- 478 Posts
- 412 Comments
समाजवादी पार्टी ने लगता है कि अब तय कर लिया है कि राज्यपाल से निपट ही लिया जाए। विधान परिषद में मनोनयन के लिए राजभवन से लौटाए गए नाम ज्यों के त्यों वापस करके उसने अपने इस इरादे की झलक दे दी है। इसके पहले प्रो. रामगोपाल के बयान का लट्ठमार अंदाज भी जाहिर कर चुका था कि अब पार्टी महामहिम का कोई अदब लिहाज नहीं करेगी।
हालांकि राज्यपाल राम नाईक का एक्टिविज्म भी जरूरत से कहीं ज्यादा हो गया था। राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति व अन्य मुद्दों को लेकर बार-बार सार्वजनिक तौर पर अखिलेश सरकार को नीचा दिखाने का उनका प्रयास संतुलित नहीं माना जा सकता। समाजवादी पार्टी में इतना संयम और धीरज नहीं है कि वह किसी को इस हद तक बर्दाश्त करे भले ही वह कितने भी ऊंचे संवैधानिक आसन पर क्यों न बैठा हो। कांग्रेस के समय के राज्यपाल राजेश्वर राव के साथ की गई बेअदबी इसका उदाहरण है लेकिन इस बार राजनीतिक परिस्थितियां समाजवादी पार्टी का ज्यादा साथ नहीं दे रही। सोलहवीं लोक सभा के चुनाव परिणाम से एक बार प्रधानमंत्री तो बन जाऊं फिर देखते हैं से जुड़ी सपा सुप्रीमो की उत्तेजनापूर्ण भंगिमा हमेशा के लिए काफूर हो गई और उत्तर प्रदेश में ही अपना वजूद बना रहे इस भावना के साथ वे केेंद्र से समझौते की मुद्रा अपनाने को विवश हो गए। इसी कारण इस बार उन्होंने पहले राज्यपाल को सबक सिखाने के लिए पलटवार की कोई कोशिश नहीं की बल्कि मुलायम सिंह और अखिलेश यादव दोनों ने लगातार उनसे सौजन्य मुलाकातें की ताकि राज्यपाल नरम हो सकेें।
राज्यपाल भेंट में कितने ही गर्मजोश रहे हों और उन्होंने समय-समय पर नेता जी व अखिलेश से व्यक्तिगत रिश्ते बेहद सौहार्दपूर्ण होने की दुहाई भी दी हो लेकिन मौका मिलने पर उन्होंने राज्य सरकार की चिकोटी काटने में कभी रियायत नहीं बरती। सरकारी पदों की भर्ती में जातिवाद की पराकाष्ठा करने का आरोप जब राज्य सरकार पर लगा तो फिर राज्यपाल ने एक बार उस पर निशाना साध दिया। इसके बाद सपा के लिए उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया। सपा ने फिर भी सावधानी यह बरती कि मुख्यमंत्री या किसी मंत्री की ओर से उनके खिलाफ बयान दिलाकर संवैधानिक जोखिम मोल नहीं लिया। इसकी बजाय पार्टी के माध्यम से उनके खिलाफ पूरे उग्र तेवरों के साथ मोर्चा खोला गया। यहां तक तो उचित था लेकिन प्रो. रामगोपाल यादव ने जिन कटु शब्दों का इस्तेमाल राज्यपाल की आलोचना के लिए किया उनके बिना भी वे उन्हें दूसरे शब्दों से पर्याप्त आहत कर सकते थे। सवाल राम नाईक का नहीं है सवाल राज्यपाल पद का है और प्रकारांतर से राज्यपाल को बेशर्म कहना घोर राजनीतिक अशिष्टता नजर आती है। ऐसा भी नहीं है कि प्रो. रामगोपाल यादव इसको न जानते हों। उन्होंने अगर आवेश में कुछ ज्यादा कह दिया होता तो बाद में वे अफसोस की मुद्रा में होते पर लगता यह है कि रामगोपाल यादव ने जानबूझकर राज्यपाल को गरियाने वाले शब्द उनकी भत्र्सना करने के लिए चुने।
दरअसल यह सपा नेताओं की मानसिकता का दोष है जो उनके फासिस्ट और सामंती माइंड सेट का नतीजा है। लोकतंत्र में कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो कोई अगर उस पर उंगली उठाए तो ïवह शब्द कौशल के आधार पर वह उसे ऐसा जवाब देने की कोशिश करता है कि सामने वाला लाजवाब हो जाए लेकिन लोकतंत्र की मुलायमियत और नफासत से सपा नेताओं का कोई वास्ता नहीं है। उन्हें अपने ऊपर उंगली उठाने वाले के लिए लगता है कि उसने यह जुर्रत की तो कैसे की। फिर भले ही वह लखनऊ के महामहिम हों या दिल्ली के और मर्यादाएं टूटें तो उनकी बला से।
विधान परिषद में साहित्य, संस्कृति, समाजसेवा, कला आदि के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान देने वाले व्यक्तित्वों के लिए आरक्षित सीटों पर अगर दूसरों को विवादित लगने वाले चेहरे समाजवादी पार्टी मढऩा चाहती है तो यह उसकी मानसिकता के अनुरूप है। अकबर कितना सफल बादशाह था। क्या वह दस हजारी और पांच हजारी मंसबदार नियुक्त करने के लिए किसी सार्टिफिकेट को देखता था। सल्तनत की हुकूमत किसी को इज्जत और ओहदा बख्शने के लिए परख के जो पैमाने रखती है समाजवादी पार्टी उन्हीं पैमानों की कायल है इसीलिए उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग से लेकर और विधान परिषद की मनोनयन वाली सीटों पर वह किताबी योग्यता की बजाय वीर भोग्या वसुंधरा के आदिम मानदंड को महत्व देती है। उसकी निगाह में यही मानदंड शाश्वत हैं, सनातन हैं और स्थाई हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जब तक यह ससुरा लोकतंत्र इस देश और प्रदेश में चल रहा है तब तक एक निश्चित समय अवधि के बाद हर सत्ता और राजनीतिक पार्टी को चुनावी अग्निपरीक्षा में कूदना पड़ता है जहां पर वे लोग वोट की ताकत रखते हैं जो आदिम पैमाने पर किसी लायक नहीं हैं और इसलिए लायक (समर्थ) सत्ता के लिए उनका मूड घातक साबित हो सकता है इसलिए समाजवादी पार्टी को चाहिए कि वह इस पहलू की ओर भी गौर फरमाए।
Read Comments