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महिलाओं की अदालत में मीडिया हाजिर हो

मुक्त विचार
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पिछले दिनों महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों पर मीडिया के रवैये को लेकर लखनऊ में आक्सफेम द्वारा आयोजित कार्यशाला में अध्यक्षता करने का मौका मुझे मिला। हाल के कुछ वर्षों से बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट की बात हो या यूनिवर्सिटी परीक्षा के रिजल्ट की। इसके कवरेज में हर साल लड़कियों ने लड़कों को पछाड़ा की सुर्खी कामन रहती है। शनि शिंगणापुर मन्दिर में प्रवेश का अधिकार मांगने को लेकर महिला संगठनों द्वारा किये गये आन्दोलन को मीडिया ने भरपूर समर्थन दिया। इस बहाने केरल के सबरीमाला मन्दिर व मुंबई की हजरत अली दरगाह में महिलाओं के निषेध के खिलाफ बहसों की धार मीडिया में नये सिरे से तेज की गयी। पुत्री द्वारा दिवंगत पिता के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देने का मामला हो या संतान के रूप में एकमात्र पुत्री के बावजूद कुछ अभिभावकों को लोगों की श्रद्धा से नवाजने और दहेज लालची दूल्हे को विवाह मंडप से बारात समेत बैरंग लौटाने वाली लड़की की बहादुरी का किस्सा जैसी खबरों को प्रमुखता देने का जो ट्रेंड मीडिया में चल रहा है वह कब सुखद आश्चर्य में भर देता है। जब हिन्दी पत्रकारिता में पितामह जैसा आदरणीय स्थान रखने वाले प्रभाष जोशी के रूप में ध्यान आता है कि कितने तार्किक और निष्पक्ष व गुरु गम्भीर पत्रकार होते हुए भी कैसे सती प्रथा के मुद्दे पर उन पर संस्कार हावी हो गये थे।
आक्सफेम की कार्यशाला जिसमें मास कम्युनिकेशन का कोर्स कर रही और पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहीं युवतियां भी बड़ी संख्या में शामिल थीं जनता की अदालत में मीडिया हाजिर हो जैसे माहौल के बीच महिलाओं की ओर से मीडिया के रवैये को लेकर जमकर असंतोष के सुर फूटे। आक्सफेम की कविता भटनागर ने कहा कि एक महिला के सार्वजनिक स्थान पर हुड़दंग करने की लखनऊ में हुई घटना को टीवी चैनलों पर बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया ताकि महिलायें अपमानित हों जबकि पुरुष तो शराब पीकर हमेशा ही उपद्रव मचाते रहते हैं। एक युवा पत्रकार ने प्रतिवाद किया जिसका लब्बो लुआब यह था कि मैडम आप तो स्त्रीवादी चश्मे से मीडिया के हर मानक को देखने की कोशिश कर रहे हैं जबकि इसके पीछे स्त्री विरोधी बदनीयती न होकर नयापन ही खबर है की धारणा का असर था। चूंकि पुरुष को तो हंगामा करते सब देखते हैं। इसलिये उसमें क्या खबर हो सकती है। किसी महिला ने स्त्री के विंब से अलग हटकर हरकत की तो नयापन होने से उसे खबर बनना ही था। इसी तरह के प्रतिवाद शीना वोरा हत्याकांड की आरोपी इन्द्राणी मुखर्जी की शराब सिगरेट पीते फाइल फोटो छापे जाने पर कविता भटनागर के ऐतराज को लेकर किये गये।
कविता भटनागर ने जो उदाहरण चुने वे आम महिला के नहीं थे जो दूरदराज के कस्बों और गांवों में रहती हैं। उनमें तर्क वितर्क की गुंजाइश हो सकती है लेकिन महिलाओं की समाज में दोयम स्थिति के सच की जमीन तोडऩा अभी भी संभव नहीं हो पाया है। इसमें कोई दोराय नहीं है। बुंदेलखंड के हालातों का स्मरण मुझे कार्यशाला में हो आया जहां घनघोर सूखे की वजह से पूरा बाजार मंदा पड़ा है लेकिन फिर भी दहेज के बाजार की गर्मी में कोई फर्क नहीं आया। पुलिस के सिपाही तक का दहेज रेट जिसके लिये प्राय: छोटे किसान अपनी लड़कियों का प्रस्ताव लेकर पहुंचते हैं 30 लाख रुपये है। लड़की नौकरी कर रही हो तो भी उसके अभिभावकों को मुंहमांगा दहेज तो देना ही पड़ेगा। यह लाचारी उस समय है जब बुन्देलखण्ड प्रदेश के उन इलाकों में शुमार है जहां लिंगानुपात का अंतर सबसे ज्यादा है। कार्यशाला के दौरान मेरा ध्यान हाल में संपन्न हुए पंचायत चुनावों पर चला गया। इस बार संख्या कम हुई है लेकिन पिछली प्रधानों में तो बड़ी तादाद ऐसी महिला मुखियाओं की थी जिनका अपना कोई नाम नहीं था। आरक्षण की वजह से परिवार की महिला सदस्य को उम्मीदवार बनाना उनके मर्दों की मजबूरी रही लेकिन नाम न होने से उसके मायके या ससुराल के गांव से फलां वाली नाम से उसका पर्चा भरवाया गया। महिलाओं की स्थिति पर आयोजित होने वाली गोष्ठी में परंपरावादी महानुभाव धार्मिक कथाओं में से दर्जनों दृष्टांत निकालकर बताने लगते हैं कि भारतीय समाज को किस तरह बदनाम किया जा रहा है वरना यहां तो युगल के रूप में उनका नाम लिये जाने और उसमें भी स्त्री का नाम पहले रखे जाने की प्रथा रही है। यथा सीताराम, राधाकृष्ण और यह भी कि संतान को उसके मां के नाम से पुकारे जाने का रिवाज हमारी संस्कृति में रहा है जैसे अर्जुन के लिये कौन्तेय सम्बोधन की पहचान लेकिन दृष्टांतों के इन अंबारों से यह हकीकत नहीं छुप सकती कि भारतीय समाज में महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व को मिटाने के लिये उसे अपना स्वतंत्र नाम रखने के अधिकार तक से वंचित किया गया।
हालांकि जनसत्ता में यह खबर कुछ दिनों पहले बहुत बड़ा स्पेस देकर छापी जा चुकी थी कि विभिन्न बलों में काम करने वाली महिलाओं की समस्याओं में सार्वजनिक स्थान पर ड्यूटी के समय नजदीक में निवृत्त होने की व्यवस्था का ध्यान न रखा जाना है लेकिन कार्यशाला में ट्रेनी पत्रकार युवतियों ने बेबाकी के साथ इस मुद्दे को उठाया और जिस पर लम्बी चर्चा हुई। महिलाओं के कल्याण की योजनाओं की पड़ताल पर ज्यादा स्टोरी करने के सुझाव का फलितार्थ इसके जरिये सामने आया। कस्तूरबा बालिका आवासीय विद्यालय योजना के बावजूद प्राथमिक स्तर पर ही स्कूलों से ड्राप आउट करने वाली लड़कियों की संख्या में खास गिरावट न आना, महिला उद्यमियों के लिये आकर्षक अनुदान पर आधारित योजनाओं का दुरुपयोग, महिलाओं के लिये विशेष रूप से चलायी जाने वाली योजनाओं के बावजूद कुपोषण के कारण होने वाली महिलाओं की मृत्यु दर न घटना आदि पर स्टोरी आइडिया देने का काम इस कार्यशाला में हुआ। हिन्दुस्तान टाइम्स के गौरव सहगल ने वृन्दावन की विधवायें अपने जीवन में भरेंगी होली के रंग शीर्षक से छपी अपनी यादगार स्टोरी का जिक्र जब महिलाओं की स्थिति बदलने में खबरों की ताकत के बतौर किया तो कार्यशाला का माहौल भावुक हो गया। न्यूज नेशन के अनुभव शुक्ला ने निठारी कांड को सबसे पहले ब्रेक देने का अवसर मिलने का अपना संस्मरण सुनाते हुए मार्के की कई बातें कहीं। जाने माने पत्रकार उत्कर्ष सिन्हा के प्रभावी संयोजन और संचालन की वजह से अन्त तक गोष्ठी का माहौल जीवन्त रहा लेकिन फिर भी कुछ गम्भीर सवाल अबूझे छूट गये। धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के लिये वर्जना के विरुद्ध हालिया सशक्त हस्तक्षेप के दौरान तमाम थिंक टैंक समान रूप से एक निष्कर्ष पर पहुंचे कि धर्म कोई भी हो उसका इस्तेमाल स्त्री विरोधी धाराओं, प्रथाओ और उसे दोयम, आश्रित दर्जा देने वाला मूल्यों को गढऩे के लिये किया गया है। तमाम कठोर कानून बन जाने के बावजूद दहेज की कुरीति समाप्त न हो पाने के पीछे भी तो कहीं न कहीं धार्मिक मान्यतायें ही हैं। क्या धर्मभीरुता के इस परिवेश से पत्रकार अछूते रह पा रहे हैं, क्या पत्रकारिता की तकनीक उन्हें डी-क्लास होकर पेशेवर निरपेक्ष दृष्टि का विकास उनमें करने में सक्षम है। यह सवाल इसलिये जरूरी हैं कि जिस तरह से प्रशासनिक सेवाओं की प्रतियोगी परीक्षाओं सहित सभी क्षेत्रों में सफल होने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ी है और उससे महिलाओं में महत्वाकांक्षाओं का विस्तार हो रहा है। उसका नतीजा है कि महिलाओं के बीच से नया पाठक और दर्शक वर्ग उभरकर आ रहा है। जिसको अपनी ओर खींचने के लिये मीडिया के बाजार में होड़ मचना लाजिमी है। महिलाओं के गौरव को दुलराने वाली खबरों को प्रमुखता देना इस नाते मीडिया की मजबूरी है लेकिन पत्रकारों में अन्दरूनी रूपान्तरण जब तक नहीं होगा तब तक उसकी तमाम पाजीटिव खबरें पितृ सत्तात्मक व्यवस्था बचाने के सेफ्टी वाल्व तक का ही काम कर पायेंगी। गुणात्मक और क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिये पत्रकारों को पेशेवर से प्रतिबद्धता तक के ऊंचे पायदान चढऩे की मशक्कत करनी पड़ेगी।

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