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हजारी प्रसाद द्विवेदी मानते थे राहुल के सामने हो जाती है उनकी बोलती बन्द

मुक्त विचार
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डा.हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने आप में विद्वता के हिमालय थे लेकिन एक बार राहुल सांकृत्यायन का जिक्र छिड़ा तो उन्होंने कहा कि मैं किसी भी सभा में धारा प्रवाह बोल सकता हूं लेकिन जिस सभा में राहुलजी होते हैं उसमें बोलते हुए उन्हें सहम जाना पड़ता है। राहुलजी के पास इतनी जानकारियां और ज्ञान है कि उनके सामने मुझे अपना व्यक्तित्व बौना दिखने लगता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन महापुरुष की विनम्रता के अनुरूप था लेकिन इससे राहुलजी की अपने समय में अपार विद्वता का अनुमान तो हो ही जाता है। राहुल सांकृत्यायन अनूठा व्यक्तित्व थे और औपचारिक रूप से उन्होंने केवल पांचवीं तक ही शिक्षा प्राप्त की थी लेकिन अध्यवसाय से उन्होंने अकादमिक क्षेत्र में शिखर का स्थान हासिल कर लिया था जो सोवियत संघ, श्रीलंका और चीन सहित दुनिया के कई देशों में उनको विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति दी जाने से स्पष्ट है।
राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल 1893 को आजमगढ़ जिले के कनैला गांव में हुआ था लेकिन उनका पालन पोषण अपने ननिहाल पन्दहा गांव में हुआ। ब्राह्म्ïाण कुल में जन्मे राहुलजी का उनके अभिभावकों ने केदारनाथ पाण्डेय नामकरण किया था। 9 वर्ष की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया। जिससे उन्होंने बगावत कर दी और घर छोड़कर भाग गये। इसके बाद उन्हें बिहार के एक संपन्न मठ में महन्त बनने का भी अवसर मिला लेकिन वे इसमें बहुत दिनों तक नहीं टिक पाये। दरअसल राहुल सांकृत्यायन का उद्देश्य अपने जीवन को सुख सुविधाओं से संवारना नहीं था। सामान्य मनुष्य जीवन को आवश्यकता और ऐश्वर्य के सारे साधन जुटाकर स्थिर करने का लक्ष्य हासिल करने के लिये व्यग्र रहते हैं लेकिन अगर ऐसी स्थिरता में राहुल सांकृत्यायन का विश्वास होता तो वे साहित्य, संस्कृति, धर्म और राजनीति के महान अध्येता नहीं बन पाते।
राहुल सांकृत्यायन के अन्दर एक बेचैन आत्मा थी। उन्हें हर विषय में गहराई तक जाने और उसके कार्यकरण को लेकर अन्वेषण करने की जबर्दस्त ललक थी। इसी ललक के चलते उन्होंने जापान, श्रीलंका, तिब्बत, सोवियत संघ, चीन, मंचूरिया सहित दुनिया के कई देशों का भ्रमण किया। उन्होंने वहां के समाज और साहित्य को समझने के लिये हर जगह की भाषा सीखने की मेहनत की। उन्होंने विचारधारा या पंथ के नाम पर किसी विरासत को नहीं ढोया बल्कि अनुभव और अन्तश्चेतना से परखते हुए वैचारिक विकास किया। जिसमें उन्हें अपनी परंपरा और संस्कारों की लक्ष्मण रेखायें लांघकर आगे बढऩा पड़ा। वैष्णव से आर्य समाजी, इसके बाद बौद्ध और अन्त में माक्र्सवादी होने तक उनकी चिंतन यात्रा वैज्ञानिक बौद्धिक विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करने वाली है। सत्य के नजदीक पहुंचने और दुनिया को नया रास्ता दिखाने की क्षमता के लिये यह गुण होना नितान्त अनिवार्य है।
राहुल सांकृत्यायन ने अपने जीवन में 135 से ज्यादा किताबें लिखीं। घुमक्कड़ी साहित्य के तो वे महारथी थे। इस विधा में उनके जैसा लेखन अभी तक नहीं हुआ। बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद उनके मन में पुराने बौद्ध भाष्यकारों की मूल पांडुलिपियां हासिल करने की धुन सवार हुई। इसके लिये उन्होंने बहुत जोखिम उठाया। तिब्बत की दुर्गम कंदराओं में उन्होंने यात्रायें कीं। उनके पास पासपोर्ट और वीजा भी नहीं था लेकिन उत्कट जिज्ञासा के आगे कोई भय उन्हें डरा नहीं सका। तिब्बत से वे खच्चरों पर भरकर अमूल्य बौद्ध साहित्य लेकर आये। एक तरह से देश में बौद्ध धम्म को पुनर्जीवन देने में उनका बहुत बड़ा योगदान है।
हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि वे बौद्ध अनुयायी नहीं बौद्ध अनुरागी मात्र हैं। वजह यह थी कि उन्हें तथागत बुद्ध के कई फैसलों में क्रांतिकारी प्रवृत्ति से विचलित होकर समाज के निहित स्वार्थों से हाथ मिला लेने की झलक दिखी और इस पर वे बेबाक टिप्पणी करने से नहीं चूके। उन्होंने कहा कि तथागत के अनुयायियों में राजा और साहूकार बड़ी संख्या में शामिल हो गये थे जिससे उन्हें उनके हितों का ख्याल रखने के लिये क्रांतिकारी धारा में समझौतावादी मोड़ लाना पड़ा। साहूकारों का कर्जा मारने के लिये कोई बौद्ध न हो जाये इसलिये उन्होंने आज्ञा जारी कर दी कि किसी कर्जदार को प्रवज्या नहीं दी जायेगी। इसी तरह सम्राटों के कहने से उन्होंने किसी सैनिक को प्रवज्या देना निषिद्ध कर दिया।
राहुल सांकृत्यायन ने जालौन जिले में भी लम्बे समय तक प्रवास किया। वे पहले आर्य समाज का विद्यालय चलवाने के लिये कालपी में रहे। इसके बाद उन्होंने कोंच के पास महेशपुरा में भी एक संस्कृत विद्यालय संचालित किया। जालौन जिला उनके जीवन के लिये एक ऐतिहासिक मोड़ सिद्ध हुआ। उन्होंने लिखा है कि जब वे महेशपुरा में थे उसी समय उनके पढऩे में सोवियत संघ की क्रांति से सम्बन्धित खबरें आयीं। उन्हें माक्र्सवाद की उस समय कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी। केवल यह पता था कि यह विचारधारा मजदूर वर्ग के अधिकारों के लिये क्रांति को अंजाम दे रही है। इसलिये उनका रुझान माक्र्सवादी विचारधारा की ओर हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता लेने के बहुत पहले उन्होंने बुद्ध के लोकतांत्रिक रुझान और साम्यवाद के वर्ग विहीन समाज के संकल्प को मिलाकर 22वीं सदी की दुनिया की कल्पना का एक खाका 22वीं सदी के नाम से अपनी पुस्तक में खींचा जो विकल्प के लिये भटक रहे भारत में आज के समय में प्रासंगिक सिद्ध हो सकती हैं।
सही ज्ञानी की पहचान यही है कि वह जब तक तर्क और बुद्धि से संतुष्ट न हो तब तक किसी विचार को मान्य न करें। इसलिये चाहे बौद्ध धर्म के प्रति उनकी अनुरक्ति का मामला हो या साम्यवाद का। उन्होंने अंधे होकर किसी विचारधारा का अनुगमन नहीं किया। उन्होंने जिस तरह बौद्ध धर्म की विसंगतियों पर टिप्पणियां कीं उसी तरह 1947 में साहित्य सभा के अध्यक्ष के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा लिखित भाषण और एक तरफ कर भाषा सम्बन्धी मामले में स्वतंत्र भाषण किया। जिससे पार्टी उनसे नाराज हो गयी और उन्हें निष्कासित कर दिया गया। हालांकि कुछ वर्षों बाद पार्टी को उन्हें फिर अपनाना पड़ा।
दर्शन दिग्दर्शन हो या इस्लाम धर्म की रूपरेखा नाम की उनकी पुस्तक। इनसे पता चलता है कि उनका दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों पर कितना जबर्दस्त अधिकार था। वे हर धार्मिक दर्शन की तात्विकता तक पहुंच जाने की क्षमता रखते थे। इसलिये धर्मों को समझने के बारे में उनका दृष्टिकोण आज भी अत्यन्त ग्राह्यï है। विलक्षण प्रतिभा की वजह से ही अन्तिम समय उन्हें स्मृति लोप का रोग हो गया था और 2-3 वर्ष इसी हालत में रहकर उन्होंने 14 जुलाई 1963 को प्राण त्याग दिये।
आज जबकि भौतिक विकास की बलिवेदी पर व्यक्ति और समाज की रचनात्मक जिज्ञासाओं की भेंट समाज विज्ञान के विषयों की पढ़ाई बन्द कर चढ़ाई जा रही है तो स्वाभाविक है कि नई पीढ़ी राहुल सांकृत्यायन के नाम से भी अपरिचित बनी हुई है लेकिन वितंडावाद के अन्तर्गत दी जाने वाली शरारतपूर्ण जानकारियों से बौद्धिक क्षितिज पर छाये प्रदूषण के चलते जिस तरह की संकीर्णता और असहिष्णुता का प्रसार देश में हो रहा है और उससे सामाजिक व राष्ट्रीय एकता के लिये नये तरह के खतरे उत्पन्न होते जा रहे हैं। उनके संदर्भ में राहुल के बारे में नई पीढ़ी का ध्यान खींचना आज अत्यन्त आवश्यक हो गया है। राहुल की चिंतन धारा में तथागत बुद्ध की सम्यक चिंतन और सम्यक समाधि के अष्टांगिक मार्ग का समावेश है। इसका अनुशीलन करके ही वैज्ञानिक दृष्टि हासिल होना संभव है। जो षड्यन्त्रपूर्ण वितंडावाद से मुक्त कर नई पीढ़ी को अप्पो दीपोभव की ओर अग्रसर करने में सहायक होगा।

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