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संवेदनशील व्यवस्थाओं के मामले में लचर सरकार

मुक्त विचार
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सुरक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और बिजली पानी यह ऐसे मोर्चे हैं जिन पर किसी भी सरकार को सबसे पहले ध्यान देना चाहिए। इन व्यवस्थाओं में गड़बड़ी संवेदनशील स्थितियों का निर्माण करने वाली सिद्ध होती है जिससे लोग इस कदर भड़क जाते हैं कि कानून व्यवस्था का संकट पैदा हो जाता है। उत्तर प्रदेश की सरकार आगरा लखनऊ एक्सप्रेस वे और लखनऊ मेट्रो का डंका पीटकर आने वाले चुनाव के लिए लोगों का दिल जीतने की बहुत कोशिश कर रही है लेकिन उसे मालूम नहीं है कि उक्त मोर्चों पर स्थितियां दुरुस्त न होने की वजह से उसकी लोकप्रियता का ग्राफ किस कदर नीचे खिसकता जा रहा है।
पिछले एक पखवाड़े में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अहमद हसन ने दूसरी बार सरकारी डाक्टरों को आगाह किया है। उन्होंने यहां तक कहा कि अगर सरकारी डाक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस से बाज नहीं आते तो उन्हें जेल भेज दिया जाएगा लेकिन उनकी यह चेतावनी कोरी भभकी साबित हो रही है। सरकारी अस्पतालों की हालत बेहद गई बीती होती जा रही है। डाक्टरों ने अमानवीय रवैए की पराकाष्ठा कर दी है। दर्जनों लोग प्रदेश भर में प्रतिदिन सरकारी अस्पतालों में उपचार के नाम पर होने वाली लापरवाही की वजह से बेमौत मरते हैं। इसका सरकार की क्षमता और छवि को लेकर लोगों में कितना गलत संदेश जा रहा होगा शायद इसका पूरी तरह अनुमान न तो स्वास्थ्य मंत्री अहमद हसन को है और न ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को।
उरई में 5 अगस्त को जिला अस्पताल की इमरजेंसी में जो कुछ हुआ उसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। इसके बाद सारे डाक्टरों ने इकट्ठा होकर हड़ताल कर दी। उनके शक्ति प्रदर्शन में अगले दिन जालौन में गोली लगने से घायल एक होनहार नौजवान सूर्यप्रताप सिंह को समय पर इलाज न मिलने की वजह से बेवजह जान गंवानी पड़ी। डाक्टर समाज के प्रतिष्ठित वर्ग में आते हैं। उनके सम्मान और सुरक्षा की चिंता अवश्य ही प्राथमिकता के आधार पर होनी चाहिए लेकिन सवाल यह है कि 5 अगस्त और इसके पहले कई बार अस्पताल की इमरजेंसी में तोडफ़ोड़ व मारपीट हुई वह किन लोगों के द्वारा की गई। इस पहलू पर गौर करना चाहिए कि डाक्टरों के साथ घटना करने वाले वे लोग रहे जिनका मरीज जिंदगी और मौत से जूझ रहा था और इस कारण जिनका कलेजा मुंह में था। वे इमरजेंसी में डाक्टरों को अपमानित करने नहीं उन्हें जिंदगी देने वाला फरिश्ता मानकर पहुंचे थे। ऐसी परिस्थिति में अच्छे से अच्छा दबंग भी कितना निरीह हो जाता है मनुष्य के मनोविज्ञान को जानने वाले इसका अंदाजा कर सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में अगर कोई हिंसक होने की हद तक आक्रामक हो जाए तो उसकी वजह साधारण नहीं हो सकती। निश्चित रूप से ऐसी घटनाएं उस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति की देन रही जिनमें कातर लोगों ने देखा कि उनका अपना सरेआम मौत के मुंह में जा रहा है और ड्यूटी पर मौजूद डाक्टर है कि अपनी अलमस्ती छोडऩे के लिए तैयार नहीं है। अपने को बेमौत मरने देने के लिए कोई तैयार नहीं हो सकता। इस कारण लोगों में आवेश पैदा होना स्वाभाविक है। संगठित वर्ग के दबाव और कानून के दमनकारी इस्तेमाल से ऐसी विस्फोटक स्थितियों को शांत करने की कल्पना मूर्खता पूर्ण है बल्कि इन कोशिशों से संकट और गहराएगा क्योंकि इसमें एकतरफा कार्रवाई पीडि़त पक्ष को किसी भी हद तक कर गुजरने के लिए उकसा सकती है। जाहिर है कि ऐसी स्थितियां पैदा होने पर उनकी कीमत तो आखिर सरकार को ही चुकानी पड़ेगी।
इसलिए सरकार को चाहिए कि वह बयानबाजी करने की बजाय सरकारी अस्पतालों की हालत सुधारे। इमरजेंसी में बेबस मरीजों के तीमारदारों को बाजार से बेजरूरत महंगा इंजेक्शन खरीदने के लिए मजबूर करना, सर्वसुविधा संपन्न होते हुए भी जिला अस्पताल से एक झटके में मरीजों को इसलिए रिफर कर देना कि गैर कानूनी तरीके से अस्पताल में खड़ी रहने वाली प्राइवेट एंबुलेंस और वे जिन दूसरे शहरों के प्राइवेट नर्सिंग होम में मरीज को ले जाने के लिए उसके तीमारदारों को रास्ते में तैयार करते हैं उन नर्सिंग होम से कमीशन मिल सके, सरकारी अस्पताल की दवाएं, पट्टियां, इंजेक्शन ले जाकर घर में मोटी फीस पर क्लीनिक चलाना यह बहुत बड़ा गुनाह है और पिछले कुछ वर्षों से प्रदेश में यह आम बात हो गई है। लोकतंत्र में इलाज के अभाव में गरीब से गरीब आदमी को नहीं मरना चाहिए तभी उसकी सार्थकता है लेकिन डाक्टरों के रवैए की वजह से आज हालत यह है कि गरीब तो छोडि़ए कोई मध्यम वर्गीय व्यक्ति भी स्वास्थ्य संबंधी बड़ी बात हो जाने पर बचाए जाने की संभावना होने के बावजूद मरने के लिए मजबूर है। डाक्टर संगठित हैं लेकिन आम जनता का कोई संगठन नहीं है। नेता भी संगठित लोगों की ही बात करते हैं लेकिन लोकतंत्र में जनता जनार्दन ही अंततोगत्वा भाग्य विधाता होती है। यह बात सरकार को समझ लेनी चाहिए। इस कारण वह बड़े बड़े प्रोजेक्ट के आधार पर राजनीति में बढ़त पाने का सब्जबाग देखना उसे छोडऩा पड़ेगा अगर उक्त बुनियादी व्यवस्थाएं चुनाव तक ध्वस्त बनी रही।

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