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कठघरे में क्यों है न्याय पालिका

मुक्त विचार
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हाल में कुछ ऐसे अदालती फैसले आए हैं जिनसे न्याय पालिका खुद कठघरे में खड़ी हो गई है। वैसे तो न्याय पालिका को अवमानना कानून के तहत आलोचना से बहुत हद तक संरक्षण प्राप्त है लेकिन इस बार भड़ास के संपादक यशवंत सिंह जैसे पत्रकार न्याय पालिका के इस रक्षा कवच को हर जोखिम उठाकर भेदने का साहस दिखा रहे हैं। शायद लोगों का नैतिक समर्थन भी उनके साथ है जो कि सोशल मीडिया पर उनके समर्थन में आ रही प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है। दूसरी ओर खुलेआम हो रहे हमलों के बावजूद न्याय पालिका संयम की मुद्रा अख्तियार किए हुए है जिसकी वजह को लेकर सोचा जाए तो बहुत कुछ अनुमानित किया जा सकता है। किसी कानूनी, शारीरिक या अन्य भय से अर्जित सर्वोच्चता बहुत खोखली होती है अगर उसके साथ लोगों की श्रद्धा वास्तविक रूप से न जुड़ी हो इसलिए हर शक्तिशाली व्यक्ति व संस्था को अगर उसमें जरा भी विवेक और चातुर्य है तो लोकलाज की परवाह जरूर करनी चाहिए। भगवान श्रीराम ने यूं ही मां सीता के परित्याग का निर्णय नहीं ले लिया था। वे जानते थे कि सीता जी निष्कलंक हैं लेकिन अयोध्या के सर्वोच्च अधिनायक होते हुए भी उन्होंने एक व्यक्ति को उनके प्रति अशोभनीय धारणा व्यक्त करते सुना तो उन्होंने सीता जी के संदर्भ में कठोर फैसले की बाध्यता महसूस की। चूंकि सीता जी सिर्फ उनकी पत्नी नहीं बल्कि अयोध्या राज्य की प्रथम महिला थीं और जब राज्य के अधीश्वर और पटरानी को ही लोग नैतिक व्यवस्था की लक्ष्मण रेखा लांघने का अपराधी समझने लगें तो उस राज्य का इकबाल खत्म हो जाने का खतरा है क्योंकि शासन का इकबाल फौज से नहीं नैतिक अनुशासन की उसकी दृढ़ता से कायम होता है।
फिल्म स्टार सलमान खान की जमानत, तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमत्री जयललिता की आय से अधिक संपत्ति मामले में रिहाई यह फैसले मीडिया ट्रायल के इस युग में न्याय पालिका के लिए अत्यंत अपशकुनकारी साबित हुए हैं। न्यायिक क्षेत्र में एक कहावत प्रचलित है कि न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए कि न्याय हुआ है। हो सकता है कि उक्त दोनों मामलों में वर्तमान न्याय प्रणाली में तकनीकी नुक्तों का सर्वोच्च महत्व होने की वजह से न्याय पालिका का रुख पूरी तरह बेदाग हो लेकिन लोग यह मान रहे हैं कि इनमें न्याय नहीं हुआ है। इन दोनों विलक्षण फैसलों के साथ कई और फैसले भी नत्थी हो गए हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के मामले में बंद रहे पूर्व मंत्री बादशाह सिंह की बेदाग रिहाई आदि-आदि।
ऐसा नहीं है कि एक दिन में जनमत की इस धारणा का विस्फोट हुआ है कि न्याय पालिका पटरी पर ठीक नहीं चल रही बल्कि इसके पीछे घटनाओं की एक बहुत दूर तक जाने वाली पृष्ठभूमि है। अब तय यह किया जाना है कि यह हमारी न्याय प्रणाली में दोष उभर आने की वजह से हो रहा है या इसके पीछे व्यक्तियों की नीयत कोई कारण है लेकिन इस पर विचार होना आज ऐतिहासिक आवश्यकता बन चुका है। न्याय पालिका किसी राष्ट्र राज्य की रीढ़ होती है इसलिए न्याय पालिका के रुख और जनता की अंतरात्मा या सहज विवेक का निष्कर्ष एक रूप होना नितांत जरूरी है। अगर इनमें विरोधाभास उभरता है तो वह खतरनाक हो सकता है। प्रसिद्ध सोवियत क्रांतिकारी लेनिन का कथन था कि जनता का फैसला कभी गलत नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो समाज का सामूहिक फैसला हमेशा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुकूल होता है। जैसे इस समय भ्रष्टाचार का इतना बोलबाला है लेकिन जो लोग इससे लाभान्वित हैं उनकी भी सामूहिक राय यह है कि भ्रष्टाचार का कठोरता से उन्मूलन किया जाना चाहिए। इस कारण न्याय पालिका को खुद अपने बारे में जनमत की प्रतिकूल धारणाओं को संज्ञान में लेकर उपचारात्मक कदम उठाने चाहिए। हर तंत्र और सिद्धांत पुराने पडऩे के साथ विकृति की ओर मुड़ जाना और फिर उसमें सुधार की कवायद यही है सृष्टि की गतिशीलता के पीछे का औचित्य।
मायावती के खिलाफ जब आय से अधिक संपत्ति और ताज कारीडोर भ्रष्टाचार मामले में शीर्ष न्यायालयों में सुनवाई चल रही थी तो यह आभास कराया गया था कि उन्हें दोष सिद्ध किए जाने की केवल औपचारिकता पूरी होनी है। वैसे तो न्याय पालिका की दहलीज पर उनके गुनाह प्रमाणित हो चुके हैं लेकिन वे बरी हो गईं तो यह एंटी क्लाइमेक्स की तरह था। अकेली बात मायावती की नहीं है मुलायम सिंह और उनके परिवार के बारे में भी यही बात है जिसमें न्याय पालिका से उनको क्लीन चिट मिलना जनता आज तक नहीं पचा सकी है। बोफोर्स दलाली मामले में चंद्रशेखर सरकार के समय जब पुलिस ने एफआर लगाई थी उस समय उच्चतम न्यायालय ने उक्त एफआर को खारिज कर मंतव्य दिया था कि उक्त मामले में दलाली का लेनदेन स्वयं सिद्ध है इसलिए कौन इसमें संलिप्त रहे उन्हें सींखचों के भीतर पहुंचाकर ही यह व्यवस्था अपनी विश्वसनीयता बनाए रख सकती है लेकिन बाद में न्याय पालिका ने ही इस मामले को दाखिल दफ्तर कर दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि स्विटजरलैंड से सीबीआई ने जो साक्ष्य जुटाए हैं वे भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत ग्राह्यï नहीं हो सकते इसलिए मामले की सुनवाई आगे जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। चौदह साल तक यह मामला चला जिसमें जितने की दलाली नहीं खाई गई थी उससे ज्यादा का खर्चा विवेचना के बहाने सीबीआई के अफसरों ने स्विटजरलैंड के टूर में खर्च कर दिया। वे जो पर्चे काटकर अदालत में भेज रहे थे उनके अवलोकन से पहले दिन से ही यह स्पष्ट था कि इनका साक्ष्य के रूप में कोई मूल्य नहीं है। फिर भी अदालत चौदह साल तक सुनवाई करती रही। यह तमाशा आखिर क्यों हुआ जिसमें देश के करदाताओं की पसीने की कमाई जी खोलकर बर्बाद की गई।
सिक्ख विरोधी दंगों के मामलों में जगदीश टाइटलर व सज्जन कुमार जैसे लोगों को सजा न मिल पाने के प्रसंग न्याय पालिका की कमजोरी के उदाहरण के रूप में सामने रहे हैं। हाल में हासिमपुरा कांड में आरोपित पीएसी के जवानों का बरी हो जाना भी इसी की एक कड़ी है। दिल्ली की सत्ता में परिवर्तन के बाद गुजरात के दंगे के आरोपी राजनीतिज्ञों को न्याय पालिका से धड़ाधड़ क्लीन चिट मिल रही है। क्या यह केवल एक संयोग है। कुछ मामलों में राजनीतिक पूर्वाग्रहों की वजह से कुछ में सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों की वजह से सटीक न्याय में विचलन संभव है जिस पर उतनी प्रतिक्रिया नहीं होती जितनी सलमान खान और जयललिता के मामले में आए अप्रत्याशित फैसलों से हुई है। पुराने मामलों को जोड़कर अब तो लोगों को यह लगने लगा है कि रशीद मसूद तो बरी हो ही गए लालू भी बरी हो जाएंगे। कोई भी बड़ी शख्सियत आरंभिक न्यायिक चरण में ही सजा प्राप्त कर सकता है लेकिन अंततोगत्वा उसका मुक्त होना अपरिहार्य है। यह धारणा आम होती जा रही है। दूसरी ओर केेंद्रीय मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक के फोटो सरकारी विज्ञापनों में लगाने पर उच्चतम न्यायालय द्वारा लगाई गई रोक को लेकर बहुत सब्र रखते हुए भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जो प्रतिक्रिया जाहिर की है वह अकेली उनकी नहीं है बल्कि न्याय पालिका की अति सक्रियता से आहत कार्यपालिका की आम प्रतिक्रिया का इजहार है जिसमें यह धारणा बन रही है कि अति न्यायिक सक्रियतावाद संविधान में व्यक्त शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत की अïवहेलना की ओर जा रहा है।
बहरहाल मानव द्वारा एक पूर्ण व्यवस्था का निर्माण असंभव है इसलिए मानवीय संस्थाओं की अपनी सीमा है। न्याय पालिका से जुड़ी नई बहस के साथ कई नए पहलू जन्म ले रहे हैं। सोचना होगा कि एक क्षमतावान व्यक्ति जब कानून को लगातार धता बताता हुआ समानांतर सत्ता की हैसियत अर्जित कर लेता है तब व्यवस्था की स्थिरता बनाए रखने के लिए न्याय पालिका का उसके संदर्भ में समझौता करना क्या नियति की अपरिहार्यता नहीं है। ऐसे में यह भी सोचना होगा कि लोकतंत्र में स्थापित हो जाने के बाद लोगों के मूर्ति भंजन का बोझा सिर्फ न्याय पालिका पर डालना कहां तक न्याय संगत है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि भगवान राम की तरह स्थापित लोग लोकलाज के प्रति ज्यादा संवेदनशील होने को बाध्य हों। इसके लिए जनमत या समाज की भूमिका को ज्यादा प्रभावशाली बनाया जाए। इसी बहस के बीच व्यक्तिवादता के कारण समाज नाम की संस्था को सुनियोजित ढंग से कमजोर किए जाने के चलते उत्पन्न हो रही अराजकता और उस पर नियंत्रण के नाम पर वैधानिक सशक्तिकरण की मृग मरीचिका को लेकर पुनर्विचार की मांग भी कहीं न कहीं चेतन अचेतन में जोर पकड़ रही है।

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