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पानी पंचायतों ने बनाए लोगों के सरपंच

मुक्त विचार
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2011 से मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में जल संकट से पीडि़त ग्रामों में परमार्थ स्वयंसेवी संस्था द्वारा चलाई जा रही पानी पंचायतों ने राज्य में गत वर्ष हुए पंचायत चुनावों को अपने सकारात्मक प्रभाव से जो नई दिशा दी उसकी चर्चा उदाहरण के रूप में अभी तक हो रही है। प्रत्यक्ष तौर पर पानी पंचायतों ने अपने उम्मीदवार खड़े करने या किसी को समर्थन देने जैसी भूमिका निभाने की कोई चेष्टा नहीं की लेकिन पानी पंचायतों में निभाई गई सक्रिय भूमिका की वजह से कई लोग जनता के सरपंच के रूप में स्वमेघ चुने गए जिससे आने वाले दिनों में व्यापक तौर पर पंचायत चुनाव का एजेंडा बदलने के आसार पैदा हो गए हैं।
आम तौर पर मान्यता यह है कि पंचायत चुनाव में स्थानीय मुद्दे और कारक नतीजों को तय करते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गांव की सार्वजनिक समस्याओं का समाधान और विकास को मुद्दा बनाकर कोई प्रत्याशी पंचायत के चुनाव में आसानी से सफल हो सकता है। स्थानीय कारक से मतलब आम तौर पर गांवों में मूंछ के सवाल पर बनी शक्तिशाली लोगों की पार्टियां होती हैं और किस पार्टी का दबदबा कितना है, उनमें से किसी एक में जुड़े प्रत्याशी का निर्वाचन होना इसका सूचकांक बताता है। जाहिर है कि इस आधार पर चुने गए सरपंच गांवों की आम जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करने की बजाय सरकारी योजनाओं का लाभ स्याह सफेद किसी भी तरीके से अपने पार्टी के लोगों को दिलाने या स्वयं हथियाने में लगे रहना अपना फर्ज समझते हैं।
गांव के परिदृश्य पर परंपरागत रूप से हावी इस घटाटोप को भेदना अभी तक असंभव लगता था लेकिन पानी पंचायतों ने इस मामले में वाकई पंचायत चुनावों का इतिहास बदल दिया है। छतरपुर जिले के बड़ा मलहरा जनपद पंचायत क्षेत्र में दो गांव पंचायतों की सरताजी के मामले में नए प्रयोग के सारथी बने। ग्राम बंधा जिला मुख्यालय से नब्बे किलोमीटर दूर अवस्थित है जिसके कारण जाग्रति की कोई नई पहल यहां हो सकती है यह उम्मीद करना तक बेकार था। इस गांव में फरवरी 2011 में पानी पंचायत का गठन कराया गया जिसमें दीपा चढ़ार अध्यक्ष बनाई गई। दलित और आदिवासी बाहुल्य इस गांव में जमीन ऊंची नीची होने के कारण मृदा कटाव की गंभीर समस्या से पूरी खेती ग्रसित है। दूसरी ओर इस गांव में पानी की समस्या भी गंभीर है। दीपा ने कुछ कर दिखाने की भावना से अपनी जिम्मेदारी को कुबूल किया जिसके शानदार नतीजे सामने आए। आदिवासी बस्ती में उनके प्रयास से हैंडपंप स्थापित होना गांव के अंदर के संसार में किला जीतने से कम महत्वपूर्ण घटना नहीं बनी। इसके बाद दीपा ने जीविका के संकट से जूझ रहे आदिवासी परिवारों को काम दिलाने के लिए अभियान छेड़ दिया। सरपंच और सचिव को उन्होंने बार-बार ज्ञापन दिलाए और पावती ली। काम देने में अन्यमनस्क ग्राम पंचायत सरकार को आखिर में इस मामले में उनकी लगातार कोशिशों के आगे झुकना पड़ा। चंदेलकालीन तालाब की सामूहिक श्रमदान से सफाई ने उनके एक और महत्वपूर्ण अवदान को रेखांकित किया। नहाने, कपड़े धोने और मवेशियों की प्यास बुझाने जैसी जरूरतें पूरी करना इसकी वजह से ग्रामीणों के लिए सुविधाजनक हो गया। इसके बाद जब सरपंची के चुनाव आए तो ग्रामीणों ने अपने नेता जी को इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानकर उनको स्वत: स्फूर्त प्रस्तावित कर दिया। लगभग पूरे गांव की राय एक तरफ हो जाने से चुनाव तो एक औपचारिकता भर के लिए हुआ और दीपा के सिर पर पहले से ही तय सरपंच का ताज सज गया। दीपा के नेतृत्व में ग्राम पंचायत की कार्यप्रणाली और उद्देश्य को नए आयामों में परिभाषित होते देखा जा रहा है जिसमें व्यक्तिगत हित साधन की बजाय गांव की सामूहिक खुशहाली का ध्येय सर्वोपरि है।
दूसरा गांव है रामटोरिया। इसकी दूरी तो जिला मुख्यालय से और ज्यादा एक सौ पांच किलोमीटर है। लखन अहिरवार इस गांव के बाशिंदे हैं जो एमए पास हैं लेकिन गांव छोड़कर शहरी बाबू बनने के लिए उन्हें किसी महानगर में छोटी मोटी नौकरी या व्यवसाय करना गवारा नहीं हुआ। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे किस दूसरी मिट्टी के बने हैं और यही वजह है कि जब उनके गांव में पानी पंचायत गठित हुई तो आदर्श भावुकता उन्हें इसमें खींच ले गई। पानी पंचायत से जुड़कर उन्होंने सरकारी योजनाओं का लाभ पात्रों को दिलाने के लिए संघर्र्ष छेड़ दिया। गांव का कोटेदार निरीह गरीब कार्ड धारकों को राशन व अन्य सामग्री नहीं देता था। लखन अहिरवार ने जनसुनवाई में कलेक्टर के सामने सामूहिक रूप से इस शिकायत को इतने प्रभावशाली तरीके से उठाया कि संवेदनशील कलेक्टर ने तत्काल कार्रवाई की और अब कोटेदार अपनी पूरी हेकड़ी भूलकर जरूरतमंदों को राशन देने में खैरियत मानने लगा है। पानी पंचायत के सदस्यों को लखन के प्रयासों की सफलता से यह बोध हो गया कि संगठन में शक्ति होती है जिससे उनमें नई ऊर्जा का संचार हुआ। इसके बाद लखन जुट पड़े शौचालयों के निर्माण के लिए। उन्होंने कई आवेदन दिए पर सरपंच टालमटोल पर उतारू थे जिससे काम बन नहीं रहा था। इसके बाद उन्होंने सीधे जनपद कार्यालय का दरवाजा खटखटाया नतीजतन पचपन परिवारों के लिए शौचालय के निर्माण की मंजूरी मिल गई।
पंचायत चुनाव आए तो लखन के योगदान से प्रभावित गांव वालों की निगाह खुद ही उन पर जा टिकी। अंततोगत्वा स्वयं गांव वालों द्वारा नामांकित उम्मीदवार बनकर वे सरपंच निर्वाचित हो गए। उन्होंने गांव में नब्बे से अधिक शौचालय बनवाकर प्रधानमंत्री के निर्मल भारत अभियान ऐसा अध्याय जोड़ दिया है जिसकी जानकारी दिल्ली तक पहुंची तो वे बड़ी शाबाशी के हकदार बनेंगे।

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