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सीधे सरल राज्यपाल के आगे पानी मांग रहे सूरमा

मुक्त विचार
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वक्त वक्त की बात है। जिनके सामने आईबी के एक्स चीफ टीवी राजेश्वर राव पानी मांग गए आज मौजूदा राज्यपाल की घेराबंदी के आगे वे सारी सूरमाई भूलकर सिर पकड़कर बैठे हुए हैं। ऐसा न होता तो शायद शाहजहांपुर के पत्रकार जोगेंद्र सिंह की हत्या के मामले की जांच तक पत्रकारों व बुद्धिजीवियों के कितने ही आंदोलनों के बावजूद शुरू न की जाती। शुक्रवार को राज्यपाल राम नाइक ने इस मुद्दे पर जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से बात की तो उनका अंदाज जवाब तलब करने का था। मुख्यमंत्री को पसीना छूट गया और मौके की नजाकत को समझते हुए अगले ही दिन उन्होंने दफन किए जा चुके उक्त मामले के प्रेत को फिर बाहर निकाला। ताबड़तोड़ कार्रवाई के तहत शाहजहांपुर के चौक थाने के हाल ही में हटाए गए प्रभारी निरीक्षक प्रकाश राय समेत जोगेंद्र को आग लगने के वक्त मौजूूद पांच पुलिस कर्मी निलंबित करने का फरमान जारी हो गया। आईजी कानून व्यवस्था ने बाकायदा प्रेस ब्रीफिंग में इसकी जानकारी देते हुए यह तक संकेत दिया कि जोगेंद्र सिंह का मृत्यु पूर्व बयान जिसमें उन्होंने अपने को आग से जलाने के आपराधिक षड्यंत्र का मुख्य सूत्रधार पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्य मंत्री राममूर्ति वर्मा को घोषित करते हुए प्रकाश राय सहित पांच पुलिस वालों पर आरोप लगाया है कि उन्होंने ही पेट्रोल उनके ऊपर छिड़क कर उन्हें आग लगाई है अदालत से हासिल किया जाएगा और इसे बाकायदा विवेचना अधिकारी की केस डायरी में शामिल कराया जाएगा। ऐसा होने का मतलब है कि सरकार ने राममूर्ति वर्मा के बचाव का इरादा छोड़कर उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर करने की मानसिकता बना ली है। यह सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के पूर्व घोषित रुख के विपरीत कदम है यानी मद में चूर सरकार आखिर राज्यपाल के तेवरों की वजह से घुटने टेकने को मजबूर हो गई है।
टीवी राजेश्वर राव (उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बतौर कार्यकाल 8 जुलाई 2004 से 27 जुलाई 2009 तक) को यूपीए सरकार ने जानबूझकर उत्तर प्रदेश का मोर्चा संभालने के लिए भेजा था ताकि वे तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की निरंकुश शासन शैली को पटरी पर रख सकेें लेकिन पहलवानी के माहिर मुलायम सिंह ने टीवी राजेश्वर राव को भी अपने चरखा दांव में ऐसा उलझाया कि वे सारा सयानापन भूल गए। मुलायम सिंह के संग उन्हें बहुत फजीहत के साथ अपना कार्यकाल गुजारना पड़ा। उन्हें सुकून मिला जब 2007 में प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो गया इसीलिए तब सत्ता में वापस आई मायावती को बरतने में उन्होंने दूध का जला छांछ भी फूंक फूंक कर पीता है की तर्ज पर पूरी सतर्कता बरती ताकि मायावती का ईगो किसी भी तरह आहत न हो और राजभवन व मुख्यमंत्री के बीच भूल कर भी ठनने की नौबत न आए। जब राजेश्वर राव जैसे गवर्नर मुलायम सिंह को सीधा न कर पाए हों तो किसी और की मजाल क्या समझी जा सकती थी लेकिन समय की गति ऋजुरेखीय नहीं होती। खांटी संघी पृष्ठभूमि के राम नाइक को मोदी सरकार ने जब उत्तर प्रदेश का गवर्नर बनाने का फैसला लिया था तो मुलायम सिंह ने कुल मिलाकर राहत ही महसूस की थी। यह दूसरी बात है कि ऊपर से सौम्य और सरल दिखने वाले राम नाइक ने कुछ ही दिनों में अखिलेश सरकार को असहज करना शुरू कर दिया। कानून व्यवस्था, लोकायुक्त की रिपोर्ट, विश्वविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर प्रेस के सामने उनकी बेबाक बयानबाजी से मुख्यमंत्री आखिर चिढ़ गए। उन्होंने और उनके मंत्रियों ने प्रतिवाद करना शुरू किया। बात नगर विकास मंत्री मु. आजम खां की राज्यपाल के लिए अशोभनीय ललकार तक पहुंच गई। उस समय राम नाइक की बेचारगी देखने लायक थी। सपा खेमा यह सोचकर खुश था कि आखिर राज्यपाल को अपनी हैसियत मालूम हो गई है लेकिन यह अंतरिम अध्याय था निर्णायक नहीं।
राम नाइक ने जिस तरह से फिर एक बार राज्य सरकार पर हावी होना शुरू किया उससे यह साफ हो गया कि प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी का भी पूरा वरदहस्त उन पर है। राजभवन से ज्यादा टकराव पर कहीं अपने दम पर पूर्ण बहुमत में संचालित हो रही केेंद्र सरकार राज्य के लिए कोई दुस्साहसिक कदम न उठा ले। इस आशंका ने सपा के शीर्ष नेतृत्व में सिहरन भर दी इसलिए उसके प्रतिवाद में पूर्व की भांति आक्रामकता नहीं रह गई। हद तो यह हो गई है कि राज्यपाल के पैंतरों ने अखिलेश सरकार को पूरी तरह पस्त हिम्मत कर दिया है। शाहजहांपुर के पत्रकार जोगेंद्र सिंह का मामला इतना ज्वलंत था कि अखिलेश सरकार को इसमें मंत्री का बचाव करने के लिए अपनी प्रतिष्ठा जोडऩा ही नहीं चाहिए थी लेकिन फासिस्ट शैली के लिए अभिशप्त हो चुके सपा नेतृत्व ने आदत की लाचारी की वजह से फिर चूक कर दी। सपा के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव ने यह बयान देकर बहुत बड़ी गलती की कि किसी के खिलाफ मुकदमा कायम होने का मतलब यह नहीं है कि उसे दोषी मान लिया गया है। जांच के बाद ही यह तय हो सकता है। जोगेंद्र सिंह मामले में उनके इस बयान का मतलब था कि चाहे जितना कोहराम मचे पर राज्य सरकार राममूर्ति वर्मा का बाल बांका नहीं होने देगी। इसके पहले उनका नाम जुड़ा होने की वजह से ही मामला इतना संवेदनशील हो जाने के बावजूद जांच के नाम पर पुलिस पूरी तरह खामोश बैठी थी। आरोपी प्रभारी निरीक्षक प्रकाश राय को झांसी स्थानांतरित करके एक तरह से सेफ कर दिया गया था। इन सबके पीछे अंदाज ऐसा था जैसे पत्रकारों से कहा जा रहा हो कि तुम भौंकते रहो तुम्हारे भौंकने से सरकार को क्या फर्क पड़ता है। होगा वही जो सरकार चाहेगी।
ऐसे में ही राज्यपाल का हस्तक्षेप सामने आया। उन्होंने शुक्रवार को अखिलेश यादव से इस मामले में जिस तरह वार्ता की उससे सत्ता के गलियारे में हड़कंप मच गया। राममूर्ति वर्मा को गलत ठहराने और पत्रकार को जलाकर मारने के मामले की सही जांच कराने की मांग पर जोर देने की वजह से अपनी ही पार्टी के नेता पूर्व विधायक देवेंद्र पाल सिंह को बाहर का रास्ता दिखा देने वाले सपा के शीर्ष नेतृत्व को सारी हेकड़ी एक क्षण में भूल जानी पड़ी। जोगेंद्र सिंह का बेटा राजवेंद्र सिंह 1 जून को उन्हें जलाए जाने के मामले का चश्मदीद गवाह है और उसी ने राममूर्ति वर्मा व प्रकाश राय के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया है। राजवेंद्र का कहना है कि पिता के मृत्यु पूर्व बयान और उसकी पुख्ता गवाही के बावजूद कोई कानूनी आधार न होते हुए भी अभी तक जिस तरह राममूर्ति वर्मा व प्रकाश राय की गिरफ्तारी नहीं होने दी गई है उससे उसको कतई विश्वास नहीं है कि राज्य की पुलिस मशीनरी इस घटना की निष्पक्ष जांच कर सकती है। राजवेंद्र अभी भी घटना की जांच सीबीआई को सौंपने की मांग कर रहा है और सूूरत-ए-हाल यह हैं कि कहीं राजभवन सरकार की सिफारिश का इंतजार किए बिना ही सीबीआई जांच की संस्तुति की अभूतपूर्व कार्रवाई अपने स्तर से न कर दे। ऐसा लगता है कि जैसे राजभवन ने निर्णायक मूड बना लिया हो। विधान परिषद के नामित सदस्यों के लिए प्रस्तावित सूची के मामले में भी नाटकीय बदलाव आ सकता है। इस सूची को कई आपत्तियों के साथ राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को वापस भेज दिया था लेकिन आपत्तियों का कोई जवाब दिए बिना मुख्यमंत्री ने भी राज्यपाल को सूची ज्यों की त्यों दोबारा भेज दी। उन्हें अभी तक यह उम्मीद रही होगी कि राज्यपाल राजी कुराजी कैसे भी हो उसी सूची पर मुहर लगाएंगे लेकिन अब उनको अपने इस अंदाजे में बदलाव करना पड़ेगा। यह हो सकता है कि इस मुद्दे पर भी मुख्यमंत्री को झुकने में ही गनीमत समझ में आए और वे सूची को संशोधित करने का राज्यपाल का इशारा कबूल कर लें।
वैसे देखा जाए तो सपा में आए इस पिलपिलेपन की वजह मुलायम सिंह राज परिवार में चल रही आंतरिक उठापटक है। परिवार में स्थापित हुए नए शक्ति केेंद्र ने अपने ही मुखिया के वर्चस्व पर प्रश्नचिह्नï लगाना शुरू कर दिया है। जब मुलायम सिंह को नेता मानकर जनता दल परिवार ने महाविलय की दिशा में कदम बढ़ाना शुरू किया था तो भाजपा का नेतृत्व शीर्ष स्तर तक दबाव में आ गया था। मुलायम सिंह को साधने के लिए अखिलेश सरकार के रास्ते में कोई रुकावट खड़ी न करने का एहतियात केेंद्र तक बरतने लगा था लेकिन मुलायम सिंह के अपनों को ही उनका वर्चस्व बरकरार रहना हजम नहीं हुआ। प्रो. रामगोपाल यादव जो कि समाजवादी पार्टी में नए गाडफादर के रूप में नमूदार हो चुके हैं ने बेधड़क कह दिया कि जनता दल परिवार का विलय कम से कम बिहार विधान सभा के चुनाव तक तो होगा ही नहीं। अखिलेश यादव ने भी अपने पिता की प्रतिष्ठा के खिलाफ जाते हुए रामगोपाल यादव के निश्चय के साथ खुद को भी जोड़ दिया। दरअसल पिता की अपने अनुज शिवपाल सिंह यादव व अमर सिंह के साथ आज तक बरकरार अनुरक्ति अखिलेश को दूरगामी दृष्टि से अपने भविष्य के लिए खतरा नजर आती है इसलिए वे चाहते हैं कि अब मुलायम सिंह केवल मानद सुप्रीमो बने रहें। वास्तविक रूप से पार्टी में उनका कोई दखल न रह जाए। यह दूसरी बात है कि मुलायम सिंह में जो चातुर्य, साहस और तेज है उसकी जगह फिलहाल उनके परिवार में कोई दूसरा नहीं ले सकता। इसी के साथ जयललिता से अघोषित संधि हो जाने के कारण मोदी सरकार काफी हद तक बेफिक्र भी हो गई है इसलिए देश के सबसे बड़े सूबे में अपना परचम लहराने का मंसूबा बांधना उसके लिए स्वाभाविक है। राजभवन के इस कदर चड्ढी गांठने पर आमादा हो जाने के रणनीतिक निहितार्थ हैं। अगर मुलायम सिंह एकीकृत जनता दल महापरिवार के मुखिया घोषित हो जाते तो शायद राज्यपाल की भृकुटियां इतना न तनतीं। बहरहाल एक बात यह भी है कि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में पार्टी या सरकार को पारिवारिक जागीर की तरह चलाने की एक सीमा है। यह सीमा शायद समाजवादी पार्टी ने पार कर ली है इसलिए एक डेड लाक उसके रास्ते में पैदा हो गया है। कहीं यह न हो कि समाजवादी पार्टी का अपना क्लाइमेक्स पूरा हो चुका है और इसके बाद अब उसकी नियति बिखराव के गर्त में जाने की बन रही हो।

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