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उत्तरप्रदेश में समाजवाद का राजसी चेहरा

मुक्त विचार
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समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के निजी कार्यक्रम सुर्खियों में छाये हुए हैं। बात चाहे शाही अंदाज में मनाये जाने वाले उनके जन्मदिन की हो, सारे जग से न्यारे उनके गांव के विलासोत्सव की हो या उनके परिवार के सदस्यों के शादी समारोह की। उन्होंने इन कार्यक्रमों में तड़क भड़क दिखाने में ब्रूनेई जैसे देशों के सुल्तानों को भी पीछे छोड़कर रख दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि जिस मीडिया के पुरखे लोकतंत्र में सादगी और संयम की लीक से दूर चले जाने वाले जन नेताओं की खबर लेकर रख देने के लिये जाने जाते हों आज उसी के आधुनिक वंशज अपने दर्शकों और पाठकों को ऐसे कार्यक्रमों के रंगारंग स्पेशल कवरेज के जरिये कृतार्थ कर रहे हैं। यह लोकतंत्र और स्वतंत्र मीडिया के कौन से मानक हैं। इसे इनके कर्ता धर्ता ही जानते होंगे।
ग्वालियर का सिंधिया साम्राज्य देश के दूसरे या तीसरे नम्बर का सबसे बड़ा साम्राज्य था। मैसूर के राजा को प्रीवीपर्स के तौर पर भारत सरकार 1971 के पहले तक 25 लाख रुपये सालाना देती थी जबकि सिंधिया को 10 लाख रुपये सालाना मिलते थे। इसके बावजूद माधव राव सिंधिया की बेटी के कश्मीर के पूर्व महाराज कर्ण सिंह के बेटे के साथ हुए विवाह में सीमित बारातियों को एक-एक मारुति कार उपहार के रूप में देना मीडिया ने इतना बड़ा मुद्दा बना दिया कि एक बारगी तो माधवराव सिंधिया का मंत्री पद छिनने के आसार बन गये थे। सिंधिया को कितनी परेशानी झेलनी पड़ी जो लोग उस दौर में होश संभाल चुके थे उन सभी को यह अच्छी तरह याद होगा। लोकतंत्र में नेता मर्यादाओं से बंधा होता है। फिर भले ही उसकी पृष्ठभूमि राजसी भी क्यों न हो लेकिन मर्यादा जिसमें सादगी प्रमुखता के तौर पर समाहित है की लक्ष्मण रेखा के दायरे में रहने की बंदिश उसके लिये भी है। पर लोकतंत्र का यह चरित्र कब से उसके कोड आफ कन्डक्ट का एक भूला बिसरा पन्ना बनकर रह गया है।
नेताजी यानी परम आदरणीय मुलायम सिंह को डा.राममनोहर लोहिया का शिष्य कहलाने में बहुत गर्व का अनुभव होता है और होना भी चाहिये। डा.लोहिया के लिये भी सार्वजनिक जीवन की कितनी भी बड़ी हस्ती को सादगी की मर्यादा से परे होना गवारा नहीं था। उन्होंने संसद में प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू का सूट पेरिस में धुलने के लिये जाने को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया था कि नेहरू को जवाब देना मुश्किल हो गया था। कांग्रेस का मुकाबला करने के लिये समाजवादियों ने रहन सहन के तरीके को सबसे सशक्त हथियार के रूप में अपने आन्दोलन के दिनों में इस्तेमाल किया था। समाजवादियों का कितना भी बड़ा नेता इसी के तहत सरकारी गेस्ट हाउस में न रुककर पार्टी के कार्यकर्ता के घर में रुकने की परंपरा बनाये हुए था। शुरू में मुलायम सिंह भी इस लीक पर खूब चले। हालांकि ये तब की बात है जब उनकी अपनी बहुत मजबूत स्वतंत्र पहचान सार्वजनिक जीवन में नहीं बन पायी थी पर सत्ता में आने के बाद तो अपने गांव तक में राजधानी से ज्यादा आलीशान वातानुकूलित सरकारी गेस्ट हाउस बनवाने के लिये वे चर्चा में रहे। समाजवाद के किसी दौर में समाजवाद की परिभाषा के साथ ऐसा खिलवाड़ नहीं हुआ होगा।
मुलायम सिंह के राजनैतिक कद को विराट बनाने में उनके द्वारा स्वयं को मुल्ला मुलायम सिंह के नाम से संबोधित किये जाने की दुहाई का बड़ा योगदान रहा है। हालांकि पहली बार पूर्ण बहुमत से पार्टी की सरकार बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से धीरे-धीरे अपने व्यक्तित्व से मुस्लिम परस्ती की केेंचुल उतारी। उसके मद्देनजर उन्हें मुल्ला मुलायम सिंह के दौर की याद दिलाना गंभीर तकलीफ देने के बराबर है। जेएनयू प्रकरण हो या दूसरे असुविधाजनक प्रकरण उनके संयम और परिपक्व रुख के कायल मोहन भागवत से लेकर नरेन्द्र मोदी तक आजकल खूब हैं जबकि उनके पूर्ववर्ती उन्हें रामभक्तों का हत्यारा कहकर नफरत का इजहार करने की सारी सीमायें पार कर देते थे। बहरहाल राजनीतिक परिस्थितियों के हिसाब से बहुत से लोगों के सोच और आचार बदलते रहते हैं। मुलायम सिंह तो ऐसी गतिशीलता के सबसे ज्यादा धनी हैं। इसलिये उन्हें प्रणाम! लेकिन यहां इसकी चर्चा का मकसद सिर्फ मुलायम सिंह को इतना याद दिलाना है कि इस्लाम ने सार्वजनिक कार्यों में सादगी पर बहुत जोर दिया है। इस्लाम शादियों में हर तरह की तड़क भड़क को हराम करार देता है। ताकि किसी गरीब के मन में किसी अमीर की शादी का तामझाम देखकर यह आह न निकल जाये कि काश उसके पास दौलत होती तो वह भी अपने बेटे बेटियों की शादी इतनी आलीशान तरीके से कर पाता। मुलायम सिंह पर लगता है कि मुसलमानों को बहुत मानने के बावजूद इस्लाम की इस शिक्षा का कोई असर नहीं हुआ।
बहरहाल शिवपाल सिंह के बेटे की हाल में हुई शादी के चर्चे आजकल प्रदेश में नहीं देश में छाये हुए हैं लेकिन क्या इसे किसी भी तरीके से संगत माना जा सकता है। लोकतंत्र में भी सत्ता में बैठे लोग अपनी ब्रांडिंग सामंती दौर के राजा महाराजाओं की तरह करें तो इसे क्या कहा जायेगा। नेता ऐसा करके आम लोगों को कौन सी प्रेरणा देना चाहते हैं। अजीब बात यह है कि पूंजीवादी देशों में नेताओं में सादगी के मूल्यों का अनुशीलन करने की चाह बढ़ रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में इसी कारण हिलेरी क्लिंटन के सामने बर्नी सेंडर्स एक बड़ी चुनौती बनकर उभरकर आये हैं। ब्रिटेन में इस बार प्रतिपक्ष के नेता पद पर ऐसा व्यक्ति पहुंचा जिसने जीवन में कभी शराब नहीं पी और जो बहुधा साइकिल पर चलने से भी नहीं हिचकता। भारत तो आध्यात्मिक मूल्यों का धनी है। इसलिये उसे तो अपने नेताओं से यह अपेक्षा और ज्यादा करनी चाहिये। जमीन से उठकर आये नेताओं को एक ही पीढ़ी में सैकड़ों वर्षों में बने साम्राज्य के कर्णधारों से आगे निकल जाने की पड़ी हो तो साफ है कि सार्वजनिक संसाधन जनता के अभाव दूर करने की बजाय उनके वैभव और ऐश्वर्य की पूर्ति में ही खप जायेंगे। फिर भी कोई इसे मुद्दा नहीं बना रहा क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। उत्तरप्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार केवल इस मामले में समाजवादी है कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से मोहभंग के बाद के दौर में भी वह इस अवधारणा पर आगे बढ़कर अपने राजनैतिक धरातल को मजबूत करने में लगी है। वह हर जरूरतमंद को खैरात देने के लिये सरकारी खजाने का मुंह खोलने में संकोच नहीं दिखा रही लेकिन उसकी नीतियां ऐसी नहीं हैं जो आर्थिक विषमता की बढ़ती खाई को पाट सकेें। जाहिर है कि एक ओर जीवन स्तर में जमीन आसमान का अन्तर और दूसरी ओर गरीबों को पेंशन अनुदान की व्यवस्था यह एक फरेब है। इस तरह का कल्याण सेफ्टी बाल्व का काम करने के लिये होता है। जिसका मकसद सत्ता के भ्रष्टाचार से लोगों का ध्यान डायवर्ट करना और भक्ति भाव के जरिये अभावग्रस्त जनता में विद्रोह की चेतना का समूल नाश करना है। क्या उत्तरप्रदेश में यही हो रहा है।

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