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उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव , लोकतांत्रिक पतनशीलता का नया पडाव

मुक्त विचार
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उत्तर प्रदेश में लगभग ६० हजार ग्राम पंचायतों के चुनाव कमोवेश ठीकठाक ढंग से निपट गये है |
चुनाव में बहुतायत युवा उम्मीदवार सफल हुए है | महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी है | पंचायती
राज व्यावस्था के तहत ३३ % पद तो महिलाओं के लिए आरक्षित ही है लेकिन सफल महिला उम्मीदवारों का अनुपात ३८% है |
आकड़ो के आधार पर तो भारतीय समाज में महिला नेतृत्व की बढती स्वीकार्यता की चमकदार तस्वीर
उभरती है लेकिन वास्तविकता में यह एक सतही निष्कर्ष है जिसकी विसंगतियाँ पड़ताल की थोड़ी गहराई में जाते ही
नजर आने लगती है |
भारत में पुरानी पंचायत व्यावस्था को लेकर गांधी जी जैसे महापुरुष तक सम्मोहित रहे है जो उनके द्वारा समय समय पर
पंचायतों के महिमा मंडन से विदित होता है लेकिन मार्क्स ने भारतीय ग्राम पंचायतों को कूप मंडूकता से ग्रस्त
जड़ व्यवस्था का संवाहक बताया था | संविधान निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर भी रूढ़िवादिता में जकड़ी
पंचायतों को बहुत प्रोत्साहित करने के पक्ष में नहीं थे | उन्होंने संविधान सभा में मजबूत संघ की वकालत अधिकार सौपने के मामले
में की थी लेकिन राजीव गांधी द्वारा लागू की गयी नई पंचायती राज् व्यवस्था का पुरानी आदर्श और न्याय पर आधारित
ग्राम व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं रहा | उन्होंने पंचायतों के सशक्तिकरण की नीति विश्व बैंक व् अन्य अंतर्राष्ट्रीय नियामक
संस्थाओं से निर्देशित होकर विकास के मामले में स्वप्रबंधन के सिद्धांत के तहत अपनाई |
अगर यह नीति इसमें निहित भावना के अनुरूप क्रियान्वित होती तो देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को
गुणात्मक रूप से समृद्ध करने में पंचायते महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती थी लेकिन इन्होने
लोकतांत्रिक पतनशीलता को गहरे से गहरे तल तक ले जाने में योगदान किया है और उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनाव में
इस मामले में नया रिकार्ड कायम किया गया है |
इन चुनावों में खुलेआम पैसे का खेल खेला गया | भोलेभाले कहे जाने वाले ग्रामीण मतदाताओं ने सभी प्रत्याशियों की बोली झटकने में गुरेज नहीं किया
लेकिन वोट उसी को दिया जिसने सबसे ज्यादा कीमत अदा की थी | इस प्रक्रिया में ग्रामों के विकास की कुंजी उन
धनपशुओ के हाथो में जा पहुची है जिनके लिए सार्वजनिक पद भरपूर निवेश करके मुनाफे की भरपूर फसल काटने का साधन है |
मतदाताओं को ख़रीदने में पानी की तरह पैसे बहाने वाले ये धन पशु विकास के सरकारी फंड की क्या गत करेंगे
इसे बताने की जरूरत नहीं है | भारत में युवा जनसँख्या सर्वाधिक हो चुकी है इसलिए युवा उम्मीदवारों को सफलता
स्वाभाविक सी चीज है | भारत की परम्परागत व्यवस्था संयुक्त परिवार से प्रेरित थी जिसमे उम्र की वरिष्ठता के
आधार पर मुखिया का चुनाव होता था और ऐसे में गाँव के मुखिया को लेकर भी कुछ दशक पहले तक
जो बिम्ब बना था उसमे लोगो की निगाहे बुजुर्ग चेहरे को देखने की अभ्यस्त थी |
दूसरी और यह भी माना जाता था कि जैसे जैसे आदमी उम्र दराज होता जाता है वैसे वैसे उसकी सोच व्यवहारिक
होती जाती है यानी अपना व् अपने परिवार का हित और इसके लिए सिधान्तों से समझौता उसकी प्रवर्ती
बनती जाती है जबकि युवा की लाक्षणिक विशेषता आदर्शवादी और क्रांतिकारी चेतना से लैस व्यक्तित्व की
होती है लेकिन जनरेशन गेप का यह साँचा दरक चुका है | उपभोकातावादी संस्क्रती के जमाने का युवा अपनी
मौज मस्ती को जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य मानता है और नैतिक बंदिशे उसे जीवन की गति में सबसे बड़ी बाधा नजर आती है |
सफलता के लिए सबकुछ जायज है के मन्त्र में विश्वास की वजह से चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं का जमीर खरीदने में
उसे कोई हिचक महसूस नहीं होती | इसलिए पंचायती चुनाव की पतित होती हालत को युवाओं के बाहुल्य के कारक से जोड़कर
देखना गलत नहीं होगा | इसी तरह आरक्षण से ज्यादा महिलाओं के जीतने को लेकर भी कोई गफलत नहीं पाली जानी चाहिए |
यह चमत्कार उन पुरुषो की मजबूरी की बजह से हुआ है जो सरकारी नौकरी में होने या ऐसी ही किसी अन्य बजह से
खुद चुनाव नहीं लड़ सकते थे लेकिन जिनका अपनी नौकरी में भी भ्रष्टाचार का बड़ा रिकार्ड है और इस वास्ते अपने चारागाह के विस्तार
के लिए उन्होंने पत्नी को आगे करके नया संधान किया है |

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