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मूर्ति भंजक विचारों से इतना क्यों डरता है भारतीय समाज

मुक्त विचार
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कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ने बनारस में एक बयान दिया है जिसमें उन्होंने कहा है कि वे हिन्दुत्व नाम के किसी शब्द को नहींजानते और न ही हिन्दू हैं। उन्होंने कहा कि उनका धर्म सनातन धर्म है और वे उसका निष्ठापूर्वक अनुशीलन करते हैं। दिग्विजय सिंह लकीर पीटने की बजाय लीक से हटकर बयान देते हैं। जिसे लेकर उन्हें विवादित बयान देने वाले के रूप में कुख्यात कर दिया गया है। डा.लोहिया भी कुछ ऐसे ही थे लेकिन वे कहते थे कि लोग उनकी बात उनके मरने के बाद मानेंगे और ऐसा हुआ भी। तार्किक रूप से दिग्विजय सिंह के बयानों में दम रहता है। यही नहीं उन्होंने कई ऐसे सनसनीखेज खुलासे किये जिन पर लोग सहज विश्वास नहीं कर सकते थे लेकिन बाद में वे अपनी जगह सही निकले। यह दूसरी बात है कि संस्कारगत कमजोरियों की वजह से लोग मूर्तिभंजन करने वाले किसी भी बयान को पचा नहीं पाते। भले ही वह कितना भी सटीक क्यों न हो।
इतिहास में इस बात का उल्लेख है कि फारसी में सिंधु को हिन्दु कहा जाता है। जिसकी वजह से सिंधु के पार रहने वाले लोगों को अरब आदि देश के लोगों ने समूहवाचक संज्ञा में हिन्दु संबोधित करना शुरू कर दिया और आज हिन्दु ही यहां के बाशिंदों की पहचान बन गयी है। आरएसएस के लोग एक बात ठीक कहते हैं कि हिन्दुस्तान में रहने वाले सारे लोग हिन्दु हैं फिर भले ही उनका मजहब कुछ भी क्यों न हो लेकिन वे यह नहीं मानते कि अगर हिन्दुत्व की यह व्याख्या सही है तो इस देश में धर्म विशेष को राजकीय धर्म कैसे घोषित किया जा सकता है। मिलीजुली संस्कृति से ही हिन्दुत्व परिभाषित होता है। जिससे यह सिद्ध होता है कि इस देश से न तो धार्मिक बहुलता को समाप्त किया जा सकता है और न ही इस देश में धार्मिक आधार पर अपने ही लोगों के साथ भेदभाव संभव है लेकिन आरएसएस हिन्दुत्व के इस मर्म को समझने में चूक कर जाता है जो उसकी एक बहुत बड़ी कमजोरी है।
दिग्विजय सिंह ने अपने आपको सनातनी कहा है। वैदिक धर्म का यह नाम आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा दिया गया है। उन्होंने हिन्दुओं के सर्वोच्च धार्मिक स्थानों के रूप में चार धाम बनाये थे। स्पष्ट है कि इन धामों से ऊपर कोई धाम या मन्दिर बनाने की मंशा रखने वाले किसी और पंथ के अनुयायी तो हो सकते हैं लेकिन सनातन धर्म के नहीं। आरएसएस की तरफ से आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा सर्वोपरि धर्म स्थान के जो प्रतीक गढ़े गये थे। उनके समानान्तर बड़ी लाइन खींचकर जाने अनजाने में उनकी महिमा घटाने का काम किया जा रहा है। शायद उत्तर भारत में सर्वोच्च ब्राह्म्ïाण कहे जाने वाले बाजपेयी आसपद के अटल बिहारी बाजपेयी ने इसी कारण रायपुर में उनके समय होने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन के सन्दर्भ में विश्व हिन्दू परिषद के इस दबाव को नकार दिया था कि वे इस अधिवेशन में अयोध्या में राम मन्दिर बनाने का विधेयक संसद में पेश करने के अपने संकल्प करने की घोषणा करें। इस बात पर विश्व हिन्दू परिषद उनसे दो-दो हाथ करने पर उतर आयी थी लेकिन रायपुर अधिवेशन के बाद जिन राज्यों में चुनाव हुए उनमें अशोक सिंघल एंड कंपनी के भाजपा के विरुद्ध किये गये फतवे के बावजूद उसे भूतो न भविष्यतो समर्थन मिला। जो इस बात का प्रमाण रहा कि सनातनी जानते हैं कि उनके धर्म का सुप्रीम कोर्ट क्या है। सनातनियों के धर्म का सुप्रीम कोर्ट सिर्फ आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित मान्यतायें हैं जिनका अतिलंघन करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। चूंकि सनातन धर्म का हिन्दुत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये स्वाभाविक ही है कि हिन्दुत्ववादी आरएसएस के विचार सनातन धर्म से अलग हों। आरएसएस को वे प्रतीक सम्मोहित करते हैं जिनमें शम्बूक वध का संदेश बावस्ता हो।
शूद्र शिक्षा संपत्ति और सम्मान का अधिकारी नहीं हो सकता। आज के युग में इस विधि विधान को नये सिरे से स्थापित करने के लिये एक सशक्त अवलम्ब की जरूरत है। ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ये सब ताडऩा के अधिकारी इसका औचित्य सिद्ध करना भी उसका अभीष्ट होना स्वाभाविक है। भाजपा में इसी कारण अटल बिहारी बाजपेयी से लेकर मोदी तक द्वंद्वात्मकता की स्थिति देखी जा रही है। मोदी एक ओर सिफर से शिखर तक पहुंचने की अपनी कामयाबी का श्रेय हिन्दुत्व को देने की बजाय हिन्दु धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने वाले डा.अम्बेडकर को देते हैं और उनकी आरक्षण व्यवस्था को देते हैं। समाज की सुगठित पुर्नसंरचना न होने तक आरक्षण जारी रखने की वकालत करते हैं तो दूसरी ओर कभी वर्तमान संघ प्रमुख मोहन भागवत तो कभी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन दलितों और पिछड़ों के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था खत्म करने के बारे में जनमत की थाह को टटोलते रहते हैं।
इसी बीच रोहित बेमुला की आत्महत्या का मामला भीषण रूप से गरमाया हुआ है। राहुल गांधी भी उनकी आत्महत्या के विरोध में चल रहे अनशन में सांकेतिक शिरकत कर चुके हैं। इससे बीजेपी की नाक में और ज्यादा दम हो गया है। हालांकि राहुल गांधी की पार्टी भी कोई बहुत दूध की धुली नहीं है। वर्ण व्यवस्था का पोषण करने के लिये कांग्रेस कम कुख्यात नहीं रही। विदेशी पृष्ठभूमि की वजह से सोनिया गांधी ने इसमें तब्दीली लाने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें पार्टी पर हावी निहित स्वार्थों के आगे समर्पण करना पड़ा। कांग्रेस के दलित नेता हाथी के दांत की तरह केवल शोपीस हैं। कांग्रेस में दलित कोटे से उन्हीं को पद दिये जाते हैं जिनमें सामाजिक अन्याय के असल सवालों पर जूझने की क्षमता न हो। इसी कारण मौजूदा दौर में जबकि भाजपा वर्ण व्यवस्था वादियों की नंबर एक की पार्टी बन चुकी है। कांग्रेस की दुकानदारी जम नहीं पा रही।
पर रोहित बेमुला के मामले में इससे भी ज्यादा बड़े सवाल हैं। आरक्षण के मामले में झलकने वाला दुराग्रह हांडी में पक रहे चावलों की स्थिति का एक नमूना भर है। सही बात यह है कि दलितों को समान दर्जा देने के विषय में अभी भी लोगों में बड़ी हिचकिचाहट है। इसी कारण गांवों में दलित की बारात में घोड़े पर बैठे दूल्हे को देखकर दबंग वर्ण व्यवस्थावादियों की भुजायें फडफ़ड़ाने लगती हैं। अगर किसी सवर्ण के विवाह समारोह में कोई अपने दलित मित्र को लेकर पहुंच जाये और वहां उसकी जाति खुल जाये तो उसके साथ कितना अपमानजनक व्यवहार होता है। यह किसी से छुपा नहीं है। इसकी वजह यह है कि बड़े नेता भी जो समाज की सोच बदल सकते हैं केवल पाखण्ड कर रहे हैं। जिसकी वजह से आम लोगों की जहनियत नहीं बदल पा रही। दूसरी ओर दलितों में स्वाभिमान का स्तर बढ़ रहा है और तिरस्कार के रवैये से आहत होकर वे अलगाव के रास्ते की ओर मुखातिब हो रहे हैं। दलित चाहते हैं कि आप भी उनका मजबूत अस्तित्व स्वीकार करें। जैसे किसी मजबूत आदमी को अपमानित करने के पहले दूसरे को सौ बार सोचना पड़ता है वैसे ही आपको हमारे बारे में भी गलत व्यवहार के बारे में सोचना पड़े।
भाजपा के नेता कैलाश विजयवर्गीय ने रोहित बेमुला के बारे में आरोप के अंदाज में जो बातें कहीं वे सही भी हो सकती हैं लेकिन उनका उक्त परिप्रेक्ष्य समझने की जरूरत है। वरना रोहित बेमुला और सारे दलितों को मजबूत पहचान बनाने के लिये बनाये जा रहे असुविधाजनक समीकरणों का बहाना लेकर आप उन्हें कटघरे में खड़ा करके उनका कुछ बिगाड़ नहीं पायेंगे लेकिन इस देश का बहुत कुछ बिगाड़ देंगे। बाबा साहब अम्बेडकर ने राष्ट्रीय एकता के मामले में इस देश की बहुत बड़ी सेवा की। उन्होंने अन्य दलित विचारकों की इस स्थापना का बहुत मजबूती से खण्डन किया कि दलित और अन्य शूद्र यहां के मूल निवासी हैं जबकि सवर्ण बाहर से आये आर्य आक्रान्ता हैं। डा.अम्बेडकर ने कहा कि जातियां तब बनीं जब द्रविणों, आर्यों, सीथियन्स आदि में रोटी, बेटी के सम्बन्ध बन चुके थे। इसलिये यह पहचानना संभव ही नहीं रह गया था कि कौन बाहरी है और कौन मूल है लेकिन अगर दलितों को स्वाभिमान से जीने का अवसर नहीं दिया जायेगा तो बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा की गयी मेहनत पर पानी फिर जायेगा और उनमें पहले के साम्राज्यशाही द्वारा प्रायोजित अलगाववादी विचारों की जकड़ फिर मजबूत हो जायेगी।
हो सकता है कि वर्ण व्यवस्था किसी समय में एक प्रगतिशील कदम रहा हो लेकिन आज तो यह इस देश के लिये अभिशाप बन गयी है। प्रधानमंत्री मोदी ने कौशल विकास कार्यक्रम का श्रीगणेश किया है ताकि यहां भी जापान और चीन की तर्ज पर ऐसे घरेलू काम पनपें जिनमें लोगों को खूब पैसा मिले। विडम्बना यह है कि वर्ण व्यवस्था का कौशल से जन्मजात का बैर है। हमारे यहां शिल्पी क्या थे – हुनरमंद लोग जिनमें अभिनवीकरण की भी सम्मोहित करने वाली प्रतिभा थी लेकिन सामाजिक दर्जे में शिल्पी होने की वजह से वे नीचे डाल दिये गये और बुद्धि विलास को महिमामंडित किया गया। बीएसपी का आन्दोलन जब शुरू हुआ तो उसने हिन्दू समाज की इसी कमजोर नस पर प्रहार करके शूद्रों को अपने पैतृक कार्यों से विरत कर दिया। उनके कार्यों पर दूसरे धर्म के लोगों ने कब्जा जमा लिया और आज वे लोग बेहद मुनाफे में हैं जबकि हिन्दू नाई, कुम्हार, लुहार बुरी हालत में पहुंच गये हैं। दूसरी ओर जो लोग वर्ण व्यवस्था में शीर्ष पर हैं उन लोगों ने खुद ही अपने लिये जेल बना ली है जिसके अन्दर वे कैद हो गये हैं। वैदिक काल के समय से देखें तो दर्शन के क्षेत्र में भारतीयों का नवोन्मेष में कोई मुकाबला नहीं था। उन्होंने उस समय कालजयी दार्शनिक सूत्र दिये। अमर साहित्यिक रचनायें लिखीं। भारतीयों की भौतिक आविष्कारों में कभी रुचि नहीं रही लेकिन दार्शनिक आविष्कारों में दुनिया में उनका कोई मुकाबला नहीं रहा लेकिन वर्ण व्यवस्था के कारण वे इस शक्ति को भी खो बैठे। आज अगर कोई वर्ण व्यवस्था से छिटका भारतीय अपनी मेधा का कमाल दिखाता है तो सारी दुनिया उसके सामने नतमस्तक हो जाती है। जिसका उदाहरण आचार्य रजनीश हैं लेकिन ïïवर्ण व्यवस्था के रहते जब भी लीक से हटकर कोई चिन्तन श्रंखला शीर्ष ïवर्ण के विद्वान में उभरती और पनपती है तो वह उसे परिणति पर लेने की बजाय इस भय से वहीं ठिठक जाता है कि कहीं नये चिन्तन की वजह से उस वर्ण व्यवस्था को कोई क्षति न हो जाये जो उसके पूर्वजों को बिना कुछ किये प्रभुता देने का स्रोत रही है। इसीलिये लीक से हटकर किसी भी विचार को सिरे से खारिज कर देना हमारे स्वभाव में है फिर भले ही वह बात दिग्विजय सिंह द्वारा कही गयी हो या और किसी द्वारा। नये विचारों के लिये हमारे समाज की खिड़कियां बन्द रहती हैं जो कि हमारे समाज का बहुत बड़ा अभिशाप है।
वैसे तो इन पंक्तियों का लेखक दिग्विजय सिंह से भी सहमत नहीं है। उन्होंने अपने धर्म का नाम सनातन बताया लेकिन यह नामकरण प्रतिक्रिया और दुराग्रह की उत्पत्ति है। इसके पहले बुद्ध ने कहा था कि दुनिया में कोई भी चीज नित्य नहीं है। उन्होंने क्षणिकवाद प्रस्तुत किया था। जिसका अर्थ था कि दुनिया में हर चीज हर क्षण बदलती रहती है। बुद्ध के दर्शन के तेज को जब बौद्धिक आधार पर मद्धिम किया जाना संभव नहीं हुआ तो उसकी महिमा कम करने के लिये वैदिक धर्म का नाम सनातन धर्म कर दिया गया। जिसके पीछे भाव है कि बुद्ध गलत थे यह संसार अनित्य नहीं नित्य है, शाश्वत है, सनातन है।
बहरहाल यह सारे विषय व्यापक मंथन की मांग करते हैं लेकिन सर्वोपरि लक्ष्य यह है कि वह कौन सा तरीका है जब अलग-अलग धर्म और समुदायों के रहते हुए भी हम ऐसा समंजन विकसित कर सकेें जिसमें देश की मजबूती के लिये सभी के बीच निद्र्वन्द्व एकता हो।

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