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नरेन्द्र मोदी की बाबा साहब के प्रति बढ़ती अनुरक्ति

मुक्त विचार
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकसभा चुनाव के अभियान के समय बाबा साहब अम्बेडकर के लिये उपजी अनुरक्ति का रंग उन पर लगातार और गहरा होकर चढ़ रहा है। जिस पर विस्मय होता है। नरेन्द्र मोदी की वैचारिक परवरिश एक ऐसी संस्था में हुई जिसका हिडिन एजेण्डा वर्ण व्यवस्था का पुनरुत्थान करना है। हालांकि इस संस्था ने भी बहुत पहले अम्बेडकर का नाम लेना शुरू कर दिया था लेकिन यह संस्था कलयुग केवल नाम अधारा के कुटिल सूत्र वाक्य में विश्वास रखती है। उसके लिये अम्बेडकर का नाम एक राजनीतिक जरूरत भर है लेकिन उसमें निष्ठा की गहराई देखने को नहीं मिलती। नरेन्द्र मोदी का बाबा साहब के प्रति अनुराग उस संस्था के मानस पुत्र होते हुए भी एकदम भिन्न है। उनके इस मामले में उद्गारों को एक साथ जोड़कर देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है। निश्चित रूप से उन्होंने बाबा साहब की विचारधारा को काफी गहराई तक अपने अन्दर उतारने की साधना शुरू की है। इसलिये जब भी बाबा साहब के स्मरण का मौका आता है वे निश्छल भावना से उनकी उन विशेषताओं का बखान करने में नहीं चूकते जो कि पूरी तरह विश्वसनीय है। उनमें कोई आडम्बर नहीं है।
ताजा मौका दलित इंडियन चैम्बर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री की दसवीं वर्षगांठ के आयोजन का रहा। इसमें प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि थे। नरेन्द्र मोदी ने जब इस अवसर पर दलितों के साथ अपने को जोड़ा तो वह बहुत मार्मिक हो उठे। उन्होंने कहा कि दलितों की तरह ही अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय से सम्बन्धित होने के कारण उन्होंने कम अपमान नहीं झेला है। उन्होंने उल्लेख किया कि एक समय था जब बारात में दलितों को घोड़े पर चढऩे नहीं दिया जाता था। जब कोई निचले तबके का व्यक्ति अच्छे कपड़े पहनता था तो उसे अच्छा नहीं माना जाता था। नरेन्द्र मोदी ने संकेत किया कि यह चलन अतीत की कटु स्मृति के रूप में ही जीवित नहीं है बल्कि इस युग में भी कमोवेश यह चलन जारी है। नरेन्द्र मोदी को पता है कि किस सामाजिक वर्ग सत्ता ने उन्हें प्रधानमंत्री के ओहदे पर आसीन किया है। जिस कारण वे चाहकर भी सामाजिक भेदभाव की पीड़ा पर पूरी तरह नहीं खुल सकते। एक तिक्त प्रसंग को उन्होंने नफासत के अंदाज में बयां किया तो यह उनकी मजबूरी है लेकिन उन्होंने उक्त आयोजन में अपने उद्गार से एक बार फिर हिन्दू समाज को बेनकाब करने का काम किया है। शायद संघ परिवार ने उनके उद्गार के मर्म को समझा होगा लेकिन रणनीतिगत कुछ मजबूरियां हैं जिसकी वजह से फिलहाल मोदी का प्रतिवाद उसके द्वारा किया जाना संभव नहीं है।
आरक्षण के प्रश्न पर 16वीं लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद वर्ण व्यवस्थावादी तबका उद्धत मुखरता के साथ सक्रिय हुआ था। इस प्रश्न पर प्रतिभाशाली सवर्ण युवाओं की कुंठा का जिस भावुकता के साथ बखान होता है उससे एक क्षण के लिये समाज का निचला तबका जिसे आज बराबरी पर लाने के लिये आरक्षण के लाभ से पोषित किया जा रहा है। अपराधियों के कटघरे में खड़ा नजर आने लगता है। दलितों और पिछड़ों को खलनायक साबित करने में इस उद्यम के दौरान कोई कसर नहीं छोड़ी जाती लेकिन उस समय आरक्षण को कोसने वाले यह भूल जाते हैं कि उन्हें तो कुछ दशक से ही थोड़ा सा दंश झेलना पड़ रहा है लेकिन सामाजिक अन्याय, उत्पीडऩ, शोषण और अत्याचार का कितना दंश वंचित जातियों ने झेला है। जिसके लिये आज भी उनके मन में कोई अफसोस और अपराधबोध नहीं है। हिन्दू संस्कृति के गौरव गान के कोलाहल में मानवता के प्रति अपराध के सिलसिले को दफन करने की कोशिश की जाती है।
मंडल बनाम कमंडल की राजनीति की शुरूआत के बाद दलितों और पिछड़ों में सुग्रीव प्रजाति के नेतृत्व को उभारने की कोशिश सेफ्टी वाल्व के रूप में की गयी और भाजपा शासित राज्यों में पिछड़े मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति इसी रणनीति का परिणाम थी लेकिन इसे अंतरिम प्रबंधन के बतौर स्वीकार किया गया था। इसी नाते सामाजिक बदलाव के हामी मोदी को लेकर शुरू में यह मूल्यांकन कर रहे थे कि वे वंचित जातियों में से तलाशे गये ऐसे मुखौटे साबित होंगे जो वर्ण व्यवस्था के पुनरुत्थान में कारगर उपकरण की भूमिका अदा करेंगे लेकिन मोदी की जैसी सामाजिक चेतना का परिचय राष्ट्रीय क्षितिज पर उनके पहुंचने के बाद मिलना शुरू हुआ है। उससे उनसे जुड़ी सारी आशंकायें निर्मूल साबित हो रही हैं जो एक शुभ लक्षण है। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले आरक्षण विरोधी परिवेश की प्रचंडता के प्रभाव में ही संघ प्रमुख ने वह बयान दे डाला था जिसे वहां भाजपा की पराजय का अहम कारक माना गया। पहले तो इस मूल्यांकन को झुठलाने की कोशिश की गयी लेकिन जब यह सिद्ध हो गया कि उत्तर मंडल युग में वंचित जातियों को प्रवंचना में धकेलना आसान नहीं रह गया है तो संघ प्रमुख ने बैकफुट पर जाकर यह स्पष्टीकरण दिया कि जब तक जातिगत भेदभाव है तब तक आरक्षण को जारी रखना होगा।
मोदी जब अम्बेडकरवादी विचारधारा में इतने रम रहे हैं तो उन्होंने यह भी जान लिया होगा कि बाबा साहब ने हिन्दू समाज के अन्दर सुधार के लिये कितने प्रयास किये लेकिन जब वे इसमें परिवर्तन लाने में रंच मात्र सफल नहीं हो सके तो उन्होंने अपना यह कथन बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर पूरा किया कि हिन्दू धर्म में पैदा न होता यह तो उनके वश में नहीं था लेकिन वे हिन्दू के रूप में मरेंगे नहीं यह उनके वश में है। क्या अम्बेडकर के प्रति बढ़ता मोह मोदी को भी इस तार्किक परिणति पर ले जा सकता है। हालांकि अभी तो इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा क्योंकि अभी भी वे संघ परिवार के नायक बने हुए हैं लेकिन उनके नायकत्व में कहीं न कहीं दरार पैदा होना शुरू हो गयी है। इस तथ्य को ओझल नहीं किया जा सकता।
संघ प्रमुख ने आरक्षण की निरंतरता को लेकर जो उक्त नया बयान दिया है अगर उसमें कपट का पुट नहीं है बल्कि एक समझदार अभिव्यक्ति है तब भी मोदी और उनकी बदलती विचारधारा से ऐसा रास्ता निकल सकता है जो न केवल हिन्दू समाज बल्कि पूरे भारतीय समाज के लिये कल्याणकारी हो। संघ प्रमुख ने जातिगत भेदभाव को आरक्षण का आधार बताया है और इससे उनका यह मंतव्य स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि कम से कम घोषित तौर पर वे इस भेदभाव को समाप्त करने के लिये संकल्पित हो रहे हैं और इस भेदभाव को समाप्त करने का तात्पर्य ही है वर्ण व्यवस्था का उच्छेदन जो लंबे समय से भारतीय समाज की जड़ता का कारण बनकर आज तक इसकी उन्नति में कोढ़ का काम कर रहा है। यह कोढ़ कैसे भी कोई भी समाप्त करे जरूरी है तभी ठहराव से मुक्त होकर भारतीय समाज अपनी बुलंदियों पर पहुंच पायेगा।

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