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भारत के हाथ से लगातार फिसल रही है घाटी

मुक्त विचार
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जम्मू कश्मीर में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ सरकार बनाने का भाजपा का दांव देश पर भारी पड़ रहा है। राज्य की स्थिति में इस सरकार के गठन के बाद गुणात्मक परिवर्तन आया है। पहले कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के हिमायतियों की संंख्या बहुत कम थी। अलगाववादी नेताओं में ज्यादातर या तो जम्मू कश्मीर की अधिकतम स्वायत्तता की मांग कर रहे थे या उनका आग्रह यह था कि भारत और पाकिस्तान दोनों से अलग कश्मीर को संप्रभु स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्य किया जाए लेकिन आज ऐसा लगता है कि सारे अलगाववादी धड़े राज्य के पाकिस्तान में विलय के पक्ष में एकजुट हो गए हैं। केेंद्र के पास इस स्थिति से निपटने के लिए कोई विकल्प नहीं है। किंकर्तव्य विमूढ़ता की स्थिति की वजह से केेंद्र की ओर से कश्मीर को लेकर कोई चर्चा तक नहीं की जा रही लेकिन इस शुतुरमुर्गी अदा के कारण चुनौती से छुटकारा मिलने की सहूलियत नहीं मिल जाती। कश्मीर की चुनौती से केेंद्र को आंख से आंख मिलाकर बात करनी होगी और इस मामले में अपनी नीति और रुख स्पष्ट करना होगा।
इसके पहले उमर अब्दुल्ला की सरकार कश्मीर में थी। वह भ्रष्ट और नाकारा सरकार भले ही हो लेकिन उमर अब्दुल्ला के जहन में कम से कम एक बात तो थी कि उनका पाकिस्तान के साथ निर्वाह नहीं हो सकता। उनका जनाधार और राज्य के आवाम में अब्दुल्ला परिवार की विश्वसनीयता का जबरदस्त क्षरण हो चुका था लेकिन वे इसके बावजूद भारत के साथ अधिकतम स्वायत्तता की मांग करते हुए बने रहने के पक्ष में परचम लहराए हुए थे। आज हालात बहुत बदतर हो चुके हैं। राज्य विधान सभा चुनाव के समय ही भाजपा की नीतियों से जम्मू और कश्मीर घाटी में जो परस्पर विरोधी धु्रवीकरण हुआ उसके चलते पाकिस्तान की पक्षधरता घाटी में मजबूत हुई है। जहां जम्मू और लद्दाख क्षेत्र में भाजपा को जबरदस्त सफलता मिली वहीं घाटी के नतीजे एकतरफा पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के पक्ष में गए। यह तो अच्छा हुआ कि मुख्यमंत्री पद पर अपनी बेटी महबूबा को आसीन कराने की जिद छोड़कर गठबंधन के लिए बाध्यता की वजह से मुफ्ती मोहम्मद सईद ने खुद ही राज्य के नेतृत्व को संभालने की सहमति अंततोगत्वा दे दी। मुफ्ती मोहम्मद सईद को लेकर आश्चर्य होता है कि ये वही सईद हैं जिन पर देश ने इतना भरोसा किया कि उन्हें गृह मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। आज वे कश्मीर घाटी में भारत के बचेखुचे अस्तित्व को भी खोखला करने में लगे हुए हैं। पहले दिन से ही राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने वाले मुसर्रत आलम बट्ट जैसे चरमपंथियों को रिहा करके महिमा मंडित करवाने की मुहिम छेड़कर उन्होंने अपने खतरनाक इरादे स्पष्ट कर दिए थे। भारतीय जनता पार्टी को इसकी वजह से बेहद धर्मसंकट झेलना पड़ा। सरकार बचाने की खातिर सईद ने मुसर्रत को फिर गिरफ्तार करवाने सहित कुछ तात्कालिक समझौते जरूर किए लेकिन धारणा यह है कि अंतिम रूप से वे पाकिस्तान में घाटी के विलय की परिस्थितियां तैयार करने की भूमिका तैयार करने से बाज नहीं आए हैं। उनके द्वारा प्रतिष्ठा दाव पर लगाये जाने की वजह से ही भारतीय जनता पार्टी और केन्द्र सरकार को झुककर प्रमुख पाकिस्तान समर्थित नेता गिलानी को पासपोर्ट देने के लिये बाध्य होना पड़ा।
मुफ्ती मोहम्मद सईद के मुख्यमंत्री बनने के बाद से घाटी में रोजाना पाकिस्तानी झंडे फहराए जा रहे हैं और पुलिस व सुरक्षा बलों पर हमले हो रहे हैं। भाजपा इस संदर्भ में पूरी तरह असहाय सी होती जा रही है। केेंद्रीय नेतृत्व के दबाव की वजह से राज्य के नेता भले ही इसका प्रतिवाद खुल्लमखुल्ला न कर पा रहे हों लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें निश्चित रूप से भारी घुटन महसूस हो रही होगी। खबरें यह आ रही हैं कि चरमपंथियों के खिलाफ मुखबिरी करने वालों को राज्य में हुए निजाम में बदलाव के बाद अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। उन्हें सीक्रेट फंड से मदद मिलती थी लेकिन इस फंड में अब भारी कटौती कर दी गई है। नतीजतन उनके पास भुखमरी से बचने के लिए पाकिस्तान समर्थित पाले में चले जाने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। जो मुखबिर पाला बदल करने को तैयार नहीं हैं चरमपंथी उनकी पहचान उजागर हो जाने की वजह से उनकी हत्याएं करने में जुटे हैं। उपद्रवियों को नियंत्रित करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करवाकर मुफ्ती मुहम्मद सईद की सरकार ने पुलिस का मनोबल रसातल में पहुंचा दिया है। उधर आतंकवाद विरोधी विशेष कार्यबल में जानबूझकर उन अफसरों को तैनाती दी जा रही है जिन्हें आतंकवाद विरोधी आपरेशन का पहले कोई अनुभव नहीं रहा। जाहिर है कि आतंक विरोधी अभियान को पंगु बनाने में सईद सरकार कोई कसर नहीं छोड़ रही। घाटी में भारत के अन्य क्षेत्रों के लोगों को बसाने की बात तो दूर कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास तक की हिम्मत केेंद्र सरकार नहीं कर पा रही। मुफ्ती मोहम्मद सईद में एक प्रतिशत भी इस बात की झलक नहीं दिख रही है कि वे मुख्यमंत्री पद हासिल करने के बाद इसकी लोलुपता में पाकिस्तान मोह छोडऩे के लिए तत्पर हो पाए हों। भारतीय संविधान के प्रति प्रेम के नाम पर वे केवल दिखावा कर रहे हैं जो कि छिपी हुई बात नहीं रह गई। उग्र पंथ इस कदर बढ़ता जा रहा है कि इस्लामिक स्टेट तक से राज्य के चरमपंथी तार जोडऩे की कोशिश में लग गए हैं। दुनिया के सबसे खतरनाक और बर्बर आतंकी संगठन के रूप में चिह्निïत हो चुके आईएसआईएस की पैठ अगर कश्मीर घाटी में कायम होती है तो यह न केवल भारत बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए खतरे की घंटी बज सकती है। अपने आपको विश्व नेता के रूप में पेश करके अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का सूरमा जता रहे नरेंद्र मोदी इस मोर्चे पर भी विफल हैं। इसीलिए चीन और अमेरिका से इस मोर्चे पर जो समर्थन उन्हें मिलना चाहिए वह भी हासिल नहीं हो रहा जबकि इन दोनों देशों को भी आईएसआई के सिर उठाने से भारी खतरा महसूस होता है।
मनमोहन सिंह सरकार के जमाने में यह सुविधा तो थी कि उसकी ढिलाई की वजह से अगर कश्मीर में कोई वारदात हो जाती थी तो भारतीय जनता पार्टी उसके खिलाफ झंडा लेकर खड़ी हो जाती थी। चरमपंथियों से निपटने में अक्षमता का प्रदर्शन न हो जाए मनमोहन सरकार इससे डरती थी इसलिए अकर्मण्यता छोड़कर उसे घाटी की हालत संभालने के लिए मुस्तैद होना पड़ता था पर आज घाटी में बहने वाले तमाम दरियाओं और झीलों में खुल्लमखुल्ला भारतीय वजूद को डुबोने की जो कोशिश हो रही है उसके विरुद्ध देश में कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं हो रही। वजह यह है कि जो लोग कश्मीर में अलगाव को हवा मिलने का भय दिखाकर देश की जनता में जोश पैदा करते थे। अब वे खुद ही कटघरे में हैं जिससे खामोश हैं जबकि दूसरे लोग राजनीतिक मजबूरियों की वजह से इस मामले में मुखर होने से रहे। नतीजतन कश्मीर को लेकर राष्ट्रीय अवाम में उदासीनता जैसा माहौल छा गया है।
एक समय था जब वीपी सिंह ने घाटी में खुली जीप में दौरा किया था और उस समय बेहद जज्बाती माहौल बन गया था। यहां तक कि यासीन मलिक जैसे अलगाववादी नेता हिंसा की बात छोड़कर भारत के प्रधानमंत्री को सुरक्षा कवर देने के लिए आगे आ गये थे तो एक नई शुरूआत होती दिख रही थी। वीपी सिंह ने एक नया सिद्धांत पेश किया था कि भारतीय राष्ट्रीय राज्य की स्थिरता के लिए उसे काफी हद तक खुद मुख्तार राज्यों के संघ के माडल के रूप में स्वीकार करना होगा और लगभग सारे अलगाववादी इस सिद्धांत के दायरे में कश्मीर समस्या के हल के लिए सहमत हो गए थे। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की हिमायती भाजपा का घाटी को लेकर कोई प्रस्ताव वीपी सिंह के माडल जैसा नहीं हो सकता लेकिन वे कोई प्रस्ताव तो लेकर आएं। भाजपा ने तो कश्मीरियों की राय लेकर समस्या के समाधान का फार्मूला निकालने के लिये दिलीप पेंडगांवकर की अध्यक्षता वाली जो तीन सदस्यीय समिति बनायी थी उसकी रिपोर्ट तक पर गौर नहीं कर रही। विपक्ष में रहते हुए अनुच्छेद 356 खत्म करके कश्मीर को देश की मुख्य धारा में शामिल कर समस्या के अंतिम रूप से निदान का जो सब्जबाग वे दिखाते थे उसे भी उन्होंने भुला दिया है और कोई नया नक्शा बनाने के लिए उर्वरा प्रतिभा उनमें है नहीं। उधर वृहत्तर कश्मीर क्षेत्र में चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर जो तानाबाना बुन रहा है उसके संदर्भ में कापुरुषता जनित लापरवाही से कहीं ऐसी स्थितियां पैदा न हो जाएं कि कहना पड़े कि हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी।

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