब पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकलकर सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा तक पहुंचे जिसकी वजह से उनके मन में यह एहसास है कि समाज के उस हिस्से का जो उनकी गर्भनाल है दर्द उन्हें दूर करना चाहिए। यह आईएएस अधिकारी गरीब फरियादी की बात सुनकर उसे सार्थक राहत पहुंचाने की कोशिश करते हैं। यही लोग आईएएस सेवा के लाइट पोस्ट हैं जिनकी रोशनी में इस सेवा के अधिकारी आगे बढ़ें तो यह सेवा वास्तव में महिमा मंडित हो सकती है। साथ ही आईएएस अधिकारियों की पदोन्नति को उनकी परर्फोमेंस से जोडऩे की नीति के तहत अब उनके सर्विस रिकार्ड में जहां-जहां उनकी तैनाती रही वहां-वहां किए गए अभिनव कार्य के अंक जोड़े जाने लगे हैं। इसके कई फायदे सामने आ रहे हैं। प्रोमिला शंकर जैसी अफसरों को सेवानिवृत्ति के बाद जिनसे उनकी नहीं पटी उनके खिलाफ किताब छापकर भड़ास निकालने का काम करने की बजाय यह करना चाहिए कि वे नए आईएएस अधिकारियों को अपने स्वाभिमान व इज्जत को बनाए रखने के साथ-साथ यशस्वी होने के गुर बताने के लिए किताब लिखें और जिसमें इस बात का प्रायश्चित भी हो कि अपनी कमजोरियों की वजह से इस दिशा में वे जो काम नहीं कर पाईं उसे उनके उत्तराधिकारी अधिकारी जरूर पूरा करेंगे।

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