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क्या आप जानते हैं कि भारत के सिर्फ चार मंदिरों में इतना सोना भरा है जो देश के गोल्ड रिजर्व से चार हजार गुना ज्यादा और अमेरिका के गोल्ड रिजर्व से चार गुना ज्यादा है। मंदिरों में सोने की क्या उपयोगिता हो सकती है। यह बताना मुश्किल है लेकिन इतना ज्यादा सोना मंदिरों में जाम न रहकर अगर देश की अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में आ जाये तो शायद रुपया दुनियां की सबसे मजबूत मुद्रा के रूप मे उभर सकता है। फिर धर्म के नाम पर ऐसी मनमानी क्यों की जा रही है जिससे श्री-समृद्धि से भरपूर यह देश इतना दयनीय बना हुआ है।
देश के एक बड़े अखबार ग्रुप ने इन मंदिरों की आॅडिट रिपोर्ट और कैग के पूर्व अध्यक्ष की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई जांच कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर चार मंदिरों तिरुपति, साईं बाबा, सिद्धि विनायक और काशी विश्वनाथ मंदिरों की माली हैसियत के बारे में जो खबरे धारावाहिक प्रकाशित करने का सिलसिला चला रखा है उससे पूरे देश में एक नये किस्म की सनसनी फैली हुई है। बिडंबना यह है कि हिंदू धर्म में आम से लेकर खास तक धर्म की दुहाई देने में गला फाड़ने की इंतहा रोजाना करते रहते हैं लेकिन उतना ही यह धर्म अपनी मौलिक मान्यताओं से दूर जाता रहता है। धर्म के क्षेत्र में अधर्म की मजबूत हो रही किलेबंदी का हिंदू धर्म में क्या कारण है। नादानी या स्वार्थपरता अथवा कुछ और। हिंदू धर्म में जो मंदिर मठ सर्वाधिक महिमावान हैं उनमें काशी विश्वनाथ को छोड़कर उक्त सूची में शामिल एक भी मंदिर नहीं हैं। मुंबई का सिद्धिविनायक मंदिर तो 1831 में एक धनीमानी महिला ने निजी मनोकामना पूर्ण होने की खुशी में निजी तौर पर बनवाया था। आज यह मंदिर चढ़ावे के मामले में हिंदू धर्म के सर्वोपरि मंदिरों में है। इसे क्या कहा जाये ? जिस धर्म में बौद्धिक समागम और शास्त्रार्थ की लंबी और समृद्ध परंपरा की वजह से दार्शनिक ऊचाईयों की नई चोटियां स्थापित की गई हों उस धर्म में आज विवेक और ज्ञान के अभाव की दारुण स्थिति क्यों देखने को मिल रही है यह शोचनीय है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातनियों के लिए जो सर्वोच्च धार्मिक केंद्र स्थापित किये हैं वे चारों धाम इस धर्म के मानने वालों के लिए अतुलनीय होने चाहिए लेकिन चढ़ावे के मामले में तो लगता हैं कि चारों धाम नये धार्मिक केंद्रों से बहुत पीछे होते जा रहे हैं। आखिर कौन सी प्रेरणायें है जो हिंदुओं को कहीं भी हांककर ले जाने का कारण बन गई हैं।
श्रद्धालु हिंदू समाज में सबसे ज्यादा महत्व श्रीमद्भागवत कथा का है हर धर्म भीरू हिंदू अपना सर्वस्व तक खर्च करके यह कथा अपने यहां कराना चाहता है। इस कारण कम से कम श्रीमद्भागवत की शिक्षायें तो हिंदुओं के लिए अनुलंघनीय होनी ही चाहिए। श्रीमद्भागवत के अनुसार महाराजा पारीक्षित के समय कलियुग का पदार्पण धरती पर हुआ वह सीधा महाराज के पास पहुंचा और उसने महाराज से अपने रहने के लिए शरण मांगी पहले तो पारीक्षित उसे ठिकाना देकर अपने साम्राज्य का पुण्य कदापि नष्ट न होने देने के लिए कटिबद्ध थे लेकिन जब कलियुग ने विधि के अकाट्य विधान का हवाला दिया तो उन्होंने मदिरालय, वेश्यालय सहित नौ गंदे स्थान उसे रहने के लिए बता दिये। जब कलियुग ने पूरे दस ठिकाने उसके लिए कर देने का आग्रह किया तो दसवें ठिकानें के रूप में महाराज गफलत में सोने यानी स्वर्ण का नाम ले गये। उन्हें याद नहीं रहा कि वे सिर पर जो मुकुट पहने हुए हैं वह स्वर्ण जड़ित है और अगर सोने में कलियुग का आश्रय हो गया तो मुकुट माथे पर सजा होने की वजह से उसका अटैक सीधा बुद्धि विवेक पर होगा। यही हुआ जिससे आखेट पर निकले महाराजा पारीक्षित की मति भ्रष्ट कलियुग ने कर दी और प्यास लगने पर वे एक ऋषि के आश्रम में पानी मांगने पहुंचे जहां समाधि में होने की वजह से ऋषि को उनकी पुकार सुनाई नहीं दी जिसके कारण विवेकच्युत पारीक्षित ने क्रोध में आकर उन्हें अंटशंट कहते हुए पास में पड़े मरे सांप को उनके गले में लटका दिया इससे ऋषि की समाधि भंग हो गई और राजा की करतूत से उन्होंने आग-बबूला होकर पारीक्षित को श्राप दे दिया कि यही सांप सात दिन बाद जिंदा होकर तुम्हें डस लेगा जिससे तुम्हारी मौत हो जायेगी। तुरंत तो महाराजा पारीक्षित ऋषि के श्राप का उपहास करते हुए अपनी राजधानी चले गये लेकिन जब उन्होंने राजगृह में जाकर अपना मुकुट उतार कर रखा तो कलियुग की छाया छिटकते ही उनका विवेक बहाल हुआ और ऋषि के श्राप के परिणाम की कल्पना करके वे थरथर कांपने लगे इसके बाद वे ऋषि के पास गये और उनसे गिड़गिड़ाते हुए काफी देर तक क्षमा-याचना की जिससे ऋषि पसीज तो गये लेकिन उन्होंने कहा कि राजन अब मैं चाहूं तो भी मेरा श्राप टल नहीं सकता। उन्होंने कहा कि अब तुम केवल यह करो कि सात दिन तक श्रीमद्भागवत की अमृत कथा का श्रवण पूरे मनोयोग से करो ताकि मृत्यु के बाद तुम्हारी आत्मा को भटकना न पड़े और तुम्हें मोक्ष मिल जाये।
श्रीमद्भागवत की इस प्रस्तावना का यह स्पष्ट संदेश है कि सनातन धर्म स्वर्ण को पाप का मूल समझता है। आश्चर्य की बात यह है कि उसी धर्म के मानने वाले अपने पूजा स्थल में सोने का भंडार लगाकर उसकी सारी महिमा और पुण्य को क्षीण करने का संकल्प ले बैठे हैं। सोमनाथ मंदिर में भगवान के मद्द न करने से सनातनियों के हुए विनाश से उन्होंने कोई सबक नहीं लिया लगता है कि पूजा स्थलों में श्रीमद्भागवत की अवहेलना कर सोने की जखीरेबाजी किये जाने का ही परिणाम है कि भारतवंशियों पर ईश्वर इतना कुपित हुआ कि पराक्रमियों के इस देश को आक्रमणों में लगातार पराजय का दंश झेलते हुए दासतां का लंबा दौर जीना पड़ा।
उक्त चारों मंदिरों की रोजाना की आमदनी का आंकड़ा भी खबर में शामिल किया गया है जिसके मुताबिक आठ करोड़ रुपये रोजाना का चढ़ावा इन मंदिरों में आता है और इसमें से केवल सात प्रतिशत ही मंदिरों पर खर्च किया जाता है। सालाना 50 करोड़ रुपये मात्र ये मंदिर सरकार को कर देते हैं। जो कि इनकी 2691 करोड़ रुपये की वार्षिक आय में लघुतम अनुपात है। अकेले तिरुपति मंदिर की माली हैसियत 1.30 लाख करोड़ रुपये की है जबकि देश के सबसे बड़े मालदार आदमी अंबानी की 1.29 लाख करोड़ की माली हैसियत भी इस एक मंदिर से कम है।
ईश्वर अपने आप में निराकार है वह खुद को मानव रूप में अभिव्यक्त करता है। इस कारण ईश्वर की पूजा के नाम पर आने वाला संग्रह मानव सेवा के निमित्त उपयोग किया जायेगा यह सहज विधान है। लेकिन उक्त मंदिरों की आमदनी को लेकर ऐसा विचार क्यों नहीं हो रहा होना यह चाहिए कि यह मंदिर अपनी साठ प्रतिशत आमदनी हिंदुओं के लिए बिना कोई शुल्क के अस्पताल और स्कूल चलाने में खर्च करें। ईश्वर की भावना यही है और अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो यह उसकी अवहेलना के बराबर है पता नहीं कितने लोग मेरे इस मत से सहमत होंगे लेकिन अगर यह हो जाये तो खुशहाली सूचकांक में जो भारत अभी पाकिस्तान और बंगला देश से भी कमतर साबित हुआ है वह टाॅप पर नजर आयेगा यह बात तय है।
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