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बदले की भावना से फिर जलील किया आडवाणी को

मुक्त विचार
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मोदी सरकार के प्रति मीडिया के रूमानी हद तक झुकाव का दौर बीत चला है। धीरे धीरे उनके प्रति नकारात्मक खबरें मीडिया में जोर पकड़ रही हैं। भाजपा में उनकी कार्यशैली को लेकर मची उठापटक पर केेंद्रित खबरें हर रोज मीडिया की सुर्खी बन रही हैं। इसे दंभ कहें या नियति की कठपुतली बन जाने की उनकी बेबशी मोदी मीडिया को साध पाने का अपना हुनर आजमाने से लगातार चूक रहे हैं। स्थिति तो यह है कि जाने अनजाने में वे स्वयं ही अपनी गतिविधियों से नकारात्मक खबरों का उद्दीपन कर रहे हैं।
शुक्रवार को नई दिल्ली में भाजपा की ओर से आयोजित आपातकाल बंदियों के सम्मान समारोह में फिर उनकी ओर से कुछ ऐसा किया गया जिसमें पार्टी की अंतर्कलह के क्लाइमैक्स पर पहुंच जाने की सनसनी का पुट है। आपातकाल बंदियों में पार्टी के सारे नेता तो सम्मानित किए गए लेकिन लालकृष्ण आडवाणी नहीं। उन्हें तो इस समारोह के लिए न्यौता तक नहीं भेजा गया था। लालकृष्ण आडवाणी पूरे उन्नीस महीने आपातकाल में जेल में रहे। इसके अलावा वे पार्टी के मार्गदर्शक मंडल के भी सदस्य हैं। उन्हें किस औचित्य के तहत सम्मान के लिए नहीं बुलाया गया यह बताना पार्टी नेतृत्व के लिए नामुमकिन है।
अब यह साफ हो चला है कि लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी के स्थापना दिवस समारोह, बेंगलूरू में आयोजित राष्ट्र्रीय कार्यकारिणी की बैठक और मोदी सरकार के एक वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में मथुरा में आयोजित सभा में न पूछा जाना सुनियोजित था। इसके पीछे न कोई तर्क है न कोई वजह। किसी प्रतिशोध के तहत उनके साथ ऐसा किया जा रहा है। अटल बिहारी वाजपेई तो हमेशा के लिए रोग शैया पर पड़ चुके हैं वरना वर्तमान नेतृत्व को लगता है कि पार्टी के हर वटवृक्ष से खतरा है और जो सुलूक आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी से हो रहा है वह अटल जी के साथ अगर उनमें सक्रियता बनी रहती तो न होता यह कहना आसान नहीं है। यह दूसरी बात है कि अटल जी को लोगों को निपटाना भी खूब आता था। उन्होंने गोविंदाचार्य से लेकर आडवाणी तक को जिस तरह निपटाया उससे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। मोदी उन पर भारी पड़ते या वे अपने चिरपरिचित कौशल को दिखाकर बिना आवाज किए मोदी को नेपथ्य में ढकेल देते इस पर तो अब केवल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं।
बहरहाल भारतीय जनता पार्टी को एक सामूहिक नेतृत्व की पार्टी माना जाता है। हालांकि संघ परिवार ने जब जूनियर मोस्ट होते हुए भी उनके जेबी अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष के रूप में स्वीकार कर लिया था तो यह पार्टी के इतिहास और रीति नीति में बड़ा परिवर्तन था लेकिन जो खबरें आ रही हैं उसके मुताबिक अपनी मूल नीति से विचलन के दुष्परिणाम अब संघ को भी चिंतित करने लगे हैं। ऐसे में आडवाणी का कथन फिर प्रासंगिक हो उठता है जिसमें उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि अभी देश में फिर आपातकाल लागू होने का खतरा टला नहीं है। भाजपा में मोदी इज भाजपा और भाजपा इज मोदी का माहौल तो बना ही दिया गया है। व्यक्ति की निरंकुशता को बढ़ावा मिलने से ही संस्थाएं कमजोर होती हैं। अभी यह खतरा केवल पार्टी के स्तर पर है लेकिन कल को यह लोकतंत्र के तमाम अवयवों पर भी दिखाई दे सकता है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया बदले जाने के बाद न्याय पालिका तक इस अंदेशे से पीडि़त है। मंत्रियों के निजी सचिवों की नियुक्ति के मामले में भी एकाधिकारी प्रवृत्ति उजागर हो चुकी है। हालांकि पहले इस पर उंगली उठाने की हिम्मत किसी को इसलिए नहीं हो रही थी कि मामला नया नया था और यह काम इस आड़ में किया जा रहा था कि सत्ता के गलियारों में पिछली सरकार में मंत्रियों की पसंद के आधार पर निजी सचिवों की नियुक्तियां होने से ही दलाल तंत्र को बढ़ावा मिला था लेकिन अब लगातार एक सिलसिले को देखने के बाद संपूर्णता में जो निष्कर्ष उभर रहा है वह सिद्धांतों को अपने हितों के लिए इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति को झलकाता है। अगर स्वच्छ राजनीति की इतनी ही चिंता वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान को होती तो मोदी ने जयललिता को भ्रष्टाचार के मुकदमे में बरी होने के बाद तत्काल बधाई न भेजी होती। वर्तमान न्यायिक प्रक्रिया तकनीकी है जिसका लाभ कई बार दोषी उठा लेते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में जयललिता की वास्तविकता क्या है मोदी को अच्छी तरह मालूम है कि जनता की अदालत इसे भलीभांति जानती है। अब ललित मोदी गेट में सुषमा स्वराज से लेकर वसुंधरा राजे तक के निहित स्वार्थ के संबंधों के लगातार हो रहे अनावरण के बाद मोदी का निर्णायक रुख क्या होगा इससे और उनकी नीयत स्पष्ट हो जाएगी।
मोदी के एक तंत्रवाद से पार्टी के सारे दिग्गज असुरक्षा बोध से ग्रस्त हो गए हैं इसलिए पार्टी में उनके प्रति विद्रोह की आग जोर पकड़ती जा रही है। कई दिग्गजों ने अप्रत्यक्ष रूप से उन पर ऐसे हमले किए हैं जिनसे विरोधी खेमा तक स्तब्ध रह गया है। ऐसे में याद आता है इंदिरा गांधी का हुनर जिन्होंने 18 जनवरी 1982 को संपूर्ण विपक्ष द्वारा समर्थित ट्रेड यूनियनों के भारत बंद की ऐतिहासिक सफलता की रिपोर्टें आने के बाद इस खबर को पाश्र्व में धकेलने के लिए अप्रत्याशित रूप से उसी दिन महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले का इस्तीफा ले लिया थाा। इसके बाद भारत बंद की सुर्खी की जगह महाराष्ट्र में नेतृत्व परिवर्तन बन गया था। मीडिया की खबरें जनता के मनोवैज्ञानिक सूचकांक को प्रभावित करती हैं इस कारण हर चतुर नेता अपने खिलाफ खबरों के रुख को मोडऩे की कोशिश करता है। फिर अभी भी मीडिया का बहुतायत मोदी से सम्मोहित है लेकिन घटनाचक्र कुछ ऐसा हो रहा है कि वह भी नकारात्मक खबरें परोसने से अपने को रोक नहीं पा रहा। क्या यह मोदी के राजनीतिक कौशल की कमजोरी को उजागर नहीं कर रहा।

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