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अध्यक्षों के चुनाव में सपा का पासा पलट दाव

मुक्त विचार
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जिला पंचायत चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के सबसे ज्यादा सदस्य जीतने की खबर ने मायावती की जबर्दस्त हौसला अफजाई की थी जिसका इजहार उनके द्वारा तत्काल बुलाई गई पार्टी की बैठक में उनकी आक्रामक बयानबाजी से हुआ था। हालांकि लोक निर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने उसी समय पार्टी की ओर से मोर्चा संभालते हुए 80 प्रतिशत जिला पंचायत सदस्य समाजवादी पार्टी के जीतने का दावा ठोंक डाला था लेकिन तटस्थ प्रेक्षकों ने उनके दावे को कोई महत्व नहीं दिया था। मीडिया में यही प्रचारित हो रहा था कि जिला पंचायत चुनाव ने समाजवादी पार्टी की कलई खोल दी है। जिस तरह से विपक्ष को इस चुनाव में सफलता मिली है वह आने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिये अनिष्ट की स्थिति का संकेत है। इस कारण यह आश्चर्यजनक ही कहा जायेगा कि अध्यक्ष के चुनाव के समय तक समाजवादी पार्टी ने एकदम पासा पलट कर रख दिया है। उसके लगभग 34 उम्मीदवारों का तो निर्विरोध अध्यक्ष बनना तय हो गया है। इसके अलावा जहां चुनाव होने हैं वहां भी अपवाद स्वरूप ही विपक्ष के उम्मीदवारों के जीतने की गुंजाइश समझी जा रही है। बावजूद इसके कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि अध्यक्ष के चुनाव के नतीजे प्रदेश में समाजवादी पार्टी की लोकप्रियता के ऊंचे ग्राफ को साबित करेंगे।
समाजवादी पार्टी वर्चस्व बनाये रखने के लिये हर चुनाव में साम दाम दण्ड भेद के प्रयोग के लिये बदनाम रही है। पार्टी की सरकार के दौर में जब भी पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनाव हुए हैं। सत्ता का दुरुपयोग करके लोकतंत्र की सारी मर्यादायें तार-तार की गयी हैं। हालांकि इस बार नामांकन के समय तक कमोवेश समाजवादी पार्टी के पूर्व के कार्यकालों से बेहतर स्थिति देखने को मिली। कहीं बहुत बड़ी हिंसा नहीं हुई। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने चुनाव जिताने की कमान अपने अनुज लोक निर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव को सौंपी थी। जिन्हें बाहुबली माना जाता है लेकिन इसके बावजूद इस बार के जिला पंचायत चुनाव में नामांकन तक पहले की तुलना में नाममात्र की हिंसा हुई। शिवपाल सिंह यादव ने सबसे पहले विद्रोहियों को कड़ा संदेश देने की नीति के तहत मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नजदीकी सिपहसलारों सुनील सिंह यादव साजन और आनंद भदौरिया को पार्टी के अधिकृत उम्मीदवारों का विरोध करने के आधार पर पार्टी से निष्कासित कर दिया। हालांकि इसके पीछे एक कारण सपा सुप्रीमो के परिवार में अंदरखाने चल रहा सत्ता संघर्ष भी निश्चित रूप से रहा क्योंकि इस कार्रवाई के बावजूद तमाम जिलों में अधिकृत प्रत्याशियों के खिलाफ पार्टी के ही लोगों द्वारा बगावत की जाती रही। जिसके दमन के लिये उतना कठोर रुख नहीं दिखाया गया। सुनील साजन और आनंद भदौरिया के निष्कासन के बाद भी एक विधायक और कुछ लोगों पर कार्रवाई हुई लेकिन सब जानते हैं कि यह छुटपुट कार्रवाई मजबूरी में करनी पड़ी ताकि अखिलेश को यह कहने का मौका न मिले कि पार्टी के अंदर उन्हीं को निशाना बनाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं। फिर भी अखिलेश नाराज रहे। सैफई महोत्सव के उद्घाटन में उनके न पहुंचने से पार्टी की किरकिरी हुई जिससे अंदर का कलह जगजाहिर हो गया।
इस बीच शिवपाल सिंह यादव ने गजब का प्रबंधन किया। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव खुद भी जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव की विभिन्न जिलों की स्थितियों में लोगों से सम्पर्क बनाये रखकर हस्तक्षेप करते रहे। समाजवादी पार्टी ने जिला पंचायतों में सर्व सत्ता कायम करने के लिये कटिबद्ध होकर प्रबंधन किया जबकि मायावती सहित दूसरी पार्टियां उसकी कोशिश के मुकाबले उदासीन ही रहीं। इसलिये समाजवादी पार्टी को जो हासिल हुआ उसे एक मायने में मेहनत का मीठा फल भी कहा जा सकता है लेकिन इसको संभव बनाने के लिये पैसा बहाने से लेकर सदस्यों को डराने धमकाने तक जिन हथकंडों का इस्तेमाल हुआ उन्हें लोकतंत्र के लिये शुभ नहीं कहा जा सकता। चार बार प्रदेश में सत्ता की बागडोर संभाल चुकी समाजवादी पार्टी आखिर क्या बात है कि अभी तक ऐसी स्थिति नहीं बना पायी है जिससे उसे राजनीतिक सफलता के लिये गलत तरीके न आजमाने पड़ें। यह एक यक्ष प्रश्न है। शायद इसके पीछे पार्टी के कर्णधारों की यह मानसिकता भी है कि वे वीर भोग्या वसुंधरा के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं। जिसकी वजह से संयम बरतने और शालीनता से उनके द्वारा राजनीति करने की एक सीमा है।
जिला पंचायत अध्यक्ष के नामांकन तक जब सब कुछ सेट हो गया तो नये वर्ष के दिन समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने आनंद भदौरिया और सुनील साजन की अपने सामने पेशी कराई और उनकी तमाम मनुहार के बावजूद अखिलेश की नाखुशी का पटाक्षेप करने के लिये उन्हें पार्टी में वापस लेने की घोषणा करा दी। इसके एक दिन पहले उन्होंने अखिलेश की कार्यशैली की मंच से दिल खोलकर तारीफ की ताकि उनके मन में यह भावना दूर की जा सके कि उन्हें कमजोर किया जा रहा है पर समाजवादी पार्टी में जो कुछ चल रहा है उससे लगता है कि सपा मुखिया तक का विश्वास अपने पुत्र की क्षमताओं पर से हिल गया है। नये वर्ष के दिन पार्टी कार्यकर्ताओं से संवाद करते हुए अंदर की यह बात फिर उनकी जुबान पर आ गयी जब उन्होंने कहा कि सरकार कैसे चले जबकि मुख्यमंत्री को ही सरकारी कामकाज करने की फुर्सत नहीं मिल पा रही। उन्होंने अपना उदाहरण दिया कि जब वे मुख्यमंत्री थे तो सुबह 11 बजे एनेक्सी में पहुंच जाते थे और लोगों से मिल भी लेते थे। इसके बाद सरकार का काम भी जमकर निपटाते थे। जाहिर है कि अखिलेश यादव द्वारा अपने आवास से सरकार चलाने का तरीका उन्हें रास नहीं आ रहा। वे मान रहे हैं कि इससे मुख्यमंत्री की पकड़ ढीली है और इसके चलते विधायक व मंत्री निरंकुश हो गये हैं। जो जनता का काम करते नहीं हैं। उन्होंने एक मंत्री का उदाहरण दिया जिसके घर में 6 दिन तक बीमारी के इलाज के लिये सहायता मांगने आया गरीब पड़ा रहा पर उन्हें मुख्यमंत्री या उनसे उसको मिलवाने की फुर्सत नहीं मिल पायी।
अगर सपा मुखिया को इसका दर्द है कि मंत्री लोगों की समस्याओं को लेकर नहीं केवल अपने लाभ के मौके पर उनसे या मुख्यमंत्री से मिलने आते हैं तो यह सही है लेकिन इसमें कहीं न कहीं पाखण्ड भी झलकता है। आज समाजवादी पार्टी में जो संस्कृति बन गई है उसे लेकर यह बात प्रचारित है कि पद हासिल करने या बरकरार रखने के लिये पार्टी फण्ड के नाम पर पार्टी के कुछ कर्णधारों को भारी चढ़ौती चढ़ानी पड़ती है। इसकी व्यवस्था के लिये मंत्रियों को खुद भी भरपूर कमाने की जरूरत पड़ती है। ऐसे में वे सार्वजनिक काम या गरीबों की समस्यायें लेकर क्यों जायेंगे जबकि उन्हें मुख्यमंत्री या नेताजी से कभी-कभार ही बात करने का मौका मिलता है और इसी मौके में वह अपने अस्तित्व रक्षा के काम करा पाते हैं। अगर मंत्रियों को ईमानदार बनाना है और सरकार की ईमानदार छवि पेश करनी है तो मायावती के पैटर्न को अपनाकर उनसे दो हाथ आगे बढऩे की होड़ में पडऩे की बजाय मुलायम सिंह को अपने उन परिवारीजनों की नौकरशाही से लेकर पार्टी के लोगों तक से अंधाधुंध उगाही की प्रवृत्ति पर लगाम लगानी पड़ेगी जिन्हें उन्हीं के द्वारा तमाम निर्णायक शक्तियां उपलब्ध करा दी गयी हैं।
बावजूद इसके मुलायम सिंह जमीनी नेता हैं। उन्होंने नव वर्ष के दिन जो नुस्खे पार्टी के लोगों को बताये वह अखिलेश सरकार से लोगों की भारी खिन्नता के बावजूद आने वाले विधानसभा चुनाव तक समाजवादी पार्टी के पक्ष में गुल खिला सकते हैं। अगर विरोधी पार्टियां अभी की तरह भगवान भरोसे सपा के पतन की राह देखती रहीं। सपा सुप्रीमो ने लोगों का दिल जीतने के लिये बीमारी के इलाज में दिल खोलकर जरूरतमंदों की मदद कराने के टिप्स इस दौरान दिये। निश्चित रूप से यह अधिकतम लोगों को कृतज्ञ बनाने का हिट फार्मूला है। इसी तरह उन्होंने मंत्रियों से चार घंटे पार्टी दफ्तर में बैठकर जिलों जिलों से आने वाले लोगों को सुनने और उनकी जरूरतें पूरी कराने के लिये जो कहा वह भी जनाधार बढ़ाने का कम कारगर नुस्खा नहीं है। कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी का मुकाबला करना है तो जातियों का जोड़तोड़ करने, भावनायें भड़काकर सफलता सिद्ध करने का मंसूबा पालने भर से काम नहीं चलने वाला। निजी स्तर पर लोगों से संवाद रखने और उन पर एहसान करने का मौका न चूकने की सपा मुखिया की शैली से दूसरे लोगों को भी कुछ सीखना चाहिये और नकारात्मकता के आधार पर लाभ उठाने तक अपने को सीमित रखने की बजाय उन जैसी सक्रियता व संघर्षशीलता स्वयं में लाने का प्रयास करना चाहिये जो अभी उनके प्रतिद्वंद्वियों में नदारद नजर आती है।

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