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मीडिया से छिटकते राजनेता

मुक्त विचार
मुक्त विचार
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मीडिया की सत्ता और प्रभाव बढऩे के साथ ही उसके चरित्र और भूमिका पर नई बहसों का सूत्रपात होने लगा है। केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने भी इसमें एक कड़ी जोड़ दी है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा मीडिया के साथ सीधा संवाद न रखने को लेकर की जा रही शिकायतों के बचाव में कहा कि मीडिया रिपोर्टिंग नहीं करती, एजेण्डा तय करने लगी है। ऐसी स्थिति में राजनेताओं को भी अपनी रणनीति बदलनी पड़ी है। मीडिया में रिपोर्टिंग की जगह बनाने के लिये सोशल मीडिया के इस्तेमाल को उन्होंने इसी आवश्यकता का आविष्कार बताया है।
दरअसल यह तरीका राजनेताओं की मौलिक उपज नहीं है। अमिताभ बच्चन को एक समय मुगालता था कि वे अखबारों से क्योंकि उस समय मीडिया के नाम पर अखबार ही थे, वास्ता क्यों रखें। अखबार उनका क्या बिगाड़ लेंगे। अपने दर्शकों की दीवानगी के साम्राज्य में दरार डालने की मीडिया की वे कुव्वत नहीं समझ रहे थे। दूसरी ओर अखबार भी घात में थे। उनके सांसद बनने के बाद अखबारों को अवसर मुहैया हुआ तो उन्होंने सुपरस्टार को कायदे से निपटाना शुरू कर दिया। उनकी लोकप्रियता का साम्राज्य जिसे वे अभेद्य समझ रहे थे ढहते देर नहीं लगी। उनकी फिल्में एक के बाद एक पिटती चली गयीं और वे लगभग अवसाद की हालत में पहुंच गये। इससे सबक लेकर अपनी 50वीं वर्षगांठ पर उन्होंने नवभारत टाइम्स के संवाददाता को खुद बुलाकर इंटरव्यू दिया जो अखबार के रविवारीय पृष्ठ की लीड के रूप में प्रकाशित हुआ।
अमिताभ बच्चन भले ही नैसर्गिक रूप से राजेश खन्ना और दिलीप कुमार की तरह सुपर स्टार न हों लेकिन उनमें सुपीरियटी काम्प्लैक्स शुरू से ही जबर्दस्त रहा है। जिससे अपनी समझ में टुच्चे पत्रकारों से बतियाने में उन्हें हेठी महसूस होती रही है लेकिन मीडिया के इस्तेमाल के बिना गुजारा भी नहीं हो सकता यह समझ में आने के बाद उन्होंने इसके लिये नये पैंतरे तज्बीजे। जैसे ही उनके दिन बहुरने शुरू हुए। उन्होंने अपने फिल्मी कैरियर के नुकसान की भरपाई के लिये बड़ी कंपनियों का ब्रांड एम्बेसडर बनने की रणनीति अपनाई। चूंकि विज्ञापन दाता होने के नाते यह कंपनियां मीडिया के अन्नदाता की तरह थीं। इसलिये उनका सहारा लेकर अमिताभ बच्चन ने मीडिया को मजबूर किया कि उनके हर ईवेंट को जो चाहे जितना पर्सनल क्यों न हो एडवेंचरस स्कूप के बतौर कवर किया जाये। मसलन सुबह-सुबह सिद्धि विनायक मंदिर में दर्शन के लिये आते जाते अमिताभ बच्चन को देर रात सोये टीवी संवाददाता मालिकान के आदेश की वजह से हैंगओवर की हालत में ही और उस पर उनके गार्डों की बदतमीजी झेलते कवर करते हुए नजर आने लगे। इसके बाद जब ट्विटर का युग आया तो अमिताभ बच्चन का हर छोटा मोटा ट्वीट इसी तरह की मजबूरी के कारण मीडिया में ब्रह्म्ïा वाक्य की तरह सुर्खियों में जगह पाने लगा। मीडिया कर्मियों से दूरी बनाये रखते हुए भी अमिताभ बच्चन ने मीडिया क्रेजी पर्सनालिटी के रूप में सभी को पीछे छोड़ दिया।
जमाने की हवा सूंघने में माहिर राजनेताओं को अमिताभ बच्चन से ही मीडिया को बरतने की नई रणनीति अख्तियार करने की प्रेरणा मिली है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अरुण जेटली के आरोप को एकदम नकार दिया जाये। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने लोगों से सतत संवाद की स्थिति में रहने के लिये अपने पहले कार्यकाल में मीडिया को बड़ी तवज्जो दी। नतीजा क्या हुआ कि हर पल इलैक्ट्रानिक मीडिया के माइक के सामने की स्थिति में बने रहकर उन्होंने अपनी छीछालेदर करा ली। सरकार को अपने कार्यक्रम और नीतियां लागू करते समय कई चरणों से गुजरना पड़ता है लेकिन फटाफट मीडिया में वे जिस तरह घिरकर पस्त हो रहे थे। उससे यह धारणा बनने लगी थी कि या तो केजरीवाल हद दर्जे के निकम्मे हैं या वायदा फरामोश। मीडिया के कैमरे के सामने उनसे व्यवहारिक स्थितियों से परे होकर अलादीनी चिराग की तरह तत्काल रिजल्ट देने की मांग की जाती जो किसी के बस में नहीं हो सकता। पहले कार्यकाल में इस कटु अनुभव की वजह से ही केजरीवाल को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने इर्द गिर्द हर पल होने वाली मीडिया की धमाचौकड़ी पर लगाम लगाने के लिये मजबूर होना पड़ा।
भारतीय संविधान में शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण की व्यवस्था बहुत सोच समझकर की गयी है। इससे कोई एक तंत्र निरंकुश नहीं हो सकता। साथ ही सभी तंत्रों के बीच संतुलन बना रहता है जो सुशासन की आवश्यक शर्त है लेकिन कुछ समय से राजनीतिक तंत्र गरीब की जोरू बन गया है। दीवानी मुकदमों के समयबद्ध निस्तारण की चुनौती का सामना करने में सारी चौकड़ी भूल जाने के बावजूद न्याय पालिका, कार्यपालिका के कामों में अतिलंघन की सीमा तक हस्तक्षेप करने पर आमादा है। राजनीतिक सुधार तो राजनीतिक तंत्र से ही होगा न्याय पालिका, चुनाव आयोग और मीडिया से नहीं लेकिन भ्रम इस तरह से पैदा किया जा रहा है कि जैसे उक्त बाहरी ताकतें राजनीतिक बदलाव को राजनीतिक तंंत्र की तुलना में ज्यादा बेहतरी से अंजाम दे सकती हैं।
इलैक्ट्रानिक मीडिया के प्रभावशाली होने के बाद मीडिया की कार्यशैली को लेकर जो सवाल सबसे ज्यादा तेजी से उठ रहा है। वह मीडिया कर्मियों द्वारा लाइव शो में शालीनता और मर्यादा की सीमाओं को पार करके सामने वाले को नीचा दिखाने का उद्घत आचरण से जुड़ा है। इसी से जुड़ी अन्य चीजें हैं। जिसमें नेता या अधिकारी की बात को तोड़ मरोड़कर अर्थ का अनर्थ करना और अपनी बात या विचार को दूसरे के मुंह में डालने की जबर्दस्ती करना। मीडिया अगर आज भी जनवादी उपकरण होता तो यह अनर्गल हरकतें उसमें पैठ नहीं कर पातीं। पीत पत्रकारिता के दायरे में ऐसी पत्रकारिता को भी रखा गया था जिसमें किसी घटना या विचार को संपूर्णता से काटकर ऐसे संदर्भ में प्रस्तुत किया जाये जिससे उसका अर्थ ही बदल जाये। खबर को बिकाऊ बनाने के लिये मीडिया में पनप चुकीं इस तरह की उच्छृंखलता आज व्यवस्था पर भारी पड़ रही हैं। मीडिया अराजकता के माहौल का उत्प्रेरक बन रही है। इसकी एक वजह यह भी है कि आज मीडिया में खांटी पत्रकारों के लिये कोई जगह नहीं रह गयी। कवि और कहानीकार की तरह पत्रकार भी जन्मजात एक अलग नस्ल के प्राणी होते थे। जिनमें चिंतनशीलता, संवेदनशीलता और प्रतिरोध का गुण स्वाभाविक रूप से मौजूद रहता था। इस नाते वैचारिक पहचान के मामले में एक सीमा के बाद वे कट्टर रुख अपनाने पर पहुंच जाते थे और अध्यवसाय की प्रवृत्ति के कारण सामान्य ज्ञान में पत्रकार का अग्रणी होना उसकी बुनियादी विशेषता मानी जाती थी।
पर आज मीडिया के माध्यम से सिर्फ अधिक से अधिक मुनाफा बटोरने का ही प्रयोजन नहीं रहा। मीडिया को नियंत्रित करने वाला प्रबंधन इसे एक ऐसे हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है जो व्यवस्था को पंगु बनाकर उनके अनुचित और समाज विरोधी स्वार्थ साधन में कारगर हो। इसमें खांटी पत्रकार सहायक की बजाय उनके लिये सबसे बड़ी बाधा साबित हो सकते थे जिसकी वजह से उन्हें नये जमाने के प्रबंधन ने पहले ही मीडिया की दुनिया से खदेड़ दिया है। अब मीडिया के आतंक को स्थापित करने में उपयोगी लंपट और अवांछनीय तत्वों को इसमें प्रमुखता से जगह दी जा रही है। शीर्ष स्तर पर तो यह काम कुछ शोभनीय ढंग से भी होता है लेकिन जिलों में ऐसे तत्वों की वजह से हालत यह हो गयी है कि नेता कौन से आंदोलन और कार्यक्रम करें यह चीज मीडियाकर्मी तय करते हैं। संगठन में किसे पद दिया जाये और किसे नहीं। इसमें भी मीडियाकर्मी अहम भूमिका निभाते हैं। प्रशासनिक अधिकारी भी एक बार सत्तारूढ़ पार्टी के नेता की सिफारिश की अनदेखी तो कर सकता है लेकिन मीडिया के आगे वे भी लाचार हो जाते हैं। सारे चोर बदमाश और भड़ुवे किस्म के लोग मीडिया की शरण लेकर बेखौफ हो रहे हैं। प्रबंधन की उन्हें इसलिये शह रहती है ताकि यह संदेश जाये कि जब उनके गुर्गे इतने हावी हैं तो उनके दबदबे को नकारना शीर्ष सत्ता तक को भी कितना भारी पड़ सकता है। इसका अंदाजा लोग लगा लें। इससे व्यवस्था जबर्दस्त ब्लैकमेलिंग की शिकार होने के लिये अभिशप्त हो गयी है। मीडिया के अनाचार का एक और पहलू इसमें जातिवाद का कोढ़ चरम सीमा पर पहुंच जाने के रूप में नजर आ रहा है। राजनीतिक लोकतंत्र में सुधार के लिये सभी विद्वानों ने सामाजिक लोकतंत्र को कायम किया जाना बेहद जरूरी करार दिया है लेकिन ऐसी मीडिया के प्रचंड दबदबे के रहते हुए यह कैसे संभव है।
मीडिया की कार्यशैली और उसके अनर्गल हस्तक्षेप से सभी परेशान हैं लेकिन इस पर डर की वजह से चर्चा करने से बचने की कोशिश की जाती है। अरुण जेटली ने बहुत ही सधे तरीके से जिस मुकाम पर मीडिया को बेनकाब किया है। वहां यह मीडिया की घेराबंदी की एक बड़ी पहल साबित हो सकता है। गनीमत यह है कि वैचारिक रूप से मुख्य धारा की अधिकांश मीडिया मोदी और संघ के एजेण्डे की सहचर्य है। इसलिये जेटली के बयान पर हंगामा बरपा नहीं हो रहा। वरना दूसरी धारा का नेता इतना कह देता तो शायद है कि बवाल हो जाता। घटना परिघटना के सनसनी फैलाने वाले खण्डित पहलू को उभारने के साथ-साथ व्यवसायिक स्वार्थों के लिये 24 घंटे के न्यूज चैनलों का सूचना संघात भी मीडिया के क्षेत्र में पनप रही कुरीतियों का एक चिंतनीय बिन्दु है। इससे लोगों में उद्वेलन की क्षमता कुंद होती जा रही है। जो कि प्रगतिशील रुझान और परिवर्तनों के लिये आवश्यक है। अरुण जेटली के बहाने ही सही लेकिन यहां इन पंक्तियों को याद करना मौजूं लगता है कि बात निकली है तो दूर तलक जायेगी।

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