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मोदी की नाटकीयता का क्या होगा अंजाम

मुक्त विचार
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नाटकीय पाकिस्तान यात्रा से देश को कुछ हासिल हो या न हो लेकिन यह एक ऐसी परिघटना बन गयी है। जिसकी वजह से भारत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया की सुर्खियों में आ गया है। पाकिस्तान की प्रेस भी मोदी की इस अदा पर तत्काल में फिदा दिखी। हालांकि तटस्थ और ग भीर प्रेक्षकों ने मोदी की पहल को लेकर दिखाये जा रहे अति उत्साह पर यह टिप्पणी करने में चूक नहीं की है कि इसके पीछे कोई सुचिंतित उद्देश्य न होकर अंधेरे में तीर चलाकर कुछ हासिल कर लेने की कोशिश भर है।
सन 2014 के लोकसभा चुनाव में जो भीड़ मोदी का टूटकर समर्थन कर रही थी उसे मुगालता था कि मोदी कोई शक्तिमान हैं जो प्रधानमंत्री बनते ही दूसरी पार्टियों के दब्बू प्रधानमंत्रियों से अलग पाकिस्तान के प्रति ऐसा आक्रामक रुख अपनायेंगे जिससे एक ही दिन में इस्लामाबाद अपने वजूद की दुहाई देता नजर आयेगा। प्रचारित यह था कि भारतीय सेना ने तो कई मौके पर मनमोहन सिंह से कहा कि वह इजाजत भर दे दे फिर देखो 24 घंटे ही लाहौर भारत के कदमों तले लोटता नजर न आये तो कहना लेकिन मनमोहन सिंह में निर्णायक कार्यवाही करने का दम ही नहीं था। अब मोदी आये हैं जो भारत का ऐसा शेर है कि पाकिस्तान ने सीमा पर फायरिंग भी कर दी तो अगले ही दिन सेना को उसका वजूद मिटाने का इशारा कर देंगे लेकिन हकीकत क्या है यह आज सबके सामने है। अपनी शर्तों पर ही पाकिस्तान से वार्ता करने का दम भरने वाली मोदी सरकार आज उसकी शर्तों पर वार्ता करने को मजबूर दिखती है। वार्ता की पहल भारत की ओर से ही शुरू की गयी है और भारत ने यह मान लिया है कि वार्ता के एजेण्डे में कश्मीर का मुद्दा प्रमुखता से शामिल रहेगा। बाजपेयीजी ने पाकिस्तान में राष्ट्राध्यक्ष के रूप में सेना का आदमी होते हुए भी उसे यह मानने को विवश कर दिया था कि कश्मीर समस्या का समाधान करने के लिये भारत लचीला होने को तैयार है लेकिन भारत को वही हल मंजूर होगा जिससे उसकी सीमाओं में कोई परिवर्तन न होता हो। आज स्थिति यह नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उनकी पाकिस्तान यात्रा के समय नवाज शरीफ ने प्रोटोकाल तोड़कर स्वागत किया। वह एक अलग बात है। आज दोनों प्रधानमंत्रियों में निजी तौर पर जो गर्मजोशी कायम हुई है वह उपलब्धि भारत के किसी भी नेता को मयस्सर नहीं हो पायी थी लेकिन आज पाकिस्तान भारत पर चढ़ा हुआ है। इस यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती। नरेन्द्र मोदी अनुच्छेद 370 को संविधान से समाप्त करने की अपनी पार्टी की प्रतिबद्धता को सहेज रख पाना तो दूर उसके सामने अटलजी जितनी दृढ़ता भी नहीं दिखा पा रहे। उन्होंने मु ती मुह मद की सरकार कश्मीर में बनवाने से लेकर पाकिस्तान की सद्भावना हासिल करने के उपक्रम तक जो सफर तय किया है उसमें बहुत भटकाव है और खासतौर से भारत के लिये कश्मीर को लेकर पहले कभी से बहुत ज्यादा अनिश्चित स्थिति पैदा हो गयी है।
भाजपा के नेता मोदी की साहसिक पहल को कितना भी सराह रहे हैं लेकिन अन्दर से वे भी इसकी परिणति को लेकर संशयग्रस्त हैं। इसी बीच संघ से आयातित भाजपा के महासचिव राममाधव ने कहा है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश फिर एक होकर अखण्ड भारत का निर्माण करेंगे। राममाधव की बात रूपगत स्तर पर सही हो सकती है लेकिन जहां तक तासीर का प्रश्न है। इसमेें केवल लिजलिजी भावुकता भर छलकती है। दरअसल अखण्ड भारत की संकल्पना अनेकता में एकता पर आधारित है। कोई हिन्दू राष्ट्र इसका आधार नहीं हो सकता जबकि राम माधव विचारधारा के स्तर पर जहां से पोषित होते हैं वह संस्थान हिन्दू राष्ट्र के दायरे में इस संकल्पना को देखता है। यह संकल्पना 1857 के बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में लड़ी गयी आजादी की पहली लड़ाई से भयाक्रांत होकर अंग्रेजों द्वारा हिन्दू मुस्लिम एकता को तोडऩे की साजिश का उत्पाद है। 1947 में भारत का विभाजन इस्लाम के नाते नहीं बल्कि अंग्रेजों के कुचक्र की वजह से हुआ। इस सत्य को नहीं भुलाया जा सकता कि यूरोपीय देशों की तरह भारतीय मुसलमान विदेशों से आकर दूसरे देश में बसे मुसलमान नहीं हैं बल्कि वे इसी देश के निवासी हैं और धर्मान्तरण करने के बावजूद उनकी आदतें, उनके संस्कार और उनका माइंडसेट अरब या दुनिया के दूसरे हिस्सों के मुसलमानों जैसा नहीं हो सकता। इस्लाम की सूफी शाखा सबसे ज्यादा भारत में ही फली फूली और पाकिस्तान व बांग्लादेश के आज अलग होने के बाद भी इस्लाम के इस नये प्रवाह में वे भारत के साथ साझा हैं।
खनिज तेल के भण्डारों पर इजारेदारी के लिये वितंडावाद में पारंगत पश्चिमी शक्तियों ने आज इस्लाम जगत के बड़े हिस्से को अंधी हिंसा के जिस मुहाने पर ले जाकर खड़ा कर दिया है। उससे छुटकारा पाने की आवाजें विवेकशील इस्लाम की ओर से बुलंद होने लगी हैं। इस मामले में भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों की ओर सारी दुनिया आशा की निगाह से देख रही है। मोदी ऐतिहासिक शक्तियों के इसी बदलावी ज्वार के उपकरण बनकर उभर रहे हैं। भले ही उनका अतीत कुछ भी हुआ हो। इसलिये उनकी पाकिस्तान को लेकर पहल में तमाम बचकानापन होते हुए भी यह कामना की जानी चाहिये कि वे सारी दुनिया को एक नया रास्ता दिखाने का माध्यम अपनी इस प्रयोगवादी राजनीति के माध्यम से कर सकेेंगे।

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