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मेनका गांधी के सुपुत्र और सुल्तानपुर के सांसद वरुण गांधी इस बार अलग कारणों से सुर्खियों में हैं। याकूब मेमन को दी गई फांसी पर अभी तक चल रही बहस के बीच वरुण गांधी ने एक अंग्रेजी अखबार में लेख क्या लिखा जैसे कोई तोप दाग दी है। यह लेख उनके अंदर चल रही हृदय परिवर्तन की प्रक्रिया की झलक देता है।
वरुण गांधी ने मृत्युदंड को खत्म करने की पुरजोर वकालत की है। इसको लेकर अलग अलग मत हो सकते हैं लेकिन अमेरिका से प्रभावित और प्रेरित बौद्धिक संसार में इस दंड को समाप्त करने की धारणा आरोपित करने का एक अभियान जैसा चल रहा है पर वरुण गांधी ने जिस तरीके से इस मामले में अपनी बात कही है उसमें यह पहलू महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि वरुण गांधी का यह कहना है कि जिन लोगों को पिछले कुछ वर्षों में फांसी दी गई है उनमें 94 प्रतिशत लोग दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित हैं। वैसे तो याकूब मेमन को फांसी की सजा का एलान होने के पहले ही वर्ण व्यवस्था विरोधी चिंतकों ने ठोस आंकड़ों के आधार पर यह कहना शुरू कर दिया था कि फांसी की सजा केवल सामाजिक रूप से हाशिए पर रहे वर्गों के लिए है। अब वरुण गांधी को भी इस सच का इलहाम हुआ है जो अप्रत्याशित है क्योंकि वरुण गांधी जिस वर्ग चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं वह वर्ग दलित पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की फिक्र कहां करता रहा है।
वरुण गांधी की मां मेनका गांधी का जनता दल से जुडऩा किसी राजनीतिक दुर्घटना से कम नहीं था। वे इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी की विधवा थी लेकिन संजय गांधी की मृत्यु के बाद उन्हें इंदिरा गांधी ने जैसे अपने खानदान से निकाल फेेंका था। विद्रोहिणी मेनका ने अपनी हैसियत राजनीतिक क्षेत्र में भी जताने की कोशिश अपनी सास के सामने उस समय की थी। इसके बावजूद वे सामाजिक तौर पर बदलाव की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक बिरादरी से पहले नहीं जुड़ी थी। उन्होंने संजय मंच जब बनाया तब उनके साथ कांग्रेस के ही समानांतर आभिजात्य तबका था जबकि जनता दल भले ही वीपी सिंह के नाम पर गठित हुआ हो लेकिन यह दल पिछड़ा राजनीति के लंबे संघर्ष की तार्किक परिणति के रूप में सामने आया था और इस दल को ऐसा कुछ करना ही था जिससे सामाजिक यथास्थितिवाद की दीवारों में दरार पैदा हो इसीलिए वीपी सिंह द्वारा जनता दल के नेता के रूप में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करना कोई अप्रत्याशित कार्रवाई नहीं थी। उनसे व्यक्तिगत रंजिश के कारण मुलायम सिंह आदि ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जनता दल से अलग रास्ता बनाया और यह आभास कराने की चेष्टा की जैसे इस मामले में सवर्ण हित रक्षा के लिए आगे बढऩा चाहते हों लेकिन उन्हें भी ऐसा नहीं करना था। वे वीपी सिंह के साथ नहीं रहे लेकिन उन्होंने अपने तरीके से सामाजिक समीकरण को बदला। मेनका गांधी वीपी सिंह की राजनीति को भद्र लोकीय राजनीति समझने के भ्रम में जनता दल से जुड़ गई थी लेकिन मंडल आयोग की रिपोर्ट जैसे ही लागू हुई वैसे ही उन्होंने आभास किया कि वे इस दल में मिसफिट हैं। आगे चलकर उन्होंने अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया।
मेनका गांधी को लेकर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में भी कम दुविधा की स्थिति नहीं रही। वे पार्टी के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ी क्योंकि उन्हें गुमान था कि उनकी अपनी एक स्वतंत्र सत्ता है। भाजपा का नेतृत्व इससे असहज हुआ लेकिन फिर भी उसने मेनका गांधी की उपयोगिता को अपने लिए समझा। कहीं न कहीं भाजपा नेतृत्व को यह लगता रहा कि नेहरू परिवार का प्रभाव जातिगत, कुलीन वर्गीय व ऐसे ही अन्य कारणों से भारतीय जनमानस में अभेद्य है इसलिए भाजपा ने उनको रिजर्व में आपातकाल के लिए रख लिया था। भाजपा का सोचना यह था कि अगर मनोवैज्ञानिक कारणों से उसे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी दाल गलाने में कोई बड़ी रुकावट महसूस हुई तो वह सोनिया राहुल के विकल्प के रूप में मेनका वरुण का चेहरा पेश करेगी। अटल बिहारी वाजपेई के रोग शैया पर गिर जाने के बाद इसी नाते मेनका और वरुण का सूचकांक भाजपा में एकदम काफी बढ़ा लेकिन गत चुनाव के नतीजे आने के बाद जैसे उनकी उलटी गिनती शुरू हो गई। मेनका गांधी ने वरुण गांधी को उत्तर प्रदेश में भाजपा के चेहरे के रूप में पेश करने की कोशिश की तो नेतृत्व की भृकुटियां उन पर तन गई। इसके बाद सुनियोजित ढंग से मेनका गांधी और वरुण गांधी को हाशिए पर पहुंचाने का क्रम पार्टी में शुरू हो गया और आज हालत यह है कि वे अपनी पहचान को मोहताज होने जैसी स्थिति में पहुंच गए हैं।
जाहिर है कि वरुण गांधी के लिए यह बर्दाश्त करना मुश्किल है। इसी कारण पीलीभीत के चुनाव में मुसलमानों को लेकर बेहद आपत्तिजनक भाषण देने वाले वरुण गांधी आज यह आवाज उठा रहे हैं कि फांसी की सजा या तो दलितों के लिए है या मुसलमानों के लिए है। क्या उनका यह रुख उनमें बड़े बदलाव का सूचक नहीं है। वरुण गांधी ने लगता है कि अब जान लिया है कि भारतीय जनता पार्टी में उनका कोई भविष्य नहीं है और यह भी समझ लिया है कि अब राष्ट्रीय राजनीति में व्यापक स्वीकृति के लिए सामाजिक तौर पर परंपरावादी विचारों के समर्थन से कोई बात कदापि नहीं बन सकती। यथार्थ की पथरीली चट्टानों से टकरा कर जिस सत्य का साक्षात्कार वरुण गांधी को हुआ है उसकी वजह से उनका कुलीन दर्प तेजी से दरकने लगा है। वरुण गांधी अपने नए विचारों के साथ राजनीति की आगामी पारी किस तरह खेलते हैं यह देखने वाली बात होगी।
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