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पिता की फटकार बनी बेटे की हार

मुक्त विचार
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उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के खिलाफ उपचुनाव के परिणामों ने तात्कालिक तौर पर खतरे की घंटी बजा दी है। समाजवादी पार्टी को साम दाम दण्ड भेद हर तरीके का इस्तेमाल करने के बावजूद अपने कब्जे की तीन सीटों में से दो सीटें खोनी पड़ गयी हैं। समाजवादी पार्टी के लिये यह एक बहुत बड़ा झटका है। इसी के साथ पार्टी गाजियाबाद में मेयर का उपचुनाव भी बीजेपी के मुकाबले हार गयी है जबकि यहां पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव प्रो.रामगोपाल यादव ने स्थानीय टीम को सफल न होने पर कड़ी कार्रवाई करने का अल्टीमेटम भी दिया था। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में मिली चक्रवर्ती सफलता से इतरा रही पार्टी इसके जश्न के खुमार के हल्के होने के पहले ही उक्त सदमे से दो चार हो गयी है। जिससे पंचायत चुनावों में कामयाबी को आधार बनाकर उसने चुनावी वर्ष में सर्वत्र अपना जो टेम्पो हाई करने की कोशिश की थी उस पर से पानी फिर गया है।
समाजवादी पार्टी पश्चिम के मुस्लिम बाहुल्य इलाकों की दोनों विधानसभा सीटें गंवा बैठी। इनमें देवबंद की सीट पर हुई उसकी हार सबसे ज्यादा मार्केबल है। इस सीट पर समाजवादी पार्टी दूसरे नम्बर पर भी नहीं रह सकी। यह सीट इलाके में पार्टी के कद्दावर नेता और मंत्री रहे राजेन्द्र सिंह राणा के निधन से खाली हुई थी। इस सीट पर कांग्रेस की मोबिया अली को जीत मिली है। भाजपा के रामलाल पुंडीर से उनका बड़े कांटे का मुकाबला हुआ जिसमें वे 1700 वोटों से विजयी हुईं। जहां भाजपा के पक्ष में इस सीट पर हिन्दुओं का जबर्दस्त ध्रुवीकरण हुआ। वहीं मुस्लिम वोट पूरी तरह कांग्रेस उम्मीदवार बटोर ले गये। 27 सालों बाद कांग्रेस को इस सीट पर मिली सफलता अप्रत्याशित है। जाहिर है कि भाजपा के प्रति सपा के शीर्ष नेताओं के संदिग्ध रवैये ने मुसलमानों में उसकी विश्वसनीयता का जो क्षरण किया है उसकी झलक इस सीट के परिणाम के रूप में सामने आयी है। दूसरी ओर चितरंजन स्वरूप के निधन से रिक्त मुजफ्फरनगर सीट पर भी सपा अपने उम्मीदवार गौरव स्वरूप के लिये सहानुभूति की फसल नहीं काट पायी। भाजपा के कपिल देव अग्रवाल ने सीट अपने खाते में दर्ज करके सपा की बैण्ड बजा दी। अलबत्ता फैजाबाद जिले की बीकापुर सीट ने सपा की लाज कुछ बचाने का काम किया है। मित्रसेन यादव के निधन से रिक्त इस सीट को उनके पुत्र आनंदसेन यादव सपा उम्मीदवार के रूप में बरकरार रखने में सफल रहे। हालांकि इस सीट को बचाये रखने में सफलता को लेकर भी सपा की धाक में बहुत इजाफा नहीं माना जा सकता क्योंकि मित्रसेन यादव अपने आप में यहां इतने बड़े नेता थे कि उन्होंने मुलायम सिंह से विद्रोह किया तो उनको भी अपने सामने नहीं टिकने दिया था। पहले वे जब सीट पर जीतते थे तब वे कम्युनिस्ट पार्टी में थे जिसमें मुलायम सिंह का कोई श्रेय नहीं था। इसलिये आनंदसेन यादव की जीत उनके बीकापुर में पुश्तैनी प्रभाव की जीत है सपा की कम।
खास बात यह है कि इन उपचुनावों में भी बसपा नदारद रही। लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद हुए एक दर्जन से ज्यादा विधानसभा चुनावों में सपा ने अपनी जीत का जो परचम लहराया था उसके पीछे बसपा का चुनाव न लडऩा भी एक बड़ी वजह थी। आम चर्चा है कि अपनी पार्टी का उम्मीदवार मैदान में न होने से बसपा के वोट बैंक ने कीमत लेकर सपा को एकमुश्त समर्थन दे दिया था। ऐसा नहीं हो सकता कि इस बार भी सपा ने यह हथकंडा न आजमाया हो लेकिन हैदराबाद में दलित छात्र नेता रोहित बेमुला की मौत से उठे बवंडर के बावजूद इस समुदाय ने उत्तरप्रदेश में भाजपा को हराने के लिये तश्तरी में प्रलोभनों के पकवान सामने आने के बावजूद कटिबद्धता नहीं दिखाई। क्या मन्दिर मुद्दे को फिर हवा देना, मुसलमानों के प्रति सोशल साइट्स के माध्यम से पराकाष्ठा की हद तक नफरत फैलाया जाना और जेएनयू प्रकरण दलितों में भी हिन्दुत्व के राग की पसंदगी का कारण बन गया है। इस बारे में तीनों विधानसभा क्षेत्रों की जमीनी स्थिति के पूरे विवरण सामने आने के बाद ही सटीक विश्लेषण होना संभव हो पायेगा।
गौरतलब यह भी है कि कुछ ही दिन पहले नवनिर्वाचित ब्लाक प्रमुखों के बीच लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में बोलते हुए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को आगाह करने के लिये सारे लिहाज एक तरफ रख दिये थे। उन्होंने कहा था कि अखिलेश जिस तरह से काम कर रहे हैं पार्टी वैसे मजबूत होने वाली नहीं है। वे बड़ी सभाओं में लोगों को सम्बोधित करने के लिये जाते हैं। इसमें कार्यकर्ताओं से संवाद नहीं हो पाता जबकि होना यह चाहिये कि वे कार्यकर्ताओं से नजदीकी से संवाद की रणनीति अपनायें। पहले कार्यकर्ता उनके सामने अपने गिले शिकवे निकालेंगे जिससे उनकी भड़ास खत्म हो जायेगी। इसके बाद वे पार्टी के लिये आत्मीयता से काम करने की मानसिकता बनाकर जायेंगे। उन्होंने कहा कि अखिलेश यह नहीं कर रहे। जब पता करो मालूम होता है कि मुख्यमंत्री कार्यक्रम में गये हैं। तो क्या मुलायम सिंह को यह अहसास था कि उपचुनावों में पार्टी की नाक कटने वाली है। हालांकि मुलायम सिहं ने इसके पहले भी पार्टी के लोगों के बीच मुख्यमंत्री को इस बात के लिये आड़े हाथो लिया था कि वे लोगों से मिलने मिलाने में ही पूरा वक्त खर्च कर देते हैं जिससे सरकारी काम नहीं हो पा रहे लेकिन इसके बाद उन्होंने कई मंचों पर अखिलेश सरकार को देश में सबसे ज्यादा काम करने वाली और विकास करने वाली सरकार करार देकर उनकी जबर्दस्त वाहवाही की। मुलायम सिंह का यह उतार चढाव अनोखा है। क्या इसके पीछे उनके घर और परिवार के अन्दर जो उठापटक मची है। उसका प्रतिबिम्ब है। क्या जब परिवार के समीकरण उनके मुताबिक हो जाते हैं तो वे गद-गद होकर अपने बेटे की तारीफ में शब्दों का खजाना लुटा देते हैं और जब उन्हें लगता है कि परिवार के समीकरण में उनकी नहीं मानी जा रही तो अखिलेश को लेकर उनका सुर तल्ख हो जाता है।
जहां तक अखिलेश की कुछ सप्ताह से गतिविधियों का प्रश्न है। पंचायत चुनावों से फारिग होते ही उन्होंने एक साल बाद होने वाले चुनाव की तैयारियों के लिये बहुत अच्छी शुरूआत की है। हर जगह वे लोक लुभावन और लोगों की जरूरतों से सीधे जुड़े मामलों में घोषणायें कर रहे हैं। आधारभूत ढांचा मजबूत करने के लिये उन्होंने पर्याप्त बजट जारी कर विकास की दिशा में आगे बढऩे का सार्थक प्रयास किया है। सूखे के समय प्रभावित जिलों को राहत देने में भी उन्होंने तत्परता दिखाई है। काम के इस प्रदर्शन के बावजूद बयार उल्टी बहने लगी है। तो इसके पीछे है खराब प्रशासन और समाजवादी पार्टी के हद दर्जे की अवसरवादिता। परिवारवाद के मामले में भी पानी शायद सिर के इतने ऊपर चला गया है कि लोग अब पचा नहीं पा रहे हैं। रामगोपाल यादव मोदी सरकार के लिये हर असुविधाजनक मुद्दे पर जो बयान देते हैं वह मुसलमानों की नाखुशी को बढ़ाने वाला होता है। यह बयान सपा की अभी तक की पहचान से अलग होते हैं। हाल में उन्होंने रोहित बेमुला के मामले में कहा कि इस मुद्दे को बहुत ज्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिये। हो सकता है कि उनकी बात कुछ हद तक ठीक हो लेकिन मुस्लिम मतदाता इसे सिद्धांतप्रियता से न जोड़कर समाजवादी पार्टी द्वारा गुपचुप तरीके से मोदी सरकार की पालकी ढोने की हरकत का एक और सबूत मानकर देख रहे हैं। जेएनयू प्रकरण में पार्टी की खामोशी ने भी मुसलमानों की इस धारणा को बल प्रदान किया है जो पार्टी साम्प्रदायिक नजाकतों के मामलों में एकतरफा रुख के लिये बदनाम रही हो वह पार्टी अचानक संयमित और संतुलित छवि बनाने की परवाह करने लगे तो कोई नहीं कहेगा कि सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली। समाजवादी पार्टी की छवि इससे केवल बगुला भगत की बन रही है एक परिपक्व पार्टी की नहीं।
उत्तरप्रदेश के साथ-साथ कई अन्य राज्यों में मिलाकर 12 विधानसभा उपचुनाव हुए जिनमें से सात सीटें एनडीए के खाते में गयी हैं। मध्यप्रदेश में जहां कुछ महीनों से भाजपा का कांग्रेस के हाथों सीटें छिनवाने का ट्रेंड चल रहा था। पासा अचानक पलट गया है और कांग्रेस भाजपा के हाथों अपनी सीटें छिनवा बैठी है। कर्नाटक में भी कांग्रेस ने अपनी एक सीट छिनवा दी। हालांकि उसे संतोष इस बात पर हो सकता है कि बदले में उसने भाजपा से एक सीट छीन ली। तेलंगाना मे टीआरएस ने कांग्रेस की एक सीट पर कब्जा कर लिया। कांग्रेस का ग्राफ दोबारा चढऩे लगा था। फिर नीचे क्यों आ गया। यह भी विश्लेषण का विषय है। जेएनयू का मुद्दा सारे शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण की मुहिम से जुड़ा हो सकता है लेकिन ऐसे मुद्दों से संघ अपने एजेण्डे को मजबूती देने में कामयाब हो रहा है। उसने ऐसा जज्बाती माहौल पैदा कर दिया है जिसमें लोग दलीलें सुनने को तैयार नहीं हैं। इसीलिये कांग्रेस का रुख उस पर भारी साबित होने लगा है। उपचुनावों के परिणाम कांग्रेस नेतृत्व को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर सकते हैं।

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