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मोदी नवाज वार्ता : नेपथ्य से मंच तक

मुक्त विचार
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आतंकवाद और वार्ता दोनों साथ नहीं चल सकते लेकिन यह बात अलग है कि डींग हांकने के लिए लच्छेदार डायलाग कहना एक चीज है जबकि ठोस फैसले व्यवहारिक वास्तविकता से निर्देशित और प्रेरित होते हैं। रूस के उफा शहर में संघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में भाग लेने गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी छद्म आन को एक किनारे कर पाकिस्तान के अपने समकक्ष नवाज शरीफ से अंततोगत्वा निर्धारित समय से भी ज्यादा बातचीत की।
इसके पहले जब यूपीए सरकार में थी तो पाकिस्तान से किसी भी स्तर की बातचीत भाजपा के लिए कुफ्र बन जाती थी। अब वक्त यह है कि जब मोदी ने ऐसी अप्रत्याशित पहल की तो भाजपा कुछ कहने के पहले ठिठकने की बजाय बहुत जोश के साथ इसका स्वागत करती दिखी। यह इस देश की राजनीतिक पार्टियों का अजब पाखंड है। राष्ट्रीय महत्व के मामलों में भी उनके बीच कोई सर्वानुमति नहीं है। सत्ता में रहकर जो नीति उन्हें भली लगती है विपक्ष में आते ही उसमें उन्हें देश के लिए खतरा दिखने लगता है। यही बात दूसरे पक्ष की होती है। विपक्ष में रहते जिन चीजों का विरोध करते हुए जुबान नहीं थकती सत्ता में आते ही वही रास्ता उनको ठीक लगने लगता है सो कांग्रेस भी अपना धर्म निभा रही है। उसे मोदी और भाजपा को बेनकाब करने का एक अच्छा मुद्दा मिल गया है। बहरहाल इस तरह के दोहरेपन का अंत राजनीतिक पार्टियों को करना चाहिए। इससे उनकी विश्वसनीयता का क्षरण होता है।
मोदी नवाज शिखर वार्ता के पहले का मंजर देखिए। हाल तक पाकिस्तानी पक्ष के जिम्मेदारों के बयान से तनाव का पारा खतरे के बिंदु तक जा पहुंचा था। जियो टीवी को इंटरव्यू में पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने जिन अल्फाजों में भारत को चेलैंज करने की कोशिश की थी उनकी अनुगूंज अभी तक मिटी नहीं थी। ख्वाजा आसिफ ने कहा था कि पाकिस्तान को मजबूर किया गया तो वह अपनी रक्षा के लिए परमाणु ताकत का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं रखेगा। उन्होंने भारत की ओर इशारा करते हुए देश में आयातित आतंकवाद के बढऩे पर गुस्सा जताते हुए कहा था कि पाकिस्तान के सब्र का इम्तिहान न लिया जाए। उनसे पहले पाक के सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीक ने भी कम आग नहीं उगली थी। उन्होंने बहुत ही हठधर्मी रुख जाहिर करते हुए कहा था कि कश्मीर के लिए पाकिस्तान हर कीमत चुकाने को तत्पर है और कुछ और समय पहले पूर्व राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने भी प्रलाप के अंदाज में कहा था कि पाकिस्तान का परमाणु बम शब-ए-बारात के लिए नहीं है। हालांकि जनरल मुशर्रफ पाकिस्तान में चुके हुए व्यक्तित्व हैं इसलिए सुर्खियों में फिर आने को ऐसे सनसनीखेज वक्तव्य देना उनकी आदत बन गया है जिनको पाकिस्तान में भी कोई भाव नहीं देता।
दरअसल दोनों के बीच उत्तेजक माहौल की पहल भारत की ओर से ही हुई थी। जब भारतीय सुरक्षा बलों पर पूर्वात्तर के उग्रवादियों द्वारा किए गए हमले का बदला लेने के लिए म्यांमार की सीमा में सेना ने एक आपरेशन किया था और इसमें म्यांमार की सीमा में घुसकर कई आतंकवादियों को मार गिराने का दावा किया गया था। भाजपा के नेताओं ने अति उत्साह में इस आपरेशन को लेकर यह कह डाला कि अगर पाकिस्तान से लगी सीमा से आए आतंकवादियों ने देश में कोई जुर्रत की तो अब भारतीय पक्ष शिकायत करने और आरोप लगाने में समय खर्च करने की बजाय उसकी भी सीमा में घुसकर जवाब देगा। इस बड़बोलेपन का नतीजा यह हुआ कि पहले तो म्यांमार ने ही एतराज कर डाला और भारतीय पक्ष को सफाई की मुद्रा में आना पड़ा। कहा गया कि आपरेशन के लिए सीमा को पार नहीं किया गया था पर म्यांमार को सूचित करके उसकी सीमा से सटे इलाके में आपरेशन किया गया था ताकि एक तो म्यांमार को गलतफहमी न हो और दूसरे म्यांमार भी इसमें सहयोग करे।
पाकिस्तान में जाहिर है कि भारतीय पक्ष की इस शेखी पर बहुत ही तल्ख प्रतिक्रिया हुई। इसके बाद पाकिस्तान नेताओं के एक के बाद एक आग उगलते बयान गिरने शुरू हो गए। माहौल इतना ज्यादा बिगड़ गया कि एक बारगी दोनों देशों के बीच किसी भी तरह के संवाद की गुंजायश खत्म हो गई। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश यात्रा पर रवाना होने के समय तक जो संकेत दिए गए उसके मुताबिक उफा में चीन के राष्ट्रपति से तो अलग से शिखर वार्ता का उनका इरादा था लेकिन नवाज शरीफ से उनकी तन्हां भेंट हो सकती है इस संभावना को एकदम नकार दिया गया था। फिर यह चमत्कारिक संयोग कैसे हुआ कि दोनों नेता दुश्मनी भूलकर पुराने रिश्तेदारों की तरह मिल बैठे, यह एक पहेली है।
सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए की। हकीकत यह है कि फिलहाल भारत ऐसी स्थिति में नहीं है जो अमेरिका के दबाव को झटक सके। अनुमान लगाया जा सकता है कि अमेरिकी आकाओं का ही निर्देश था जिसकी वजह से मोदी और नवाज दोनों को अपनी अकड़ ढीली करनी पड़ी। लोगों को ध्यान होगा कि मोदी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया था। इसके बाद सरकार के गठन के साथ ही पाकिस्तान से विदेश सचिव स्तर की वार्ता की शुरूआत भी की थी लेकिन इसे तब रद्द कर दिया गया जब पाकिस्तान के अधिकारियों ने हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को बुलाकर उनसे सलाह मशविरा करने की जुर्रत कर डाली। इस बात पर दोनों देशों के बीच काफी दिनों तक घोर तनातनी बनी रही तब भी यह देखा गया था कि पानी सिर पर चढ़ता देख अमेरिका ने दोनों देशों पर दबाव डाला और नतीजतन नवाज और मोदी ने कुछ प्रसंगों में आपस में हाय हैलो करके अपने बीच अबोलेपन को खत्म करने की पहल की।
हालांकि यह लिखने का मतलब नवाज शरीफ से मोदी द्वारा बात करने को गुनाह साबित करना या इस बिनाह पर एनडीए सरकार की जलालत का हमारा कोई इरादा नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों में लक्ष्य हासिल करने के लिए वार्ता की प्रक्रिया का अनुशीलन अपरिहार्य है। परमाणु हथियारों के दौर में दो टूक लड़ाई के दम पर अपना लक्ष्य हासिल करने की मूर्खता नहीं की जा सकती। चूंकि भाजपा के कार्यकर्ताओं की मजबूरी है कि वे फंतासी में जीते हैं जिसकी वजह से बहुत दूर तक की सोचने की कुव्वत उनमें नहीं है। तालियां पिटवाने के लिए मोदी द्वारा चुनावी सभाओं में किए जाने वाले भाषणों से उन्होंने तमाम मुगालते पाल रखे थे। वे मोदी को शक्तिमान समझने का भ्रम पाल बैठे हैं और उन्हें लगता है कि पाकिस्तान के साथ समस्याओं का अंत करने के लिए व्यक्तिगत सूरमाई की जरूरत है लेकिन इन समस्याओं से पार पाने के लिए कूटनीतिक कौशल चाहिए।
इस दिशा में मोदी नवाज शरीफ वार्ता उचित पहल है। दोनों देशों और नेताओं के बीच और गर्मजोशी भरने के लिए मोदी ने पाकिस्तान में आयोजित सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लेने का नवाज शरीफ का न्यौता स्वीकार करके ठीक ही किया। इस बीच राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश सचिव स्तर की वार्ताओं के दौर भी चलेंगे। नवाज शरीफ का मुंबई हमले के मुकदमे की कार्रवाई में तेजी लाने का ठोस आश्वासन पारस्परिक विश्वास बढ़ाने की दृष्टि से बहुत बड़ा कदम है। कश्मीर में भारत के लिए इस समय नाजुक दौर है और पाकिस्तान को अगर वह इस दौर में कूटनीतिक तरीके से काबू में रखने का उद्देश्य हासिल कर लेता है तो उसे वहां अपना पक्ष मजबूत करने के लिए पर्याप्त मोहलत मिल सकती है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में जम्मू कश्मीर में सरकार बनवाकर मोदी ने बहुत बड़ा जोखिम मोल लिया है। बीच में मुफ्ती मोहम्मद सईद इस हद तक आगे बढ़ गए थे कि भाजपा के होश उड़ते नजर आने लगे थे लेकिन शायद पर्दे के पीछे कुछ ऐसा हुआ है कि अब सईद बदले बदले नजर आ रहे हैं। रोजा अफ्तार पार्टी के बहाने भारतीय राजनीति की मुख्य धारा में फिर से अपना विश्वास जमाने की पहल उनके द्वारा की जा रही है। देश की अखंडता और सुरक्षा से जुड़े मामलों में सरकार अपनी हर हरकत को उजागर नहीं कर सकती लेकिन यह आभास सारी घटनाओं को जोड़ कर बनने वाले विंब से किया जा सकता है कि भारत सरकार की ओर से सुचिंतित कार्रवाइयां हो रही हैं जो बेहद सटीक हैं। इसमें उसे कामयाबी मिले इसकी शुभाशा की जानी चाहिए।

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