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हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला को राज्य की शिक्षक भर्ती में किए गए घोटाले की वजह से मिली दस वर्ष की सजा से मोक्ष पाने के सारे दरवाजे अंततोगत्वा सुप्रीम कोर्ट ने बंद कर दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला निश्चित रूप से भ्रष्टाचार पर चोट के मामले में मील का पत्थर साबित होगा।
वैसे तो भ्रष्टाचार के मामले में कई और मुख्यमंत्री भी आरोपित हुए हैं। यहां तक कि जेल भी गए लेकिन आखिरकार किसी को सजा नहीं हुई बल्कि यह हुआ कि ऐसे नेता जनमानस के बीच और ज्यादा मजबूत होते गए। हाल ही में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा बरी कर दिया जाना इसका उदाहरण है जबकि जयललिता जिस समय आय से अधिक संपत्ति के मामले में गिरफ्तार की गई थी उस समय उनके घर से बरामद बहुमूल्य साडिय़ों, चप्पलों, जेवरों का जो विवरण सार्वजनिक किया गया था उससे लोगों को जयललिता के भ्रष्ट होने के बारे में कोई संदेह नहीं रह गया था। दो बार जयललिता को इस कारण मुख्यमंत्री पद से बीच में ही हटना पड़ा लेकिन इन दुश्वारियों के बावजूद जयललिता अक्षत रही। उन्हें कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा बरी किए जाने के फैसले से लोगों को देश की न्याय प्रणाली के कारगर होने के बारे में संदेह उत्पन्न हो गया। लालू यादव फिलहाल सजायाफ्ता होने की वजह से चुनाव नहीं लड़ पा रहे लेकिन जयललिता जैसे दृष्टांतों की वजह से ही लोगों को यकीन है कि शायद उनके साथ भी अंत भला सो सब भला की कहावत चरितार्थ होगी। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी आय से अधिक संपत्ति के मामले में न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है लेकिन अंततोगत्वा उनके मुकदमों का निरापद अंत लोगों को किसी असंभव चमत्कार से कम नहीं लगता। उत्तर प्रदेश के लोग इस सबक के बाद यह मानने को मजबूर हो गए हैं कि भारतीय न्याय प्रणाली बेहद भौंथरी है। इसका जोर केवल छुटभैयों पर चल सकता है उन पर नहीं जिन्हें सजा होने न होने से मानक स्थापित होते हैं।
चौटाला साहब और उनके साहबजादे के बारे में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला बजबजाते माहौल में सुखद बयार की तरह है। श्रीयुत ओमप्रकाश चौटाला साहब का नाम जनता पार्टी सरकार में उस समय सुर्खियों में आया था जब हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवीलाल के ये सुपुत्र हवाई अड्डे पर तस्करी के लिए लाई गई घडिय़ों के जखीरे के साथ पकड़े गए थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस बात पर देवीलाल से काफी नाराजगी जाहिर की थी। देवीलाल भी अपने बेटे की इस नालायकी से कम दुखी नहीं हुए थे लेकिन जैसा कि लोक दल की परंपरा है जीवन के आखिरी चरण में पहुंचते पहुंचते देवीलाल ने नैतिक सुकुमारता से छुटकारा पा लिया। ओमप्रकाश चौटाला का हरियाणा का मुख्यमंत्री बनना मूल्यों की राजनीति की झंडा बरदारी कर रही जनता दल के लिए एक बहुत बड़ी दुर्घटना की तरह था। जनता दल के टूटने की बुनियाद भी इसी बिनाह पर बनी। ओमप्रकाश चौटाला साहब जब हरियाणा के मुख्यमंत्री हुए थे उस समय वे विधान सभा के सदस्य नहीं थे। उन्होंने मेहम से विधान सभा उपचुनाव लड़कर इस अर्हता को पूरा करने की ठानी। यह चुनाव वे जीत सकेें उन्होंने इसके लिए लोकतंत्र का शीलभंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार पर उन्होंने खुलेआम इतनी जबरदस्त फायरिंग की कि तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की चूलें हिल गई। उसके बाद वे एक तरफ थे जो चाहते थे कि देवीलाल अपने पुत्र की राजनीतिक बलि पार्टी की प्रतिष्ठा बचाने के लिए लें। दूसरी तरफ जनता दल का वह लोक दलीय खेमा था जिसका हमेशा से विश्वास रहा है कि समरथ को नही ंदोष गोसाईं। चौटाला ने जो कुछ किया चंद्रशेखर से लेकर पूरा लोक दल परिवार उसे महान पुरुषार्थ के बतौर संज्ञान में ले रहा था और आश्चर्य की बात यह है कि लोकतंत्र की हत्या के इस अनुष्ठान में मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी कृतघ्नता की हद करके शामिल हो गया था। मीडिया की इज्जत लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है और वह लोकतंत्र की टोपी उछालने वालों की मदद में जुटे तो इसे नमक हरामी के अलावा और क्या माना जा सकता है। मीडिया में असल मुद्दे को ओझल करके तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा चौटाला के इस्तीफे के आग्रह को ताऊ के साथ वीपी सिंह के विश्वासघात के तौर पर पेश किया जा रहा था। मानो यह देश इसकी जनता का न होकर देवीलाल और वीपी सिंह की व्यक्तिगत जागीर हो। उनमें से किसने किस पर एहसान किया था इससे क्या लेना देना था। दो टूक तौर पर मीडिया को भी इस बात की पैरवी करनी चाहिए थी कि ओमप्रकाश चौटाला ने चुनाव जीतने के लिए जिस बर्बर हिंसा का सहारा लिया है वह लोकतंत्र जैसी व्यवस्था में अक्षम्य है।
लेकिन धन्य है इस देश की मीडिया और बुद्धिजीवी जिनके लोकतंत्र को लेकर अलग ही पैमाने हैं। इसी कारण राष्ट्रीय राजनीति के बारे में भी इनका नजरिया गांव की पार्टी बंदी में लागू होने वाले मानकों से अलग नहीं होता। चाहे मुखिया जी हो चाहे उनका विरोधी अपनी पार्टी के आदमी के सात खून भी माफ करना आता हो तभी वे बात वाले माने जाते हैं। अपनी पार्टी के आदमी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहना गांव की पार्टी बंदी के नीति शास्त्र में व्यक्ति की सर्वोच्च प्रतिबद्धता के रूप में देखा और दिखाया जाता है लेकिन व्यापक लोकतांत्रिक राजनीति में यह रवैया अपनाने का मतलब है कि भीषण अनर्थ करना। मीडिया ने तमाम मुख्यमंत्री और ऊंचे पदों पर आसीन होने वालों को इसके लिए सराहा कि अपने आदमी का साथ देने में उनका कोई जवाब नहीं है। यह महिमा मंडन कानून के राज की ऐसी की तैसी का कारण बन गया और स्वरूप के तौर पर भले ही लोकतंत्र इस देश में बरकरार हो लेकिन कई राज्य ऐसे हैं जहां पर अगर मर्म की दृष्टि से देखा जाए तो न केवल लोकतंत्र की महायात्रा निकल चुकी है बल्कि उसकी अंत्येष्टि के भी सारे कर्मकांड हो चुके हैं।
ओमप्रकाश चौटाला भी जनता दल परिवार की महाएकता की एक धुरी थे। हालांकि जब यह कवायद चल रही थी उस समय भी इन पंक्तियों के लेखक ने यह लिखा था कि इसे जनता दल परिवार की नहीं लोक दल परिवार की एकता माना जाना चाहिए। जनता शब्द जिस पार्टी के नाम में जुड़ा चाहे वह 1977 की बात हो या 1988 की उसने बुर्जुआ लोकतंत्र के दुनिया के सबसे ऊंचे आदर्शों को आत्मसात करने की ललक दिखाई जो कि राजनीतिक सुधारों के उनके एजेंडे में प्रतिविंबित होता रहा जबकि लोक दल परिवार का रवैया इस मामले में पूरी तरह ही अलग रहा है। लोक दल परिवार के लोग नैतिक हिचकिचाहट को खुलेआम नामर्दगी की निशानी मानते हैं। राजनीति का अपराधीकरण, सत्ता का इस्तेमाल दोनों हाथों से जनता के खजाने की लूट करना, सारी सत्ता को अपने परिवार तक सीमित कर देना इत्यादि लाक्षणिक विशेषताएं इस परिवार के रुझान को व्यक्त करती हैं। ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला को सजा से इस परिवार के तौर तरीकों पर एक बड़ी चोट हुई है। साथ ही न्यायिक व्यवस्था पर डगमगाते विश्वास को भी थोड़ी स्थिरता मिली है। क्या उच्चतम न्यायालय कुछ और प्रभावशाली नेताओं को भी इस अंजाम तक पहुंचाने की कटिबद्धता दिखा पाएगा? यह सवाल आशा की एक किरण के साथ लोगों के मन में हूक के रूप में जरूर उठा रहा होगा।
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