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0 आज लोग मानेंगे यूटोपिया, लेकिन आजादी के तत्काल बाद के कई वर्षों तक यह रही थी हकीकत
0 सोवियत खेती से भी बड़ा सामूहिक खेती का प्रयोग
जालौन और हमीरपुर के सीमावर्ती इलाकों से गुजरती बेतवा जब सावन-भादों में हहराती हुयी बहती है तो जवान आंखे भी उसका विस्तृत पाट नापने में नाकाम रहती है। इस बुंदेली नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव मगरौठ के ह्दय पटल का विस्तार भी कभी पैमाइश की गुस्ताखी को मुंह चिढ़ाता था। आज इस गांव का दिलेर दिल उदास है। यहां की फिजा पर उजास कम, ज्यादातर कुहास है।
सिस्टम के बोझ तले बुंदेलखण्ड में सिर्फ किसान ही आत्महत्या नहीं कर रहे है। यहां एक आन्दोलन ने भी सिस्टम से रूठ कर खुदकुशी कर ली, एक बामकसद मुहिम बेमौत कर गयी। मगरौठ से धधकी प्रयोगधर्मी क्रांति की लौ जहां की तहां दफन हो गयी। फिर भी मगरौठ की मिसाल अपने आप में एक कहानी है, ऐसी कहानी जो मन को दुखी भी करती है और कुछ कर गुजरने का जज्बा भी जगाती है। बाहर से देखेंगे तो मगरौठ आपको बुन्देलखण्ड के किसी भी औसत विकसित गांव जैसा ही दिखेगा, लेकिन इसे जानने के लिये इसके भीतर पैठना पड़ेगा। एक छोटे से पानी के दरिया को पार करने के लिये जय पुलिया। बच्चों की पढ़ाई के लिये प्रकाश मंदिर पाठशाला और सार्वजनिक नारायण अतिथि गृह। क्या आपको इसमें कुछ खास दिखा। हां, ‘‘जय प्रकाश नारायण‘‘। लोकनायक जेपी के मुंह से जग ने भले ही 1974 में सम्पूर्ण क्रांति का नारा सुना था लेकिन जेपी के जेहन में इसक बीज तो मगरौठ ने ही बो दिया था।
संत विनोबा की आंखे भी मगरौठ वासियों का जज्बा देख फटी रह गयी थी
1956 में और उससे भी चार साल पहले संत विनोबा भावे ने भूदान आन्दोलन की अलख जगाते हुये बुन्देलखण्ड की धरती पर पांव रखे थे तो मगरौठ ने ही आगे बढ़कर उनके हाथ थामे थे। भूदान बाबा के मन में अपने आंदोलन की सफलता को लेकर तमाम आशंकाओं को इस गांव ने बेतवा के पवित्र जल से धो दिया था। बाबा आशंकित मन से इस गांव में दाखिल हुये थे और पुलकित ह्दय यहां से विदा हुये। आजादी को पूरे पांच साल भी नहीं हुये थे। संसदीय लोकतंत्र ने दो महीने पहले ही अवतार लिया था। 1952 का साल था, मई का महीना उतार पर था। जबर्दस्त तपिश के दिन थे, वो भी बुन्देलखण्ड की तपती धरती। बेतवा पार करके संत विनोबा भावे मगरौठ में दाखिल हुये। गांव वाले बाबा और उनकी अनूठी मुहिम के बारे में पहले ही जान चुके थे। उनके आने से पहले ही प्रगतिशील और उदार विचारों वाले जमींदार शत्रुघ्न सिंह के नेतृत्व में पूरी योजना बन चुकी थी। गांव के सर्वाधिक बुजुर्गों में एक मातादीन यादव की आंखो में वो दृश्य फिल्म के मानिंद आज भी ताजा है। भूदान बाबा के सामने पूरा गांव एकजुट हुआ। दानवीर मगरौठ ने कोई ढाई सौ एकड़ जमीन समर्पित कर दी।
दानवीर कर्ण को साक्षात देख रहे थे बाबा
बाबा हतप्रभ थे, उनके प्रवचनों में महाभारत के प्रसंगों की भरमार रहती थी, आज वो कर्ण को साक्षात सामने देख रहे थे। कैसे है यह लोग जिन्होंने उनके आने से पहले सर्वस्व दान करने की योजना बना ली थी।
बाबा ने गांव वालों की पूरी बात नहीं मानी और बुन्देलों ने भी आन की खातिर बाबा की पूरी बात नहीं मानने का फैसला किया। बाबा नहीं चाहते थे कि पूरी जमीन दानशीलता पर निछावर हो जाये और शत्रुघ्न सिंह के नेतृत्व में गांव वालों का हठ था कि बुंदेले दी हुयी चीज वापस नहीं लेंगे भले ही बेतवा में समाधि ले लें।
और यू हुआ मगरौठ सर्वोदय मण्डल का गठन
आखिरकार बीच का रास्ता निकला। फार्मूला अद्भूत था। मगरौठ सर्वोदय मंडल का गठन हुआ। पूरी जमीन उसके नाम कर दी गयी। तय हुआ कि सभी लोग पहले की तरह अपनी अपनी जमीन जोतंेगे लेकिन उपज एक जगह इकट्ठी होगी। उसका बंटवारा हर परिवार के सदस्यों की संख्या के आधार पर होगा। उपज का दस फीसदी हिस्सा अलग रखा जायेगा। उसकी मदद से सिंचाई साधन तैयार किये जायेंगे, साथ ही गरीब कन्याओं की शादी या ऐसे ही कल्याणकारी कामकाज पर खर्च होंगे।
सारे देश के लिये लाइट पोस्ट बन गया मगरौठ
आन्दोलन का रथ चल निकला। पहियों के तले विसंगतियां कुचली जाने लगी। लोग मगरौठ के आईने से भावी भारत को देख रहे थे। उपज के आरक्षित हिस्से से जब कुल 75 हजार रूपये इकट्ठा हो गये तो पूरे गांव में जमीन समतलीकरण जैसे भूमि सुधार के अलावा तालाबों की गहराई और बंधों के निर्माण के काम भी हुये। गरीब की बेटी की शादी की फिक्र पूरा गांव करता था। मगरौठ और सर्वोदय एक दूसरे के पर्याय हो गये। गांव में ही घर घर बापू का चरखा चलने लगा। ओढ़ने-पहनने-बिछाने के लिये मगरौठ कहीं और का मोहताज नहीं रहा। मनोहर लाल अनुरागी बताते है कि यहां का कंबल दूर-दूर भेजा जाता। यहां की बनी सुतली और सनई रस्सी कहां नहीं जाती। बुन्देलखण्ड में लोग बाटा ब्रांड कम मगरौठिया जूता ज्यादा जानते थे।
मगरौठिया जूता के आगे फेल था बाटा
दीवान शत्रुघ्न सिंह के बचपन से ही मुरीद वयोबृद्ध फौजदारी अधिवक्ता यज्ञदत्त त्रिपाठी बताते है कि गया प्रसाद, ठाकुर दास और मगन जैसे हुनरमंद कारीगरों के हाथों बने जूतों की मांग नेहरू जी और शास्त्री जी को होती थी। ग्रामोद्योग केन्द्रों में बनने वाले साबुन में इस्तेमाल के लिये मगरौठ नीम के तेल का बड़ा आपूर्ति सेन्टर बन गया। मगरौठ कुटीर उद्योग का गढ़ बन गया था। कम से कम मगरौठ में तो गांधी एक बार फिर जिन्दा हो गये थे। लेकिन मगरौठ के समानन्तर वो ताकतें ज्यादा ताकतवर थी जो इस देश में गांधी को जिंदा नहीं देखना चाहती थी।
मगरौठ के स्वर्ग को कुचला नौकरशाही के सिस्टम ने
मगरौठ की धरती न तो बेदम सिस्टम को जानती है, न पहचानती है बेदर्द कानून को। वह तो सिर्फ और सिर्फ जानती है अपने पुत्रों को भी अपनी बेतवा अम्मा को, लेकिन ये दोनों ही लाचार है। बेटे चाह कर भी धरती का सीना चीर कर उसकी प्यास नहीं बुझा सकते और बेतवा अम्मा लाख मन सजोंये, लेकिन वह बगल मे पसरी प्यासी धरती तक अपनी जलराशि उलीच नहीं सकती।
धरती की प्यास और भूमिपुत्रों की भूख के अन्तर्युद्ध में मगरौठ सर्वोदय मंडल शहीद हो गया। सर्वोदय का सपना तार-तार हो गया। दानवीर शत्रुघ्न सिंह की मुहिम प्रतिक्रियावादी सिस्टम की कोख में बिला गयी। कानून को भूदान आंदोलन की पवित्र मंशा से क्या लेना देना। सामूहिक खेती के क्रांतिकारी फार्मूले ने पूरे गांव की जोत को एक मुश्त कर दिया था, गांव वाले एक हो गये थे और जनता की एकता तो सत्ता को हमेशा से अखरती रही है। इस एकता को कानून की पेचीदगी ने बिखेर कर रख दिया। पूरी जमीन का एक खाता होने से वृहद जोतकर लग गया, नतीजा आमदनी का एक बड़ा हिस्सा जोतकर के खाते में जाने लगा। रूप रानी बताती है कि जब 1956 में जेपी गांव आये तो सामूहिक खेती के इस उपक्रम ने उन्हे अभिभूत कर दिया।
जेपी का प्रभाव भी नौकरशाही को पसीजने के लिये राजी न कर सका
जेपी के लिये उस वक्त 45 बैलों का रथ तैयार किया था, वह उसी पर सवार होकर पूरे गांव में घूमे। वह पूरे एक महीने गांव में रहे। (कहते तो ये भी है कि वह इस आशंका की सच्चाई जानने आये थे कि कहीं सामूहिक खेती के फार्मूले के पीछे शत्रुघ्न सिंह का कोई दबाब तो काम नहीं कर रहा) उन्हें जब सामूहिक खेती के प्रयोग के अंधेरे पक्ष से अवगत कराया गया तो उन्हेांने आश्वस्त किया कि वह दो काम जरूर करवायेंगे। एक तो सामूहिक खेती के लिये नया कानून बने, ताकि वृहद जोतकर की विसंगति से बचा जा सके और दूसरे सरकारी खर्च से जल्द से जल्द सिंचाई के समुचित साधन उपलबध कराये जायें। जेपी ने कोशिश भी की, लेकिन सिस्टम के सरपस्त नौकरशाहों ने फाइलों मे दबा कर इस मंशा का गला ही घोंट दिया।
एकजोत का खाता बना प्रयोग की विफलता का सबसे बड़ा कारण
सामूहिक खेती की राह में एक और काटा था। चूंकि जोत का खाता एक था सो सिस्टम में इसके लिये एक ही पंपसेट के लिये कर्ज का प्रावधान था। जमीन ढ़ाई हजार एकड़ और सिंचाई के लिये सिर्फ एक पंपसेट। कानून बंदिश के आगे सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की गांधीगीरी एक न चली। अफसर कहते जोत को हिस्सों में बांट दो तो उतने ही पंपसेटों के लिये कर्ज मिल जायेगा, लेकिन सर्वोदयी इस बात पर अड़े थे कि क्या सामूहिक खेती कोई अपराध है जो एक से ज्यादा पंपसेट नहीं मिल सकते। सर्वोदय मंडल की माली हालत इस कदर खस्ता हो गयी कि एक पंपसेट का कर्ज चुकाने में दिक्कत आने लगी और नतीजा ये कि मंडल के अध्यक्ष इंद्रपाल सिंह को एक दिन के लिये तहसील की हवालात का स्वाद भी चखना पड़ा।
इसी तरह की दिक्कते खाद और बीज के आवंटन में आती रहीं। गांधी स्मारक निधि के पूर्व जिला संयोजक रामस्वरूप गौतम कहते है मगरौठ माडल अपने आप में विफल नहीं हुआ बल्कि उसे विफल किया गया। नौकरशाहों ने इस प्रयोग को फलीभूत होने में कोई रूचि ही नहीं लीं। धीरे-धीरे लोग भी कसमसाने लगे कि आखिर ऐसे प्रयोग से क्या फायदा, नियम-कायदे ही जिसके दुश्मन हो। कानूनी विसंगतियों के चलते सामूहिक खेती पर ही सवाल उठने लगे। लोग ये सोचने पर बाध्य होने लगे कि इससे तो छोटी छोटी जोत ही बेहतर थी। कम से कम हम अपनी जमीन के लिये एक पंपसेट तो हासिल कर सकते है।
लिफ्ट सिंचाई कैनाल के प्रस्ताव को जानबूझ कर किया अनदेखा
केशव नारायण गौतम कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि इस मर्ज को कोई इलाज नहीं था। जिस गांव से सटकर अपार जल राशि वाली बेतवा बहती हो, वहां तो एक छोटी सी लिफ्ट कैनाल योजना ही हरित क्रांति ले आती। आस पड़ोस के और गांवों का भी कायाकल्प हो जाता और ये कदम आज भी उठाया जा सकता है।
मगरौठ के बुंदेलों ने पूरे 42 साल विनोबा भावे, जेपी और शत्रुघ्न सिंह के सपनों को संजोये रखने की हाड़तोड़ कोशिश की। सिस्टम के आगे न झुकने वाले बेतरह टूट गये। 1994 में सर्वोदय मंडल का खाता भंग कर दिया गया और उसी के साथ एक पवित्र क्रांतिकारी आंदोलन ने खुदकुशी कर ली।
पवित्र सपना टूटा तो नैतिक मान्यतायें भी बिखर उठी
न चाहते हुये किसान फिर पहले की तरह भूमिधर हो गये, ताकि उन्हें कृषि ऋण, खाद, बीज लेने में सहूलियत हो सके। मगरौठ की मुहिम में पवित्र आत्मा बसती थी। इस पवित्रता ने गांव में मर्यादा की तमाम लक्ष्मण रेखायें खींची हुयी थी। मुहिम तार तार हुयी तो मर्यादा भी जरजराने लगी और गांधी के इस गांव में वे सब बातें सिर उठाने लगी जिन्हें वह अपकृत्य मानते थे।
जिन पूर्वजों ने एक पुण्य अभियान की अगुवाई की थी उनके आत्मजों में से कुछ अब शराब भट्यिों के इर्द-गिर्द अपनी फिक्र को हलक के नीचे उतारते दिखते हैं। आज भी गांव में कुछ बुजुर्ग हैं जो शराब भट्ठी चलाने वालों की नाक में दम किये रहते हैं, लेकिन कब तक।
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