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आरक्षण का मुद्दा संगीन मोड़ पर

मुक्त विचार
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सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मुद्दा लगातार पेचीदा होता जा रहा है . सवर्ण युवको और छात्रों को पता नहीं कौन यह पट्टी पढा रहा है कि भारत को छोड़कर किसी भी देश में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है जबकि उन्हें यह पता होना चाहिए कि अमेरिका में तो आरक्षण सकारात्मक करवाई के नाम से कालो के लिए भारत की तुलना में बहुत व्यापक और बहुआयामी है लेकिन अब आरक्षण के औचित्य के लिए जो आधार प्रतिपादित किया जा रहा है वह दूरगामी तौर पर राष्ट्र के रूप में भारत राज्य में अलगाव की कई दरारे पैदा कर उसकी अखंडता को चटकाने की हद तक प्रभाव पैदा कर सकता है . गुजरात में हार्दिक पटेल ने अपनी बिरादरी को आरक्षण के दायरे में सामिल करने के लिए जो आन्दोलन छेड़ रखा है उसका विस्तार देश व्यापी हो चला है और हार्दिक पटेल के समर्थक अपनी बिरादरी के लिए जनसंख्या में उसके प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण की मांग कर रहे है .
आरक्षण हो या अन्य व्यवस्थाएं नागरिक के रूप में पूरे देश को एक सूत्र में
बांधने के लक्ष्य के विलोमानुपाती नहीं हो सकती जिस तरह से अमेरिका में किसी भी देश से आकर बसे लोगों में सबसे पहले अमेरिकन गौरव का बोध है वैसा ही भारत में लोगो में होना चाहिए . इंडियन प्राइड यानी यहाँ के लोगो को गर्व के साथ वी आर इंडियन का दम भरते देखने का अरमान संविधान निर्माताओ के दिलो दिमाग में था जिसे साकार करना देश की वर्तमान पीढी का अनिवार्य फर्ज है लेकिन नौकरियों और विधाई संस्थाओ में जाति के अनुपात को तय करने से इस लक्ष्य का सत्यानाश तय है . मूल रूप से इस देश के mindset में सिर्फ वायवीय दार्शनिक ऊचाईयां रही है लेकिन जमीनी व्यवस्था से उसने कोई सरोकार नहीं रखा एक अराजक व्यवस्था में यह देश जिया है जिसके कारण संविधान और क़ानून के राज की कोई चेतना उसके दिमाग में नहीं है . वी पी सिंह ने बहुत तार्किक बल के साथ मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया था लेकिन उन्होने ही गरीब सवर्णों के लिए भी आरक्षण का लालीपॉप लोगो को सबसे पहले दिया जबकि संविधान की व्यवस्थाओं के कारण ऐसा किया जाना कदापि संभव नहीं था उन्होंने ही आरक्षण के क्षेत्र में लोगो की अराजक ग्रंथि को उकसाने का काम किया जिसकी लीक पर बढ़ने वाली प्रव्रतियाँ देश के लिए भस्मासुर बनकर सामने आई है . इस देश की समस्याओ के पीछे एतिहासिक कारण है इसी कारण मध्य कालीन एतिहासिक काल खंड के पूर्व चक्रवर्ती होने की हसरत पालने वाले युद्ध पिपासुओ ने एक नए किस्म का समायोजन प्रस्तुत किया इसी बर्बर उपनिवेश वाद की देन है जातिगत भेदभाव और अत्याचार लेकिन देशी विजेता वितंडा वाद में माहिर थे जिसके कारण अपनी व्यवस्थाओ को लादने के लिए उन्होने ऐसे मनोवैज्ञानिक पाश इजाद किये के भुक्तभोगी वर्ग प्रतिकार की चेतना तक अपने दिमाग में नहीं ला पाता था देश की वर्तमान सीमाओं में इसी के चलते बड़ा घालमेल है द्रविण परिवार के राज्यों और आर्य भासी राज्यों के बीच इसे बहुत उजागर तौर पर देखा जा सकता है लेकिन एक बेमेल साम्राज्य का निर्वाह सदियों तक होता रहा यह कौशल दुनियां के किसी हिस्से में देखने को नहीं मिलता . भारत नाम का जो बेतुका गठजोड़ इतने लम्बे कालखंड तक नहीं दरका तो उसकी सबसे बड़ी वजह सहिष्णुता को मनोवैज्ञानिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की पराक्रमियों की सोच को माना जा सकता है यह दक्षता अभी भी कायम है तमाम राज्यों के अलगाववादी
रवैये को केंद्र की सरकार अनसुना करती रहती है और एक दिन जोशीले अलगाववादी थककर शांत हो जाते है पर अब मंजर बदल रहा है सदियों के हिसाब किताब को आज ही निपटा देने की भावना पाले एक तबका जो जोश दिखा रहा है उससे या तो उन्ही के मन की पूरीं हो जाएगी और अन्यथा यह भी हो सकता है की गठबंधन के सारे जोड़ खुलकर बिखर जाए .
बात चूकि आरक्षण की जा रही है तो इस सन्दर्भ को लेते हुए देखे तो सरकारी नौकरियों को जातियों के आधार पर बाटने की वकालत को कदापि मान्य नहीं किया जा सकता आरक्षण एक अंतरिम व्यवस्था है इसके लाभार्थी केवल बे लोग हो सकते है जो कि सामाजिक व्यवस्था की गलतियों के कारण भौतिक तौर पर राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे धकेले जा चुके है जहाँ तक केबल १० वर्ष के लिए आरक्षण की व्यवस्था सविंधान में की जाने का प्रश्न है तो स्पष्ट देखा जा सकता है कि साजिशन इस आरक्षण के साथ मजाक किया गया . कमला पति त्रिपाठी जब रेलमंत्री थे तो मोटे वेतन की वजह से उन्होने स्वीपर के पदों पर भी यह कहकर आरक्षित कोटे को ख़त्म कर सवर्ण भर्ती करा दिए थे कि अनुसूचित वर्ग में स्वीपर के काम के लिए भी उन्हें योग्य लोग नहीं मिले कई दशक तक यह सरकार की मर्जी थी कि उक्त बहाने करके आरक्षण को विफल कर सके यह तो बहुत बाद में हुआ कि रिजर्व सीटें खाली छोड़ दी जाएँगी अगर उनके लिये आरक्षित वर्ग से पर्याप्त उम्मीदवार नहीं मिल पाते लेकिन उन सीटों को जनरल किसी कीमत पर नहीं किया जायेगा . उक्त बेईमानी की देन है कि आरक्षण व्यवस्था अभी तक जारी है लेकिन जिस दिन आरक्षित वर्ग अपनी संख्या के अनुपात में नोकारियों में जगह बना लेता है उसदिन यह आरक्षण ख़त्म करना ही होगा एक सार्वभौम राष्ट्र के लिए यह अनिवार्य तकाजा है

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